– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तर प्रदेश का चुनाव है तो प्रांतीय लेकिन इसका महत्व राष्ट्रीय है, क्योंकि यह देश का सबसे बड़ा प्रदेश है। इसके सांसदों की संख्या 80 है और विधायकों की 4 सौ से भी ज्यादा है। भारत के जितने प्रधानमंत्री इस प्रदेश ने दिए हैं, किसी अन्य प्रदेश ने नहीं दिए। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री वैसे तो गुजराती हैं लेकिन वे चुन कर आए हैं, उत्तर प्रदेश से ही ! इसीलिए पांच राज्यों के चुनावों में शेष राज्यों के मुकाबले देश का ध्यान सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश पर ही केंद्रित हो रहा है। इसके चुनाव परिणामों से अगला लोकसभा चुनाव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
उत्तर प्रदेश के इस चुनाव के बाद किस पार्टी की सरकार बनेगी, यह कहना अभी आसान नहीं है लेकिन इस चुनावी दंगल ने भारत के लोकतंत्र को थोकतंत्र में बदल दिया है। सभी पार्टियां एक ही रास्ते पर चल पड़ी हैं। वे नहीं चाहतीं कि हर मतदाता अपने उम्मीदवारों और पार्टियों के गुण-दोषों के आधार पर अपना मतदान करे। उन्हें चाहिए अंधा थोक वोट! इस थोक वोट की दो खदाने हैं। एक है, जाति और दूसरी है, मजहब! कोई भी पार्टी सबके साथ और सबके विकास की बात नहीं कर रही है। सत्तारुढ़ भाजपा भी अपने विकास कार्यों को रेखांकित करने की बजाय उसी गेंद को ठप्पे दे रही है, जिसे समाजवादी पार्टी ने उछाल रखा है।
उ.प्र. के चुनाव में इस समय दो ही पार्टियों का बोलबाला है। भाजपा और सपा ! बसपा और कांग्रेस भी मैदान में हैं लेकिन दोनों हाशिए पर हैं। भाजपा और सपा ने अपने उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की है, उनमें इन उम्मीदवारों की खूबियां नहीं, जातियां गिनाई गई हैं। यही काम पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए फेर-बदल के समय भी किया गया था। महान समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की ‘सप्त क्रांति’ में से एक क्रांति थी- ‘जात तोड़ो’ अब समाजवादी पार्टी का नारा है- ‘जात जोड़ो’। उसने यह चूसनी भी जनता के सामने लटका दी है कि वह सत्तारुढ़ हो गई तो वह जातीय जन-गणना भी करवाएगी!
भाजपा ने अपना वोट बैंक पक्का करने के लिए पिछले कुछ वर्षों से धार्मिक ध्रुवीकरण का दांव मार रखा था। अयोध्या का राम मंदिर, काशी का विश्वनाथ गलियारा और मथुरा में मंदिर आदि के सवालों पर जैसा प्रचारतंत्र खड़ा किया गया, उससे संदेश स्पष्ट था। उसके पहले पड़ौसी देशों के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए जो नागरिकता-कानून बना था, वह एक अच्छी पहल थी लेकिन उसकी खिड़कियों में से भी मज़हबी ध्रुवीकरण झांक रहा था। पाकिस्तान की आतंकी हरकतों का माकूल जवाब देना जरूरी था लेकिन उससे उक्त ध्रुवीकरण को भी बल मिलता रहा। पाकिस्तान से भी ज्यादा गुस्ताखी चीन ने की है। वह हमारी सीमाओं में घुस गया है। उससे तो हम लगातार बातें कर रहे हैं लेकिन पाकिस्तान से नहीं, क्योंकि चीन का हमारे आंतरिक राजनीतिक ध्रुवीकरण से कोई संबंध नहीं है।
क्या ही अच्छा होता कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने जो लोक-कल्याणकारी काम किए हैं, उनका प्रचार किया जाता। सरकारी विज्ञापनों, सरकारी सचित्र पर्चों और टीवी चैनलों पर उ.प्र. के लाखों लोगों को मुफ्त मकान, मुफ्त भोजन सामग्री, मुफ्त गैस कनेक्शन और रोजगार आदि मुहय्या करवाने के दावे हम देखते रहे हैं लेकिन अब इन पर जोर देने की बजाय योगी सरकार भी मजबूरन जातिवाद के पैंतरे में उलझ गई है।
यों तो पिछले सभी प्रांतीय चुनाव स्थानीय नेताओं की बजाय नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दम पर लड़े गए लेकिन योगी की छवि कुछ ऐसी बनी कि उप्र के इस चुनाव के महानायक योगी ही हैं। यह अफवाह भी चली कि योगी ही मोदी के उत्तराधिकारी बनेंगे। लेकिन योगी को अयोध्या या काशी से लड़ने की बजाय गोरखपुर इसीलिए चुनना पड़ा है कि वह सीट उनके लिए अधिक सुरक्षित है।
योगी सरकार की दाल पतली करने में किसान आंदोलन की भी भारी भूमिका रही है। इसका भान केंद्र सरकार को बहुत अच्छी तरह हो गया था। इसीलिए कृषि-कानूनों को सरकार ने वापस ले लिया। इसके बावजूद यह कहना कठिन है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जितनी सीटें भाजपा को पिछली बार मिली थीं, उतनी ही इस बार भी मिल सकेंगी। उस इलाके की अधबुझी पार्टियां फिर से रोशन हो रही हैं और उन्होंने सपा से गठबंधन कर लिया है। किसान नेताओं को पटाने की भरपूर कोशिश भाजपा कर रही है लेकिन किसान-असंतोष और जातिवाद का मिलन ऐसा हो गया है, जैसे करेला और नीम चढ़ा!
