नई दिल्ली । आजकल अखबारों, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर एक शब्द बार-बार सुनाई दे रहा है- “मंदी”। लेकिन यह मंदी (Economic slowdown) आखिर है क्या? आम आदमी के लिए इसका मतलब क्या है? यह क्यों आती है और अगर यह भारत (India) में आ गई तो हमारी जिंदगी पर इसका क्या असर होगा? आइए, इसे आसान भाषा में समझते हैं और हाल के घटनाक्रमों के साथ-साथ इतिहास के कुछ पन्नों को भी पलटते हैं।
मंदी क्या है?
सीधे शब्दों में कहें तो मंदी वह स्थिति है जब किसी देश की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ जाती है। इसे तकनीकी रूप से तब माना जाता है जब देश का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) यानी कुल उत्पादन लगातार दो तिमाहियों (6 महीने) तक घटता है। इसका मतलब है कि कारखानों में सामान कम बन रहा है, दुकानों में बिक्री कम हो रही है, लोग कम खर्च कर रहे हैं और नौकरियां घट रही हैं। आम आदमी के लिए मंदी का मतलब है- महंगाई बढ़ना, नौकरी का खतरा और जेब पर बोझ।
मंदी क्यों आती है?
मंदी के पीछे कई कारण हो सकते हैं, जैसे:-
बाजार में मांग कम होना: अगर लोग सामान खरीदना बंद कर दें, तो कंपनियां उत्पादन कम करती हैं। इससे कर्मचारियों की छंटनी शुरू हो जाती है।
वैश्विक संकट: जैसे युद्ध, महामारी या बड़े देशों की अर्थव्यवस्था में गिरावट। उदाहरण के लिए, 2022 से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध तेल और अनाज की कीमतों को बढ़ा रहा है, जिससे दुनिया भर में महंगाई बढ़ी।
बैंकों का संकट: अगर बैंक कर्ज देना बंद कर दें या दिवालिया हो जाएं, तो कारोबार ठप हो जाता है। 2008 की वैश्विक मंदी इसका बड़ा उदाहरण है।
सरकारी नीतियां: ब्याज दरें बढ़ाना या गलत आर्थिक फैसले भी मंदी को न्योता दे सकते हैं।
ट्रंप के टैरिफ का मंदी से क्या कनेक्शन है?
डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति और मंदी के बीच का कनेक्शन कई आर्थिक कारकों से जुड़ा है, जो वैश्विक और घरेलू स्तर पर असर डाल सकता है। ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल में रेसिप्रोकल टैरिफ की घोषणा की है, जिसके तहत अमेरिका उन देशों पर उतना ही आयात शुल्क लगा रहा है जितना वे अमेरिकी सामानों पर लगाते हैं। अप्रैल 2025 तक, इसमें भारत पर 26%, चीन पर 34%, और यूरोपीय संघ पर 20% टैरिफ शामिल हैं। इसका मकसद अमेरिकी उद्योगों को संरक्षण देना और व्यापार घाटा कम करना है, लेकिन इसके नतीजे मंदी को ट्रिगर कर सकते हैं। टैरिफ से आयातित सामान महंगा हो जाता है, जिससे अमेरिकी उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति घटती है और महंगाई बढ़ती है। इससे मांग में कमी आ सकती है, जो कंपनियों के उत्पादन और नौकरियों को प्रभावित करती है। दूसरी ओर, प्रभावित देश जैसे चीन ने पहले ही अमेरिका पर टैरिफ लगा दिया है। इससे वैश्विक व्यापार युद्ध छिड़ सकता है। इससे निर्यात पर निर्भर अर्थव्यवस्थाएं, जैसे भारत की IT और फार्मा इंडस्ट्री, ठप हो सकती हैं। ऐतिहासिक रूप से, 1929 की महामंदी से