प्रमोद भार्गव
मौसम विभाग की सटीक भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों के बावजूद तूफान ताउते के तांडव से पांच राज्यों के करीब 25 लाख लोग प्रभावित हुए। भारी बारिश के चलते ज्यादातर नदियों ने अपने किनारे लांघकर 5,195 ग्रामों में विनाश की लीला रच दी। 18 हजार घर क्षतिग्रस्त हुए, 674 से ज्यादा सड़क मार्ग बाधित हुए, 79,429 बिजली के खंबे और 40,000 से अधिक पेड़ जमींदोज हो गए। सैंकड़ों लोगों के मारे जाने की खबर तो है ही अरब सागर में 190 किमी की रफ्तार से चली हवाओं के चलते चार जहाज समुद्र में फंस गए। जिनमें सवार ज्यादातर लोगों को वायु और नौ-सेना के आपदा राहत बचाव दलों ने बचा लिया। लेकिन काफी लोग अभी भी लापता हैं।
केरल, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और गोवा की कई नदियां उफान पर हैं। राजस्थान राज्य को अपनी चपेट में लेता हुआ ताउते ठंडा पड़ गया। समुद्रतटीय रेल पटरियां पानी में डूब जाने के कारण अनेक रेलों को रद्द करना पड़ा। इस विनाशकारी चक्रवात का असर मध्य-प्रदेश, उत्तर-प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में भी देखा गया है। इन राज्यों में कई घंटे बारिश हुई है। यदि मौसम विभाग द्वारा सटीक भविष्यवाणी नहीं कि गई होती तो इस चक्रवात से और भी ज्यादा नुकसान हो सकता था। इसकी तेज रफ्तार से होने वाली हानि का अनुमान लगाकर एनडीआरफ की सौ टीमें समुद्र तटीय इलाकों में तैनात कर दी गई थीं। अरब सागर में मौजूद सभी मछुआरों को वापस बुला लिया था। बचाव व राहत कार्यों के लिए वायुसेना के 16 मालवाहक जहाज और 18 हेलिकॉप्टर्स तैनात थे। मौसम विभाग ने 16 से 19 मई के बीच 150 से 160 किलोमीटर औसत प्रतिघंटे की रफ्तार वाली हवाओं के इस तूफान ‘ताउते’ को ‘अत्यंत भीषण चक्रवाती तूफान’ होने की भविष्यवाणी कर दी थी। जो सच साबित हुई। इस परिप्रेक्ष्य में हमारी तमाम एजेंसियों ने आपदा से कुशलतापूर्वक सामना करके एक भरोसेमंद मिसाल पेश की है, जो सराहनीय व अनुकरणीय है।
भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अकसर सही साबित नहीं होते, इसलिए उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन फेलिन, हुदहुद, अम्फान और तितली चक्रवात से जुड़ी उसकी भविष्यवाणी सटीक बैठी है। इन अवसरों पर हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्युटर और डापलर राडार जैसी श्रेष्ठतम तकनीक के माध्यमों से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र एवं उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में भी सफल रहे हैं। तूफान की तीव्रता, हवा की गति और बारिश के अनुमान भी कमोबेश सही साबित हुए। इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरूरत है, जिससे बाढ़, सूखे, भूकंप और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और इनसे सामना किया जा सके। साथ ही मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरूरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य व जिलेवार भविष्यवाणियां की जा सकें। यदि ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा। साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा। किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे।
मौसम संबंधी उपकरणों के गुणवत्त्ता व दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरूरत है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से समुद्रतटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्री जीवों पर निर्भर हैं। लिहाजा समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना पड़ता है। इस तूफान को ताउते या टाक्टे नाम म्यांमार ने दिया है। बर्मी भाषा के इस शब्द का अर्थ एक विशेष प्रकार की छिपकली होता है। प्रत्येक तूफान को अलग-अलग देश बारी-बारी से नाम देते हैं।
