– ललित गर्ग
हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों-जिनमें साहित्यकार, पत्रकार, लेखक, कलाकार ने हिंदुत्व की तरह ही ‘राष्ट्रवाद’ को लांछित करने, अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। हिंदू देवी-देवताओं को अपमानित करने के साथ राष्ट्रीय अस्मिता को धुंधलाने में राष्ट्र विरोधी शक्तियां सक्रिय है। ऐसे ही राष्ट्र-विरोध एवं हिन्दुत्व को अपमानित करने वाले स्टैंड-अप कमीडियन मुनव्वर फारूकी इनदिनों देश ही नहीं, दुनिया में अपनी हरकतों के कारण चर्चित है, जन-विरोधी भावनाओं का सामना कर रहे हैं। पिछले दो महीनों में अलग-अलग राज्यों और शहरों में उनके 12 शो जनभावनाओं के विरोध के कारण स्थगित हुए हैं। फारूकी न केवल भाजपा नेताओं का बल्कि हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाकर उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं। उन्होंने भारत के गौरव को गलत तरीके से प्रस्तुत करने का दुस्साहस किया है। भारतीय समुदाय के लोग धन्यवाद के पात्र हैं कि वे न केवल देश में बल्कि सात समन्दर पार भी अपनी पावन संस्कृति के प्रति जागरूक हैं तथा सत्य के पक्ष में भारत की संस्कृति को बदनुमा करने की कुचेष्टाओं के लिये एकजुट होकर अपना विरोध दर्ज कराया हैं।
मुनव्वर फारूकी का समर्थन करने वाले खुलमखुला भारत के गौरव को कुचलने की चेष्टाओं को लोकतंत्र विरोधी बता रहे हैं। प्रश्न है कि फारूकी या किसी भी कमीडियन, कलाकार, पत्रकार या आम नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राष्ट्रीय अस्मिता को बदनुमा करने की आजादी कैसे दी जा सकती है? असंख्य हिन्दुओं की आस्था से जुड़े हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाकर उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस कैसे पहुंचाने दिया जा सकता है? उनके शो से शांति-व्यवस्था भंग होने का अंदेशा रहा है, इसलिये उनके शो को रोका जाना कोई गलत कदम नहीं कहा जासकता। तमाम नियम कायदों और निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन करते हुए यदि उनके शो नियंत्रित किये गये हैं तो यह प्रशासनिक जागरूकता है और इससे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था भी कामय हुई है। फिर भी मामला अदालत में है और इसीलिए उसमें कौन कितना दोषी या निर्दोष है, यह अदालत से ही तय होगा।
मुनव्वर फारूकी मनोरंजन एवं कला के नाम पर हिन्दुओं के दुष्प्रचार के तथाकथित क्रूर एवं धार्मिक आस्थाओं को कुचलने वाले उपक्रम करते रहे हैं। जो भारत की पावन सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रतिमानों के साथ खिलवाड़ है। फारूकी जैसे असंख्य प्रशंसकों के चहते कलाकार भी विरोध के धरातल पर स्वयं को चमकाते है, ऐसी ही हिंदुत्व विरोधी ताकतें ही कई अर्थों में भारतीयता विरोधी एजेंडा भी चलाते हुए दिखती हैं। वे हिंदुत्व को अलग-अलग नामों से लांछित करती हैं। कई बार ‘साफ्ट हिंदुत्व’ तो कई बार ‘हार्ड हिंदुत्व’ की बात की जाती है। हिंदुत्व शब्द को लेकर समाज के कुछ बुद्धिजीवियों में जिस तरह के नकारात्मक भाव हैं कि उसके पार जाना कठिन है, लेकिन उससे पार जाकर ही भारत को सशक्त बनाया जा सकता है। जैसाकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि हिंदुत्व एक वृहद तथा समावेशी विचार है। हिंदुत्व अपने आप में एक परिपूर्ण विचारधारा है। भागवत कई अवसरों पर यह कह चुके हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं इसके अलावा कुछ समय पहले उन्होंने हिंदुत्व पर ही एक बयान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत के हिंदू व मुसलमान का डीएनए एक है। समान संवेदना और समान अनुभूति से जुड़ने वाला हर भारतवासी अपने को भारतीय कहने का हक स्वतः पा जाता है। लेकिन देश में ऐसी शक्तियां भी सक्रिय हैं जो भारत विरोधी होकर स्वयं को ज्यादा शक्तिशाली महसूस करती है। ऐसी ही शक्तियों से सावधान रहने की अपेक्षा है, ये ज्यादा घातक एवं नुकसान देने वाली होती है।
