– ऋतुपर्ण दवे
कुछ ही महीनों बाद 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले हुए इन आखिरी उपचुनाव ने बेहद दिलचस्प राजनीतिक तस्वीरें पेश की है। सरसरी तौर पर मिले-जुले से दिखने वाले परिणामों के बहुत ही गहरे मायने हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि फर्श से अर्श पर बिठाने वाली जनता ने सत्ता के सिंहासन पर आसीनों को अपनी ताकत का एहसास करा दिया हो ?
दरअसल इन नतीजों के मायने कुछ भी लगाएं जाएं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ये उपचुनाव लोकसभा और विधानसभा दोनों के लिए अलग-अलग संकेत हैं। राजनीतिज्ञ ही समझें कि जनता को भाग्य विधाता मानने का ढिंढोरा पीटने वाले कब तक लोक हितों को नजरअंदाज करेंगे? तीन लोकसभा उपचुनाव में भाजपा को केवल एक पर सफलता मिलना पार्टी के लिए मायूसी और निराशा का सबब तो है ही लेकिन विधानसभा के नतीजे भी आशातीत नहीं कहे जा सकते। भले ही भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को 15 विधानसभा और 1 लोकसभा सीट पर जीत मिली हो, लेकिन 14 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटों का राजनीतिक विरोधियों के खाते में चले जाना किसी खतरे की घण्टी जैसा ही है।
तीनों लोकसभा उपचुनाव के नतीजों ने सीधे-सीधे मंहगाई और उसमें भी खासकर पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के बेलगाम बढ़ते दामों पर नाखुशी के साफ संकेत दिए हैं तो विधानसभा के नतीजों को राज्य सरकारों के प्रति जनता का कितना विश्वास, कितना अविश्वास, कह सकते हैं। निश्चित रूप से हिमाचल में जहां भाजपा की साख गिरी तो वहीं असम में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। मध्य प्रदेश, उत्तर-पूर्व और तेलंगाना में भाजपा पर भरोसा तो दादर नगर हवेली लोकसभा सीट में शिवसेना की महाराष्ट्र से बाहर हुई धमाकेदार जीत के कुल मिलाकर मिले-जुले नतीजों से कोई भी दल ईमानदारी के साथ कुछ भी कह पाने की स्थिति में जरूर नहीं है। लेकिन जनता का स्पष्ट इशारा जरूर है।
नतीजों के बाद की दिलचस्प तस्वीरें कुछ ऐसी हैं। आँध्र प्रदेश की एक सीट में हुए उपचुनाव में सत्ताधारी वाईएसआर कांग्रेस दोबारा जीती तो असम की सभी 5 सीटें भाजपा और सहयोगियों को खाते में गई। बिहार की दोनों सीटों पर जदयू का जलवा बरकरार रहा तो हरियाणा में इंडियन नेशनल लोक दल के अभय चौटाला के ही इस्तीफे से खाली सीट फिर उन्ही का भाजपा-जजपा तथा कांग्रेस को हराकर जीतना, सत्ताधारी दल को चुनौती रही। हिमाचल प्रदेश की 1 लोकसभा और 3 विधानसभा सीटों पर भाजपा की हार न केवल चौंकाने वाली है बल्कि बड़े, बहुत बड़े मंथन का विषय जरूर है। मंडी लोकसभा सीट मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का इलाका है तो तीनों विधानसभा सीटों पर भाजपा की हार बड़ी चुनौती क्योंकि वही राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह राज्य है।
कर्नाटक में दो विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा ने एक सीट जीती जबकि दूसरी को कांग्रेस हथिया ली। हाल ही में यहाँ मुख्यमंत्री बदले गए और बीएस येदियुरप्पा की जगह बसवराज बोम्मई लाए गए। लेकिन वो अपने जिले की हंगल विधानसभा सीट तक नहीं बचा पाए। जबकि सिंदगी विधानसभा सीट पर भाजपा ने जीत दर्ज की जो 2018 में जनता दल सेक्युलर के पास थी। कर्नाटक की राजनीति को जानने वाले इसे मुख्यमंत्री को लेकर हुए उलटफेर से जोड़कर देखते हैं। मध्य प्रदेश में खंडवा लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव हुए। जोबट और पृथ्वीपुर में भाजपा को जीत मिली, जबकि रैगांव सीट जो 30 वर्षों से भाजपा का मजबूत किला थी, काँग्रेस ने छीन ली। बसपा के मैदान में न होने से काँग्रेस को फायदा हुआ और उसका रैगांव से वनवास टूटा। वहीं, महाराष्ट्र में 1 सीट में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने लाज बचाई।