1999 में जब उड़ीसा में नीलम (फैलिन) तूफान आया था तो हजारों लोग सटीक भविष्यवाणी न होने और आपदा प्रबंधन की कमी के चलते मारे गए थे। 12 अक्टूबर 2013 को उष्णकटिबंधीय चक्रवात फैलिन ने ओडिशा तट पर दस्तक दी थी। अंडमान सागर में कम दबाव के क्षेत्र के रूप में उत्पन्न हुए फैलिन ने 9 अक्टूबर को उत्तरी अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पार करते ही एक चक्रवाती तूफान का रूप ले लिया था। इसने सबसे ज्यादा नुकसान ओडिशा और आंध्र प्रदेश में किया था। इस चक्रवात की भीषणता को देखते हुए 6 लाख लोग सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाएं गए थे। तूफान का केंद्र रहे गोपालपुर से तूफानी हवाएं 220 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गुजरी थी। 2004 में आए सुनामी तूफान का असर सबसे ज्यादा इन्हीं इलाकों में देखा गया था। हालांकि हिंद महासागर से उठे इस तूफान से 14 देश प्रभावित हुए थे। तमिलनाडू में भी इसका असर देखने में आया था। इससे मरने वालों की संख्या करीब 2 लाख 30,000 थी। भारत के इतिहास में इसे एक बड़ी प्राकृतिक आपदा के रूप में देखा जाता है।
8 और 12 अक्टूबर 2014 में आंध्र एवं ओडिशा में हुदहुद तूफान में भी भयंकर कहर बरपाया था। इसकी दस्तक से इन दोनों राज्यों के लोग सहम गए थे। भारतीय नौसेना एनडीआरएफ ने करीब 4 लाख लोगों को सुरक्षित क्षेत्रों में पहुंचाकर उनके प्राणों की रक्षा की थी। इसलिए इसकी चपेट से केवल छह लोगों की ही मौंते हुई। हालांकि आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा तबाही 1839 में आए कोरिंगा तूफान ने मचाई थी। गोदावरी जिले के कोरिंगा घाट पर समुद्र की 40 फीट ऊंचीं उठी लहरों ने करीब 3 लाख लोगों को निगल लिया था। समुद्र में खड़े 20,000 जहाज कहां विलीन हुए पता ही नहीं चला। 1789 में कोरिंगा से एक और समुद्री तूफान टकराया था, जिसमें लगभग 20,000 लोग मारे गए थे।
कुदरत के रहस्यों की ज्यादातर जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते, लेकिन उनका सामना या उनके असर कम करने की दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के तो तमाम इलाके वैसे भी बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित होते जा रहे पर्यावरण के कारण ये खतरे और इनकी आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। कहा भी जा रहा है कि फेलिन, ठाणे, आइला, आईरिन, नीलम और सैंडी जैसी आपदाएं प्रकृति की बजाय आधुनिक मनुष्य और उसकी प्रकृति विरोधी विकास नीति का पर्याय हैं। इस बाबत गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आशंका जताई थी, लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रूप में 2012 में ही आ धमके थे। 17 साल पहले ओड़िशा में सुनामी से फूटी तबाही के बाद पर्यावरणविदों ने यह तथ्य रेखांकित किया था कि अगर मैग्रोंव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओड़िशा के तटवर्ती शहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख 70 हजार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे। दरअसल, जंगल एवं पहाड़ प्राणी जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाश को यदि नीतियों में बदलाव लाकर नहीं रोका गया तो तय है कि आपदाओं के सिलसिलों को भी रोक पाना मुश्किल होगा। लिहाजा नदियों के किनारे अवासीय बस्तियों पर रोक और समुद्र तटीय इलाकों में मैंग्रोव के जंगलों का संरक्षण जरूरी है।
दरअसल कार्बन फैलाने वाली विकास नीतियों को बढ़ावा देने के कारण धरती के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। यही कारण है कि बीते 134 सालों में रिकार्ड किए गए तापमान के जो 13 सबसे गर्म वर्ष रहे हैं, वे वर्ष 2000 के बाद के ही हैं और आपदाओं की आवृत्ति भी इसी कालखण्ड में सबसे ज्यादा बढ़ी है। पिछले तीन दशकों में गर्म हवाओं का मिजाज तेजस्वी लपटों में बदला है। इसने धरती के 10 फीसदी हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है। बताया जा रहा है कि वैश्विक तापवृद्धि के चलते समुद्री तल खौल रहा है। फ्लोरिडा से कनाडा तक फैली अटंलांटिक की 800 किमी चैड़ी पट्टी में समुद्री तल का तापमान औसत से तीन डिग्री सेल्सियस अर्थात् 5.4 फारेनहाइट ज्यादा है। यही उर्जा जब सतह से उठ रही भाप के साथ मिलती है तो समुद्री तल में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव शुरू हो जाता है, जो चक्रवाती बंवडर को विकसित करता है। इस बवंडर के वायुमंडल में विलय होने के साथ ही, वायुमंडल की नमी 7 फीसदी बढ़ जाती है, जो तूफानी हवाओं को जन्म देती है। प्राकृतिक तत्वों की यही बेमेले रासायनिक क्रिया भारी बारिश का आधार बनती है, नतीजतन तबाही के परचम से धरती कांप उठती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)