– रमेश सर्राफ धमोरा
हाल ही के राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना व मिजोरम विधानसभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ तेजी से गिरा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी वाले प्रदेशों में बहुजन समाज पार्टी एक तीसरे विकल्प के रूप में अपनी ताकत का एहसास कराती आई थी। मगर इस बार के विधानसभा चुनाव में बसपा का पूरी तरह सूपड़ा ही साफ हो गया है। पिछले विधानसभा चुनाव में राजस्थान में बसपा को 4 प्रतिशत वोट व 6 सीटों पर जीत मिली थी। मगर इस बार यहां बसपा 1.82 प्रतिशत वोटों के साथ मात्र दो सीटों पर ही सिमट गई है। राजस्थान विधानसभा चुनाव में बसपा को मात्र 721037 वोट मिले हैं। मध्य प्रदेश में पिछली बार बसपा को दो सीट व 5.01 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार के बसपा को 3.40 प्रतिशत यानी 14,77,202 वोट तो मिल गए मगर सीट एक भी नहीं मिली।
इसी तरह छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में पिछली बार बसपा को दो सीटों के साथ 552313 यानी 3.9 प्रतिशत वोट मिले थे। मगर इस चुनाव में वहां बसपा को सीट तो एक भी नहीं मिली उसके साथ ही वोटों में भी गिरावट दर्ज हुई है। वहां बसपा को 319903 यानी 2.05 प्रतिशत वोट ही मिले हैं। तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुला। वहां पार्टी को 321074 यानी 1.37 प्रतिशत वोट मिले मिजोरम में तो वैसे ही बसपा का कोई नाम लेवा नहीं है। 2022 में हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बसपा 53 सीटों पर चुनाव लड़ी मगर एक भी प्रत्याशी नहीं जीत पाया था। वहां पार्टी को 14613 यानी 0.35 प्रतिशत मत मिले थे। पिछले गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव में वहां बसपा ने 101 सीटों पर चुनाव लड़ा। जिसमें 100 सीटों पर पार्टी प्रत्याशियों के जमानत जब्त हो गई थी। वहां पार्टी को मात्र 158123 यानी 0.5 प्रतिशत मत मिले थे। उत्तराखंड में बसपा के दो व पंजाब में एक विधााक हैं।
उत्तर प्रदेश की स्थिति देखें जहां से बसपा का जन्म हुआ था, वहां 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी महज एक सीट ही जीत सकी थी। वहां बसपा को सिर्फ 12.88 प्रतिशत मत मिले थे। वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीट व 22.31 प्रतिशत वोट मिले थे। 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में 80 सीटों के साथ 25.91 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 30.43 प्रतिशत वोटो के साथ 206 सीट जीतकर अपने दम पर सरकार बनाई थी। 2002 के चुनाव में बसपा को 98 सीट व 23.6 प्रतिशत वोट मिले थे। 1996 के चुनाव में 67 सीट व 19.64 प्रतिशत वोट मिले थे। 1993 के चुनाव में 67 सीट व 11.12 प्रतिशत वोट, 1991 के चुनाव में 12 सीट व 9.44 प्रतिशत वोट मिले थे। 1989 के चुनाव में पहली बार बसपा ने उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़कर 13 सीट तथा 9.41 प्रतिशत वोट पाए थे।
इन आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि बहुजन समाज पार्टी का जनाधार लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है। लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देख तो 2019 के चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में 10 सीटें व 3.67 प्रतिशत वोट मिले थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुला था। हालांकि पार्टी को 4.19 प्रतिशत वोट मिले थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने उत्तर प्रदेश में 20 व मध्य प्रदेश में एक कुल 21 सीट व 6.56 प्रतिशत वोट पाए थे। 2004 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने उत्तर प्रदेश से 19 सीट जीतकर 5.33 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे।
1999 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने उत्तर प्रदेश से 14 सीट जीती थी तथा 4.16 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे। 1998 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने उत्तर प्रदेश में चार व हरियाणा में एक कुल पांच सीट जीती थी तथा 4.67 प्रतिशत वोट पाए थे। 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने उत्तर प्रदेश से 6 पंजाब से तीन व मध्य प्रदेश से दो यानि कुल 11 सीट जीती थी तथा 4.02 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। 1991 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने मध्य प्रदेश में एक पंजाब में एक व उत्तर प्रदेश में एक कुल तीन सीट जीती थी वहीं 1.61 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। 1989 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा था और पार्टी ने उत्तर प्रदेश में तीन व पंजाब में एक कुल चार सीटे जीत कर 2.07 प्रतिशत वोट पाये थे।
पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से समझौता होने के चलते 10 सीटों पर जीत जरूर हासिल कर ली थी। मगर उसके बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने समाजवादी पार्टी से अपना चुनावी गठबंधन समाप्त कर दिया था और एकला चलों की नीति पर ही 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ा था। जिसमें पार्टी का प्रदर्शन सबसे कमजोर रहा था। 2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां से बसपा एक ताकत बनकर उभरी थी और चार बार सरकार बना चुकी है। वहां मात्र एक सीट पर सिमट जाना पार्टी के नेताओं के लिए बड़े शर्म की बात है।
कांशीराम के जमाने में बसपा का पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे कई प्रदेशों में बड़ा प्रभाव रहता था। लेकिन अब धीरे-धीरे बसपा सिमटने लगी है। बसपा से जीते हुए बहुत से सांसद, विधायक दल बदल कर दूसरे दलों में शामिल हो जाते हैं। जिससे बसपा दिनों-दिन कमजोर होने लगी है। राजस्थान विधानसभा के 2008 व 2018 के चुनाव में बसपा से 6-6 विधायक चुनाव जीते थे। मगर दोनों ही बार सभी विधायकों ने कांग्रेस में विलय कर गहलोत सरकार में मंत्री व अन्य लाभकारी पदों पर बैठ गए थे।
कभी बसपा में कैडर पार्टी का मुख्य आधार होता था। मगर आज पार्टी में कैडर नाम मात्र का भी नहीं बचा है। पार्टी के अधिकांश बड़े पदों पर पुराने नेताओं के स्थान पर दलबदलुओं का कब्जा हो गया है। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती का अकेले चलो की सोच ने पार्टी को रसातल में पहुंचा दिया है। मायावती ना तो केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के साथ जाना चाहती है और ना ही इंडिया गठबंधन में शामिल होना चाहती है। ऐसे में एकला चलो की नीति बसपा के लिए आत्मघाती साबित हो रही है।
बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को विधिवत अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है ताकि पार्टी को एक युवा नेता मिल सके। अब आगे उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड कि राजनीति स्वयं मायावती देखेगी बाकी के प्रदेशों में संगठन का काम आकाश आनंद संभालेंगे। यदि मायावती को अपनी पार्टी का राजनीतिक अस्तित्व बचाना है तो उन्हें भाजपा नीत एनडीए या कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन में से किसी एक का साथ भी लेना होगा। बिना किसी गठबंधन में शामिल हुए बसपा का जनाधार बचना मुश्किल लग रहा है। केंद्र सरकार विरोधी इंडी गठबंधन में शामिल अधिकांश दलों के नेता भी चाहते हैं कि मायावती उनके गठबंधन में शामिल होकर भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकता को मजबूत करें। अब इस बात का फैसला तो खुद मायावती को ही करना है कि वह किसी गठबंधन में शामिल होगी या फिर अपना एकला चलो का राग ही अलापति रहेगी।
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