पहले स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट ने भी ऐसा ही संकट पैदा किया था, जब व्यापार 65% तक सिकुड़ गया था। विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा टैरिफ से अमेरिका में स्टैगफ्लेशन (महंगाई के साथ सुस्त विकास) की स्थिति बन सकती है, और वैश्विक आपूर्ति शृंखला बाधित होने से भारत जैसे देशों में भी मंदी की आहट सुनाई दे सकती है। हालांकि, कुछ का तर्क है कि यह नीति लंबे समय में अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दे सकती है, लेकिन अल्पकालिक जोखिम मंदी को करीब ला सकते हैं।
ऐतिहासिक झलक: 1929 की महामंदी
इतिहास में सबसे बड़ी मंदी 1929-1939 के बीच आई, जिसे “ग्रेट डिप्रेशन” कहा जाता है। यह अमेरिका में शेयर बाजार के ढहने से शुरू हुई थी। अक्टूबर 1929 में वॉल स्ट्रीट क्रैश ने पूरी दुनिया को हिला दिया। भारत में उस वक्त ब्रिटिश शासन था, और इस मंदी ने हमारे किसानों को तबाह कर दिया। अनाज और कपास की कीमतें गिर गईं, किसानों को कर्ज चुकाने के लिए सोना बेचना पड़ा, जिसे ब्रिटेन ने सस्ते में खरीदा। शहरों में नौकरियां कम हुईं और गरीबी बढ़ गई। इस मंदी से उबरने में दुनिया को एक दशक और द्वितीय विश्व युद्ध का सहारा लेना पड़ा।
2008 की मंदी क्या थी?
2008 की वैश्विक मंदी को “ग्रेट रिसेशन” भी कहा जाता है। यह अमेरिकी हाउसिंग मार्केट के ढहने से शुरू हुई थी, जब सबप्राइम मॉर्गेज संकट ने बड़े बैंकों और वित्तीय संस्थानों को दिवालिया कर दिया, जैसे लेहमन ब्रदर्स। यह संकट जल्दी ही वैश्विक स्तर पर फैल गया, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था से जुड़े शेयर बाजार, व्यापार और निवेश प्रभावित हुए। भारत पर इसका असर अपेक्षाकृत कम लेकिन उल्लेखनीय था। उस वक्त भारत की GDP ग्रोथ 9% से ऊपर थी, जो 2008-09 में घटकर 6.7% पर आ गई। निर्यात-निर्भर सेक्टर जैसे टेक्सटाइल, ज्वेलरी और IT प्रभावित हुए, क्योंकि अमेरिका और यूरोप में मांग घटी। सेंसेक्स अक्टूबर 2008 में 21,000 से गिरकर 8,000 के करीब पहुंच गया, जिससे निवेशकों का भरोसा डगमगा गया। हालांकि, भारत की मजबूत घरेलू मांग, बैंकिंग सेक्टर पर सख्त नियंत्रण और सरकार के 1.86 लाख करोड़ रुपये के प्रोत्साहन पैकेज ने बड़े नुकसान से बचा लिया। फिर भी, छोटे व्यवसायों और नौकरीपेशा लोगों पर दबाव पड़ा, क्योंकि विदेशी निवेश घटा और छंटनी बढ़ी। इस मंदी ने भारत को यह सिखाया कि वैश्विक संकट से पूरी तरह बचना मुश्किल है, लेकिन आत्मनिर्भरता और नीतिगत सजगता हमें संभाल सकती है।
ताजा घटनाक्रम: 2025 में मंदी की आहट?
अप्रैल 2025 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कई संकट मंडरा रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण तेल और गैस की कीमतें आसमान छू रही हैं। इसके अलावा, अमेरिका और यूरोप में ब्याज दरें बढ़ने से वहां की कंपनियां निवेश कम कर रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने चेतावनी दी है कि 2025 में कई देश मंदी की चपेट में आ सकते हैं।
भारत पर असर: क्या होगा?
भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया से जुड़ी है, लेकिन हमारी ताकत हमारी घरेलू खपत में है। करीब 65% अर्थव्यवस्था भारतीय बाजार पर निर्भर है। फिर भी, मंदी का असर हम पर कई तरीकों से हो सकता है:
निर्यात में कमी: भारत टेक्सटाइल, ज्वेलरी और IT जैसे क्षेत्रों में बड़ा निर्यातक है। अगर अमेरिका और यूरोप में मंदी आई, तो वहां मांग घटेगी और हमारे कारोबार प्रभावित होंगे। हाल के महीनों में टेक्सटाइल निर्यात में 10-15% की गिरावट देखी गई है।
महंगाई का दबाव: तेल और गैस की कीमतें बढ़ने से पेट्रोल-डीजल महंगा होगा। इसका असर राशन, सब्जी और रोजमर्रा की चीजों पर पड़ेगा।
नौकरी का संकट: कंपनियां लागत कम करने के लिए छंटनी कर सकती हैं। 2022-23 में गूगल और मेटा जैसी दिग्गज कंपनियों ने हजारों कर्मचारियों को निकाला था, और यह सिलसिला अभी भी जारी है। भारत में भी IT और स्टार्टअप सेक्टर पर दबाव बढ़ सकता है।
रुपये पर दबाव: डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिर सकती है, जिससे आयात महंगा होगा। अप्रैल 2025 में यह 85 रुपये प्रति डॉलर के आसपास चल रहा है।
आम आदमी की जिंदगी पर क्या फर्क पड़ेगा?
एक आम भारतीय के लिए मंदी का मतलब है रोजमर्रा की जिंदगी में बदलाव। मान लीजिए, आप एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं। अगर मंदी आई तो:
खर्च बढ़ेगा: दाल, चावल, तेल और ट्रांसपोर्ट महंगा हो जाएगा। आपकी मासिक बजट पर बोझ पड़ेगा।
नौकरी का डर: अगर आप नौकरीपेशा हैं, तो छंटनी या सैलरी कट का डर सताएगा। छोटे व्यापारियों की दुकानदारी मंदी पड़ सकती है।
बचत पर असर: बैंक की ब्याज दरें बढ़ने से कर्ज लेना महंगा होगा, और बचत करना मुश्किल हो जाएगा।
जीवनशैली में कटौती: बाहर खाना, सैर-सपाटा या नई चीजें खरीदना कम करना पड़ सकता है।
भारत में पहले भी आई मंदी
आजादी के बाद भारत ने चार बड़ी मंदी देखी हैं- 1958, 1966, 1979 और 1991। 1991 का संकट सबसे गंभीर था, जब देश के पास विदेशी मुद्रा भंडार इतना कम था कि सिर्फ 2 हफ्ते का आयात संभव था। तब सरकार ने अर्थव्यवस्था को खोलने (उदारीकरण) का फैसला लिया, जिससे हालात सुधरे। 2008 की वैश्विक मंदी में भी भारत प्रभावित हुआ, लेकिन मजबूत घरेलू मांग और सरकारी पैकेज ने हमें जल्दी उबार लिया।
क्या कर सकता है आम आदमी?
मंदी से पूरी तरह बचना मुश्किल है, लेकिन कुछ कदम आपकी मदद कर सकते हैं:
बचत बढ़ाएं: जरूरी खर्चों के लिए 6 महीने का फंड तैयार रखें।
खर्चों पर लगाम: गैर-जरूरी चीजों जैसे लग्जरी सामान पर खर्च कम करें।
कौशल बढ़ाएं: नौकरी में टिके रहने के लिए नई स्किल सीखें, जैसे डिजिटल मार्केटिंग या डेटा एनालिसिस।
निवेश में सावधानी: शेयर बाजार में जोखिम लेने से पहले अच्छी रिसर्च करें।
मंदी एक आर्थिक तूफान की तरह है, जो कभी भी आ सकता है। अप्रैल 2025 में वैश्विक हालात देखकर लगता है कि खतरा करीब है, लेकिन भारत की मजबूत घरेलू अर्थव्यवस्था और सरकार की नीतियां इसे कम करने में मदद कर सकती हैं। इतिहास बताता है कि हम पहले भी मंदी से उबरे हैं, और इस बार भी उबर सकते हैं। आम आदमी के लिए जरूरी है कि वह सतर्क रहे, अपनी जेब संभाले और उम्मीद बनाए रखे। आखिर, “ये दौर भी गुजर जाएगा”।
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