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ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ हम अपने शहर में होते तो घर गए होते

October 15, 2022

इदर खां मेहकमाए मौसम ने मानसून की पूरी तरां रवानगी का एलान करा… और उदर गुलाबी ठंड ने काम दिखाना शुरु कर दिया। मगरिब से ऐन पेले गुरूबे आफताब (सूर्यास्त) के वखत हवाओं में ठंडक घुलना शुरु होने लगी है। रात नो दस बजे के बाद शहर पे हल्की खुनक तारी हो जाती है। इस दफे मौसम वालों की पेशनगोई है के ठंड जल्दी आके देर से जाएगी। मक़सद ये हेगा खां के देर रात को दफ्तर से घर लौटने वाले अखबारनवीसों को ठंड का पूरे ऐहतराम के साथ सामना करना होएगा। वैसे इस दौर के सहाफियों (पत्रकारों) को तो माशा अल्ल्लाह भोत सहूलतें मुहैया हेंगी। भेतरीन ब्रांडेड लेदर जैकेट, हेंड ग्लव्स से लेके उम्दा वूलन स्वेटर से भाई लोग लेस रेते हैं। और अब तो साब भोत सारे सहाफियों के कने माशा अल्लाह कारें-मारें भी हेंगी। दूसरी सबसे अहम सहूलत आज के रिपोर्टरों को ये हेगी के अपना काम निपटाओ और घर के लिए दुड़की लगाओ। अगर मैं अस्सी-न नब्बे की दहाई के पिरेस कॉम्प्लेक्स की बात करूं तो पत्रकारों पे ठंड का मौसम भोत भारी गुजऱता था। हर रिपोर्टर की सिटी एडिशन का पेज लगवाने की ड्यूटी होती थी। फि़लिम या ब्रोमाइड शीट पे मेटर निकलता था। पेस्टिंग टेबल पे पेस्टर लेआउट के मुताबिक उसे चिपकाता था। इस काम मे।अक्सर रात के डेढ़ दो बजते थे। कइयों के कने तो गाडिय़ां बी नईं थी। या थी भी तो मोपेड जैसी गाड़ी होती थी। गरम कपड़ों के नाम पे भाई लोग तिब्बतियों वाले स्वेटर से काम चलाते थे। मुझे याद है देर रात को घर जाने वाले पत्रकार अपने दफ्तर से वेस्ट न्यूज़ प्रिंट या पुराने अखबार स्वेटर के अंदर फिट कर लिया करते थे। इस तरकीब से ठंडी हवा से उम्दा बचाव हो जाता था। प्रेस काम्पलेक्स से निकलके सुभाषनगर होते हुए पुराने शहर जाने वाले पत्रकार अपनी स्कूटर या मोपेड किसी ट्रक के पीछे लगा देते। इससे भी ठंड से बचाव हो जाता था। फिर भी दिसम्बर-जनवरी की चार-पांच डिग्री की ठंड में तो काम लग जाते थे साब।



खैर वो बी क्या दिन थे। प्रेस काम्प्लेक्स में अलाव की गर्मी के साथ चाय के सिलसिले भी ठंड से लडऩे की हिम्मत देते थे। बहरहाल अल्ला बक्शे तब भास्कर में।हमारे सिटीचीफ जगत पाठक केते थे…आरिफ मियां सर्दी महसूस करने वाली चीज हेगी… जित्ता महसूस करोगे उत्ती लगेगी। उस दौर भास्कर में मेरे साथी रविन्द्र जैन साब शायद गवालियर से मिलिट्री कलर का गरम जैकेट लाये थे। उस जैकेट के अंदर सफेद कलर का अस्तर बदन को गरम रखता था। उसके बाद खां ये खाकसार बी मारवाड़ी रोड के संजय जैन बंटू (अब मरहूम) की दुकान से ढाई सौ रुपए वाली मिलिट्री कलर वाली जैकेट खरीद लाया था। अगले रोज़ सब जैकेट को हाथ लगा में क़ीमत पूछ रहे थे। लगे हाथों सर्दियों का एक किस्सा और सुन लो साब। बात 1992 के दंगों की है। भास्कर वाले अलीम बज़मी साब और हम कुछ पत्रकार रात 10 बजे के आसपास जागरण के सामने खड़े होके बातें कर रहे थे। इसी दौरान नीलम होटल के पास पुलिस की गोलियां चलने की आवाज़ आई। ऐलान हुआ कोई सड़क पर नहीं दिखेगा। अलीम भाई जगरण के सामने वाले भास्कर के बंद गेट के ऊपर चढ़ के अंदर कूद गए। इस हड़बड़ी में गेट की शहतीर में उनका भेतरीन वाला लेदर जैकेट फस गया और धम्म की आवाज़ के साथ अलीम मियां नीचे और चर्र की आवाज़ के साथ जैकेट दो टुकड़ों में गेट में फसा रह गया। फिर दिसम्बर की बाकी सर्दियां अलीम भाई ने बिना कोट के गुजारीं। फिर बी खाँ अपने तजरबे से मशवरा दे रिया हूं आपको…के आती और जाती हुई ठंड का ऐहतराम कर लेना, नईं तो ये कबी बी पटखनी दे देगी आपको।

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