मेघालय में भाजपा और सहयोगी दलों का जलवा बरकरार रहा। यहाँ तीन सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा की सहयोगी पार्टी एनपीपी ने दो और यूडीपी ने एक सीट पर जीत हासिल की। जबकि मिजोरम की एक सीट पर सत्ताधारी पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट का उम्मीदवार जीता। राजस्थान में जरूर सत्तारूढ़ कांग्रेस का जलवा दिखा। दो विधानसभा सीटों वल्लभनगर और धरियावद पर उपचुनाव हुए। दोनों काँग्रेस ने जीती जबकि पहले धरियावद भाजपा के पास थी। भाजपा ने तेलंगाना में जीत हासिल की। यहां हुजूराबाद विधानसभा उपचुनाव भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार ने जीता जबकि 2018 में यहां टीआरएस जीती थी। पश्चिम बंगाल में ममता का प्रदर्शन बीते विधानसभा चुनावों से भी दमदार रहा और सभी चार विधानसभा सीटें तृणमूल कांग्रेस खाते में गईं।
सत्ता का सेमीफाइनल कहे जा रहे बेहद महत्वपूर्ण और देश भर में बेसब्री से इंतजार किए जा रहे उपचुनावों के नतीजों ने जो मिले-जुले परिणाम दिए हैं, उसने एकबार फिर कम से कम इतने संकेत तो दे ही दिए कि भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे सजग और सुधारवादी क्यों कहा जाता है ! सच भी है कई मायनों में आम चुनाव करीब होते हुए भी उपचुनाव कराना आम लोगों के लिए भले ही धन का बेजा खर्च हो लेकिन राजनीतिज्ञों के लिए वो थर्मामीटर है जो वक्त की नजाकत और राजनीतिक सेहत को जाँचता है।
4 राज्यों में 3 लोकसभा, 29 विधानसभा सीटों के ये उपचुनाव पूरे देश का ट्रेन्ड भांपने जैसे ही रहे। कुछ भी हो 28 राज्य और 8 केन्द्र शासित प्रदेशों वाले देश की नब्ज जरूर इनसे पता चलती है। बस चन्द हफ्तों के बाद 2022 की शुरुआत में उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर यानी पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों होंगे तो साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा खेमे में नतीजों के बाद आगामी चुनावों के मद्देनजर मंथन का जबरदस्त दौर चल रहा है तो कांग्रेस पंजाब, गोवा और उत्तर प्रदेश पर ज्यादा केन्द्रित दिख रही है। वहीं आम आदमी पार्टी ने भी पंजाब, उत्तराखंड, गोवा में बेहद उम्मीदें पाल रखी हैं। जबकि पहले से मजबूत हुई टीएमसी मणिपुर और गोवा में भी अपने विस्तार के लिए तानाबाना बुन रही है।
विधानसभा चुनावों का सिलसिला 2023 में भी पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा से शुरू होगा जहाँ मार्च में मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होगा। ठीक दो महीने बाद मई में कर्नाटक तो दिसंबर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना जैसे बड़े राज्यों के चुनाव होंगे। निश्चित रूप से कमरतोड़ मंहगाई के बीच सत्ता के सेमीफाइल कहलाने वाले इन नतीजों ने सभी राजनीतिक दलों को उनकी खामियां और खूबियां तो खूब गिनाई हीं लेकिन हवा का रुख और उम्मीदों की बंधी पोटली भी सत्तासीनों को पकड़ा दी। पोटली में कमरतोड़ मँहगाई का दंश, बेतहाशा बढ़ती कीमतों पर नाखुशी की मोहर, शिक्षित बेरोजगारों की हर रोज बढ़ती फौज का दर्द, काम के घटते अवसरों की पीड़ा, महामारी के बाद हर किसी का अपने परिजन या नजदीकी को खोने का जख्म, स्वास्थ्य सुविधाओं की कागजी व जमीनी हकीकत, घटती आय-बढ़ते खर्च के असंतुलन का रुक्का है।
काश नतीजों की सीख से ही कुछ भला हो पाता? हाँ राजनीति की बिरादरी को यह तो समझना होगा कि 4 जी से 5 जी की ओर छलांग लगाने वाली तकनीक के इस दौर में हर हाथ में मोबाइल से हर किसी को सच और झूठ का अन्तर तो समझ आने लगा है। चाहे वह कच्चे तेल की मौजूदा अंतरराष्ट्रीय कीमत हों या उज्ज्वला सिलेण्डर न भरा पाने का दर्द, योजनाएँ दिखाने और फोटो खिंचाने का धर्म हो या भारत के आम नागरिकों की हैसियत और जरूरत को समझने का मर्म। कहते हैं कि इस बार युवा मतदाताओं ने कई चौंकाने वाले नतीजे दिए। अब राजनीति में व्यवसाय या व्यवसाय में राजनीति के अन्तर की गहराई को हुक्मरान समझें या न समझें लेकिन यह नहीं भूलें कि ये पब्लिक है सब जानती है जो बहुत मामूली वोट प्रतिशत के अन्तर से बड़े-बड़े कारनामें कर दिखाती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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