2017 में पिछले चुनाव के दौरान जो भाजपा ने किया था, वैसा ही अब सपा कर रही है। उ.प्र. की छोटी-मोटी जातिमूलक पार्टियों का जो गठबंधन 2017 में बना था, वह अब भाजपा से टूट कर सपा में जुड़ रहा है। योगी सरकार के वर्तमान और पूर्व मंत्रियों और विधायकों का टूटकर सपा में शामिल होना इसका प्रमाण है। उ.प्र. की राजनीति में अब कमंडल की बजाय मंडल का जोर बढ़ता लग रहा है। पहले के यादव, मुस्लिम और कांग्रेस गठबंधन की बजाय अभी जो गठबंधन विपक्ष के साथ बन रहा है, वह उप्र के 44 प्रतिशत पिछड़े मतदाताओं का दावा कर रहा है। पिछली सरकारों से असंतुष्ट रहे सैनी, मौर्य, कुशवाह, कश्यप, जाट, गुर्जर अब सपा के साथ एकजुट हो रहे हैं। योगी का 80 प्रतिशत हिंदू और 20 प्रतिशत मुसलमानों की बजाय अब समीकरण ऐसा बन रहा है कि 20 प्रतिशत ऊँची जातियाँ और 80 प्रतिशत पिछड़े और अल्पसंख्यक!
ऊँची जातियों से भी शिकायत यह आ रही है कि योगी ने ब्राह्मणों और बनियों के बजाय अपनी जाति के राजपूतों को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया है। इसके अलावा दलबदलू मंत्री और विधायक योगी पर अकड़ू होने का आरोप भी लगा रहे हैं। वे उनकी बेइज्जती और उपेक्षा के किस्से सबको अब बता रहे हैं। उनसे कोई पूछे कि पिछले साढ़े चार साल आपकी बोलती बंद क्यों रही?
चुनाव के वक्त दल-बदल करना भारतीय राजनीति का स्थायी चरित्र बन गया है। 2017 में भी भाजपा ने पांच दर्जन से ज्यादा दलबदलुओं को सहर्ष स्वीकार किया था। नेताओं और पार्टियों के ऊपर बताए गए आचरण हमारे लोकतंत्र को खोखला कर ही रहे हैं, यह दलबदल इसे हास्यास्पद भी बना रहा है। अब संसद को चाहिए कि हर दलबदलू पर वह यह प्रतिबंध लगाए कि वह अगले पांच साल तक कोई चुनाव न लड़ सके। दल-बदल की बढ़ती हुई प्रवृत्ति यही सिद्ध करती है कि हमारे लोकतंत्र में विचारधारा, सिद्धांत, नीति और आदर्शों का स्थान घटता जा रहा है। अब कुर्सी ही ब्रह्म है, बाकी सब मिथ्या है।
दलबदल के जरिए मिलने वाली कुर्सी अपने पांवों पर पांच साल टिकी रहे, ऐसा मुश्किल से ही दिखाई पड़ता है। या तो वह पहले ही उलट जाती है या पांच साल तक वह बराबर डगमगाती रहती है। ऐसी डगमगाती कुर्सी पर बैठी हुई सरकार का ध्यान लोकसेवा पर कम, आत्मरक्षा और आत्म-श्लाघा पर कहीं ज्यादा होता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को इस दुविधा से कब मुक्ति मिलेगी, भगवान ही जाने।
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