नई दिल्ली: महाराष्ट्र (Maharashtra) के चुनावी समर में एक बात फिर तय हो गई है कि सत्ता में आना है तो सियासी दांव-पेंच मजबूत होने चाहिए चाहे लड़ाई कैसी भी हो. बीजेपी पिछले कुछ चुनावों से ऐसा ही कर रही है. पहले मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़-राजस्थान, फिर हरियाणा (Madhya Pradesh-Chhattisgarh-Rajasthan, then Haryana) और अब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के रिजल्ट ने राजनीतिक जानकारों को भी यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि यह फॉर्मूला हिट कैसे हो रहा है. जिस तरह से बीजेपी मध्य प्रदेश की सत्ता में जमी हुई है, उसी तरह महाराष्ट्र में भी उसकी जड़े मजबूत हो गई हैं.
दरअसल, पिछले कुछ राज्यों के चुनावों को देखे तो बीजेपी ने खुद के चुनाव लड़ने का फॉर्मूला ही बदल दिया है. परंपरागत चुनावी रणनीति से हटकर बीजेपी अलग-अलग समीकरण बनाती है. बीजेपी अपने बड़े-बड़े नेताओं को चुनाव लड़ा देती हैं. जैसे मध्य प्रदेश और हरियाणा में पार्टी ने एक साथ कई सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों तक को विधानसभा चुनाव लड़वा दिया. इसी तरह महाराष्ट्र में भी पार्टी ने कई दिग्गजों को चुनाव लड़ाया, यह फॉर्मूला हिट होता है, क्योंकि बड़े नेताओं को चुनावी अनुभव होता है और उनके चुनाव मैदान में आने से रोमांच भी बढ़ जाता है. जिससे समीकरण बदल जाते हैं.
चाहे मध्य प्रदेश हो या फिर हरियाणा फिर चाहे महाराष्ट्र भाजपा का जातिगत समीकरण को साधने दांव हमेशा हिट रहता है. मध्य प्रदेश में ओबीसी वर्ग चुनावी रणनीति में सबसे अहम भूमिका निभाता है, ऐसे में भाजपा ने यहां केंद्र और राज्य से आने वाले नेताओं के समीकरण बनाकर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की थी. जबकि चुनावी नतीजों के बाद ओबीसी वर्ग से आने वाले चेहरे को सीएम बनाया तो अन्य जातिगत समीकरणों को भी सरकार में एडजस्ट किया. इसी तरह हरियाणा में राजनीति जाट वर्सेस नॉन जाट वाली मानी जाती है. लेकिन पिछले 10 सालों की सियासत में बीजेपी ने यहां की सियासी परिभाषा को भी बदला है. पार्टी ने यहां भी हर वर्ग को सत्ता में एडजस्ट करके वोटर्स को अपनी तरफ खींचा हैं.
अब भाजपा का यह फॉर्मूला महाराष्ट्र में भी हिट रहा. महाराष्ट्र में सबसे प्रभावी समुदाय मराठा है, लेकिन बीजेपी ने यहां टिकट वितरण में हर वर्ग का पूरा ख्याल रखा. मराठा आंदोलन के बावजूद बीजेपी दवाब में नहीं आई और उसने मराठा, ओबीसी और अनुसूचित जाति वर्ग के साथ-साथ सवर्ण वर्ग में बराबर टिकट बांटे. चुनाव से पहले बीजेपी के रणनीतिकारों को यह एहसास था कि मराठा आंदोलन का असर चुनावों पर पड़ सकता है. ऐसे में पार्टी ने सभी वर्गों को साधने का काम शुरू कर दिया. बीजेपी ने बारीकी से सोशल इंजीनियरिंग के जरिए सभी समुदायों को इस तरह साधा कि चुनाव में महाविकास अघाड़ी का पूरा दम निकल गया.
चुनावी राज्यों में बीजेपी कमजोरी को ही अपनी मजबूती बना लेती है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस बीजेपी को किसानों और महिलाओं के मुद्दे पर सबसे ज्यादा टारगेट कर रही थी. ऐसे में बीजेपी ने लाड़ली बहना योजना और किसानों के सम्मान से मामले को जोड़कर इसे ही सबसे बड़ा मुद्दा चुनाव में बना दिया. इसी तरह हरियाणा में किसान और पहलवानों का मुद्दा सबसे ज्यादा हावी था, ऐसे में बीजेपी ने अपने प्रचार में इन्हीं पर सबसे ज्यादा फोकस किया और लगातार मैसेज पहुंचाने का काम किया कि बीजेपी किसानों और पहलवानों के मुद्दों गंभीरता से काम कर रही है. जिससे पार्टी को फायदा हुआ.
महाराष्ट्र में भी बीजेपी ने इसी फॉर्मूले पर काम किया. महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी में बीजेपी पर पार्टियां तोड़ने का आरोप लगाया तो बीजेपी ने अपने सहयोगियों को आगे करके यह नैरेटिव चलाया कि महाराष्ट्र के हित में यह फैसले लिए गए हैं, इसी फॉर्मूले के तहत बीजेपी ने ज्यादा सीटें होने के बाद भी एकनाथ शिंदे को सीएम बनाया तो बाद में अजित पवार को गठबंधन में शामिल करके डिप्टी सीएम की जिम्मेदारी दी. ऐसे में यह फॉर्मूला भी बीजेपी का हिट रहा.
बीजेपी के चुनावी मैनेजमेंट पर अब सबसे ज्यादा चर्चा होती है. दरअसल, पहले चुनावी राज्यों में स्थानीय नेताओं को ही काम दिया जाता था. लेकिन बीजेपी ने तेजी से इस परंपरा को भी बदला है. बीजेपी एक राज्य में दूसरे राज्य के नेताओं की फौज उतार देती है. जैसे महाराष्ट्र में बीजेपी ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात के नेताओं को जिम्मेदारियां दी, ऐसे में इन नेताओं ने महाराष्ट्र में डेरा डाला और पार्टी के पक्ष में माहौल बनाया. इसी तरह बीजेपी शासित दूसरे राज्य में चल रही योजनाओं का भी लगातार प्रचार चुनावी राज्य में करवाया गया. जबकि सोशल मीडिया को भी बीजेपी एक बड़ा हथियार बनाती है, जिसका असर पूरे चुनाव प्रचार में दिखता है. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी इस बार यह सभी रणनीतियां बीजेपी की दिखी हैं.
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