भारत किसी के विरुद्ध नहीं है। विविधता में एकता इस देश की प्रकृति है, संस्कृति है, यही प्रकृति-संस्कृति इसकी विशेषता भी है। अनेक विलक्षणताओं एवं विशेषताओं के कारण भारत दुनिया का गुरु रहा है और पुनः गुरु बनने की क्षमताएं जुटा रहा है, लेकिन यह स्थिति अनेक मुनव्वर फारूकी जैसे भारत-विरोधी लोगों को पसन्द नहीं है। प्रख्यात विचारक ग्राम्सी कहते हैं, “गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती है।” भारतीय समाज भी लंबे समय से सांस्कृतिक गुलामी से घिरा रहा है, बोलने की स्वतंत्रता के नाम पर, कला के नाम पर आज भी मुनव्वर फारूकी और ऐसी ही तथाकथित शक्तियां भारत को सांस्कृतिक गुलामी की ओर धकेलना चाहती है। इसलिये हमारे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को कहना पड़ा, “हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें मिलकर, यह समस्याएं सभी।” किंतु दुखद यह है कि आजादी के बाद भी हमारा बौद्धिक, राजनीतिक और प्रभु वर्ग समाज में वह चेतना नहीं जागृत कर सका, जिसके आधार पर भारतीय समाज का खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आता। क्योंकि वह अभी भी अंग्रेजों द्वारा कराए गए हीनताबोध से मुक्त नहीं हुआ है। भारतीय ज्ञान परंपरा को अंग्रेजों ने तुच्छ बताकर खारिज किया ताकि वे भारतीयों की चेतना को मार सकें और उन्हें गुलाम बनाए रख सकें। गुलामी की लंबी छाया इतनी गहरी है कि उसका अंधेरा आज भी हमारे बौद्धिक जगत को पश्चिमी विचारों की गुलामी के लिए मजबूर करता है।
ऐसी ही गुलामी मानसिकता से जुड़े लोग माओवाद, खालिस्तान, रोहिंग्या को संरक्षण देने की मांग, जनजातियों और विविध जातियों की कृत्रिम अस्मिता के नित नए संघर्ष खड़े करके भारत को कमजोर करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। इसमें उनका सहयोग अनेक उदार वाममार्गी बौद्धिक और दिशाहीन बौद्धिक भी कर रहे हैं। आर्थिक तौर पर मजबूत ये ताकतें ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ के विचार के सामने चुनौती की तरह खड़ी हैं। हमारे समाज की कमजोरियों को लक्ष्य कर अपने हित साधने में लगी ये ताकतें भारत में तरह-तरह की बैचेनियों का कारक और कारण भी हैं।
भारत के सामने अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र है, ‘सबसे पहले भारत’ स्व-पहचान एवं स्व-संस्कृति। इसके साथ ही हमें अपने समाज में जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे। भारत विरोधी ताकतें तोड़ने के सूत्र खोज रही हैं, हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे। किन कारणों से हमें साथ रहना है, वे क्या ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारण हैं जिनके कारण भारत का होना जरूरी है। इन सवालों पर सोचना जरूरी है। अगर वे हमारे समाज को तोड़ने, विखंडित करने और जाति, पंथ के नाम पर लड़ाने के लिए सचेतन कोशिशें चला सकते हैं, तो हमें भी इस साजिश को समझकर सामने आना होगा। मुनव्वर फारूकी के शो को रोकने की कोशिशें ऐसी ही पहल है, जिनका विरोध नहीं, स्वागत होना चाहिए। भारत का भला और बुरा भारत के लोग ही करेंगे। इसका भला वे लोग ही करेंगे जिनकी मातृभूमि और पुण्यभूमि भारत है। वैचारिक गुलामी से मुक्त होकर, नई आंखों से भारत को सशक्त बनाते हुए दुनिया को देखना होगा। अपने संकटों के हल तलाशना और विश्व मानवता को सुख के सूत्र देना हमारी जिम्मेदारी है और यही हमारी परम्परा रही है।
समाज एवं राष्ट्र के किसी भी हिस्से में कहीं कुछ राष्ट्र-विरोधी होता है तो हमें यह सोचकर निरपेक्ष नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये राष्ट्र-विरोध की स्थितियों से संघर्ष, उनसे पलायन नहीं करना ही राष्ट्रीयता को सशक्त करने का माध्यम है। ऐसा कहकर हम अपने दायित्व और कर्त्तव्य को विराम न दे कि लोकतंत्र में सबको बोलने का अधिकार है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। चिनगारी को छोटी समझकर दावानल की संभावना को नकार देने वाला राष्ट्र एवं समाज कभी स्व-अस्मिता एवं अस्तित्व को बचाने में कामयाब नहीं होता। बुराई कहीं भी हो, स्वयं में या समाज, परिवार अथवा राष्ट्र में तत्काल हमें अंगुली निर्देश कर परिष्कार करना अपना लोकतांत्रिक अधिकार समझना चाहिए। क्योंकि एक स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र स्वस्थ जीवन की पहचान बनता है। संकीर्ण राजनीति की दूषित हवाओं ने भारत की चेतना को प्रदूषित किया है, लेकिन कब तक यह प्रदूषण हमारी जीवन सांसों को बाधित करता रहेगा?
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