नई दिल्ली(New Delhi) । लाइवस्टॉक (livestock) मतलब पशुधन के बारे में ज्यादातर लोग जानते हैं. इसमें खेती-किसानी में काम आने वाले पशुओं का पालन होता है. लेकिन अब मिनी-लाइवस्टॉक टर्म भी चलन में है. इसमें कीड़े-मकोड़ों जैसे वॉर्म्स, कॉकरोच की पैदावार (cockroach production) की जाने लगी है. पर्यावरण को बहुत कम नुकसान पहुंचाने वाले ये कीड़े मांस और दूसरी प्रोटीन डायट का विकल्प बन चुके. ये जानवरों को खिलाने के काम भी आ रहे हैं और हाई प्रोटीन इंसेक्ट पावडर का इस्तेमाल ब्रेड, पास्ता और प्रोटीन बार में भी खूब हो रहा है. चीन से लेकर फ्रांस, अमेरिका, स्विटजरलैंड और फिनलैंड (France, America, Switzerland and Finland) जैसे देशों में एडिबल इंसेक्ट नाम से खाने-पीने की चीजों की रेंज रहती है.
इंसेक्ट की पैदावार से पर्यावरण को क्या फायदा?
एडिबल इंसेक्ट्स की बात करने वालों का सबसे बड़ा तर्क पर्यावरण है. कीड़े-मकोड़ों से मिलने वाले 1 किलो को बनाने में बीफ या दूसरे मांस की तुलना में सिर्फ 10 प्रतिशत खाना, पानी और जमीन इस्तेमाल होती है. और इस दौरान 1 प्रतिशत ही ग्रीनहाउस गैस निकलती है.
क्या है नॉनवेज से जहरीली गैसों का संबंध?
फरवरी में ही ब्रिटेन (Britain) की कार्बन बीफ संस्था ने एक डेटा जारी किया, जिसके अनुसार मांस और डेयरी उद्योग हर साल 7.1 गीगाटन ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन करता है. इसमें भी बीफ सबसे ऊपर है. एक किलोग्राम बीफ के लिए लगभग 60 किलो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. यानी हर किलो पर 10 गुनी जहरीली गैस. मांस उद्योग को चलाए रखने के लिए, चारे के इंतजाम के लिए जंगल भी काटे जाते हैं. ऐसे में इंसेक्ट्स कम लागत में बड़े फायदे की तरह हैं. उनसे किसी बड़ी बीमारी का भी डर नहीं रहता है, जैसे बड़े जानवरों से हो सकता है, जैसे कोरोना या बर्ड फ्लू.
कैसे होती है फार्मिंग?
कई तरीकों से कीड़े-मकोड़ों की पैदावार होती है. ये कंपोस्ट बिन से लेकर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रीज तक में पाले जाते हैं. इसमें चीटियां, इल्लियां, पतंगे, मधुमक्खियां, मीलवॉर्म्स और कॉकरोच शामिल हैं. चीन के शिचांग शहर के जिन लैब्स में कॉकरोच की खेती होती है, वो साइंस फिक्शन से कम नहीं. लकड़ी के बोर्ड उनका घर हैं और कमरों में हल्की नमी और गर्मी है, यानी वही माहौल क्रिएट किया गया है जो कॉकरोच को पसंद है ताकि कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा कॉकरोच पैदा हो सकें.
वेस्ट मैनेजमेंट भी हो रहा
इंसेक्ट्स से एक और मसकद पूरा होता है. ये वेस्ट मैनेजमेंट के काम आता है. जैसे हर शहर में भारी मात्रा में खाना बर्बाद होता है. इनकी रिसाइक्लिंग काफी महंगी पड़ती है. इधर चीन और वियतनाम जैसे देशों ने एक प्रयोग किया. इसमें कॉकरोच को बचा हुआ खाना दिया जाने लगा. इससे वे भी पल जाते हैं और काफी सारे वेस्ट प्रॉडक्ट का मैनेजमेंट भी हो जाता है. काफी पहले चीन में सुअरों को फूड वेस्ट खिलाया जाता था, लेकिन स्वाइन फ्लू के बाद इसपर रोक लग गई. अब इंसेक्ट फार्म्स वेस्ट फूड मैनेजमेंट का भी काम कर रहे हैं.
हर इंसेक्ट का जीवनकाल कुछ हफ्तों से लेकर महीनेभर का होता है. जैसे ही वे अपनी जिंदगी पूरी करने वाले होते हैं, मशीनों की मदद से उन्हें साफ करके सुखा दिया जाता है और पोषण निकाल लिया जाता है. ये पावडर के रूप में भी हो सकता है और लिक्विड के रूप में भी. यहां से ये मार्केट में पहुंच जाते हैं.
क्या कीड़ों के साथ क्रूरता कर रहे हैं हम?
एनिमल-लवर्स और पर्यावरण-प्रेमी संस्थाएं जानवरों की हत्या पर तो रोक लगाने की बात करती रहीं, लेकिन इंसेक्ट फार्मिंग पर कोई बात नहीं होती थी. छोटे-छोटे कीड़े अगर कम ग्रीनहाउस गैस पैदा करते हुए ज्यादा प्रोटीन दे सकें तो किसी के लिए ये घाटे का सौदा नहीं था. लेकिन हाल में ही इसपर भी बात होने लगी. एक अनुमान के मुताबिक हर साल 1 से सवा ट्रिलियन कीड़े पैदा किए जाते हैं और इतने ही खत्म हो जाते हैं.
कीटविज्ञानशास्त्री तर्क दे रहे हैं कि कीड़े-मकोड़ों को भी उतना ही दर्द होता है, जितना बड़े पशु-पक्षियों को. तो जब उनकी मौत को क्रुएल्टी फ्री करने की कोशिश हो रही है, तो इनकी क्यों नहीं. इसका उल्टा तर्क ये है कि कीड़े इतने छोटे होते हैं कि उनका ब्रेन विकसित नहीं होता, इसलिए वे दर्द महसूस नहीं कर पाते. इसका विरोध करते हुए कीटविज्ञानी लार्स चित्तका ने बताया कि छोटे से छोटे जीव के ब्रेन तक सेंसरी इफॉर्मेशन पहुंचती है और वे दर्द महसूस करते हैं. ऐसे में हमें उनके लिए भी सोचना चाहिए.
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