इदर खां मेहकमाए मौसम ने मानसून की पूरी तरां रवानगी का एलान करा… और उदर गुलाबी ठंड ने काम दिखाना शुरु कर दिया। मगरिब से ऐन पेले गुरूबे आफताब (सूर्यास्त) के वखत हवाओं में ठंडक घुलना शुरु होने लगी है। रात नो दस बजे के बाद शहर पे हल्की खुनक तारी हो जाती है। इस दफे मौसम वालों की पेशनगोई है के ठंड जल्दी आके देर से जाएगी। मक़सद ये हेगा खां के देर रात को दफ्तर से घर लौटने वाले अखबारनवीसों को ठंड का पूरे ऐहतराम के साथ सामना करना होएगा। वैसे इस दौर के सहाफियों (पत्रकारों) को तो माशा अल्ल्लाह भोत सहूलतें मुहैया हेंगी। भेतरीन ब्रांडेड लेदर जैकेट, हेंड ग्लव्स से लेके उम्दा वूलन स्वेटर से भाई लोग लेस रेते हैं। और अब तो साब भोत सारे सहाफियों के कने माशा अल्लाह कारें-मारें भी हेंगी। दूसरी सबसे अहम सहूलत आज के रिपोर्टरों को ये हेगी के अपना काम निपटाओ और घर के लिए दुड़की लगाओ। अगर मैं अस्सी-न नब्बे की दहाई के पिरेस कॉम्प्लेक्स की बात करूं तो पत्रकारों पे ठंड का मौसम भोत भारी गुजऱता था। हर रिपोर्टर की सिटी एडिशन का पेज लगवाने की ड्यूटी होती थी। फि़लिम या ब्रोमाइड शीट पे मेटर निकलता था। पेस्टिंग टेबल पे पेस्टर लेआउट के मुताबिक उसे चिपकाता था। इस काम मे।अक्सर रात के डेढ़ दो बजते थे। कइयों के कने तो गाडिय़ां बी नईं थी। या थी भी तो मोपेड जैसी गाड़ी होती थी। गरम कपड़ों के नाम पे भाई लोग तिब्बतियों वाले स्वेटर से काम चलाते थे। मुझे याद है देर रात को घर जाने वाले पत्रकार अपने दफ्तर से वेस्ट न्यूज़ प्रिंट या पुराने अखबार स्वेटर के अंदर फिट कर लिया करते थे। इस तरकीब से ठंडी हवा से उम्दा बचाव हो जाता था। प्रेस काम्पलेक्स से निकलके सुभाषनगर होते हुए पुराने शहर जाने वाले पत्रकार अपनी स्कूटर या मोपेड किसी ट्रक के पीछे लगा देते। इससे भी ठंड से बचाव हो जाता था। फिर भी दिसम्बर-जनवरी की चार-पांच डिग्री की ठंड में तो काम लग जाते थे साब।
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