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और भी ‘जलियांवाला बाग नरसंहार’ हैं भारत में

April 12, 2024

– रमेश शर्मा

जलियांवाला बाग नरसंहार को 13 अप्रैल को एक सौ चार वर्ष हो जाएंगे । 13 अप्रैल 1919 को जनरल डायर ने वैशाख उत्सव के लिए एकत्रित भीड़ और सैकड़ों निर्दोष नागरिकों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया था । इसमें तीन सौ से अधिक लोगों का बलिदान हुआ और डेढ़ हजार से अधिक लोग घायल हुए थे । इनमें से भी अनेक लोगों ने बाद में प्राण त्यागे । ये सब संख्या जोड़े तो मरने वालों के आंकड़ा आठ सौ के पार हो जाता है। भारत में सामूहिक नरसंहार का एक लंबा इतिहास है । अंग्रेजों से पहले भी सामूहिक नरसंहार हुए । हर आक्रांता ने नरसंहार किए हैं। भारत पर विदेशी आक्रमण और विदेशी हमलावरों द्वारा लूट और अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए यह खूनी खेल लगभग बारह सौ वर्ष तक चला । शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो जब भारत की धरती अपने ही बेटों के रक्त से लाल न हुई हो । सैकड़ों घटनाओं का जिक्र तक नहीं है । जिनका है उनका एक दो पंक्तियों में मिलता है । यदि सभी सामूहिक नरसंहार की गणना की जाए तो लिखने के लिए पन्ने कम पडेंगे।


अंग्रेजों द्वारा भारत में किया गया यह नरसंहार भी पहला या अंतिम नहीं है । अंग्रेजीराज में भी विभिन्न स्थानों पर ऐसे सामूहिक नरसंहार किए जाने की घटनाएं भी पचास से अधिक हैं। इनमें हजारों लोगों का बलिदान हुआ । लेकिन जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार भारतीय इतिहास में एक नया मोड़ लेकर आया । उसके बाद भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष में तेजी आई । यह तेजी दोंनो प्रकार के आंदोलन में देखी गई । अहिंसक और आलोचनात्मक संघर्ष में भी और सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में भी । जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार के बाद मानों भारतीयों की सहनशक्ति जबाब दे गई थी । यह ठीक वैसा ही है जैसे जल से भरा हुआ प्याला एक बूंद पानी भी पचा नहीं पाता । एक अतिरिक्त बूंद और आने पर छलक उठता है। भीतर का पानी भी बाहर फेंकने लगता है। ठीक वैसे ही अंग्रेजों के आतंक से आकंठ डूबे भारतीय जन मानस में एक ज्वार उठ आया । इस घटना के बाद स्वाधीनता संघर्ष को एक नयी गति मिली और पूरा भारत उठ खड़ा हुआ । इससे पहले भी ऐसी घटनाएं स्वतंत्रता या स्वाभिमान संघर्ष के लिये निमित्त बनी हैं । 1857 में भी यही हुआ था । प्लासी का युद्ध जीतकर ही अंग्रेजों ने भारत में दमन चक्र चलाना आरंभ कर दिया था । जो 1803 में दिल्ली पर कब्जा करने के बाद बहुत तेज हुआ ।

अंग्रेजों के अत्याचारों का प्रतिकार भी लगातार हुआ । यदि अत्याचार प्रतिदिन हुए तो उनका प्रतिकार भी प्रतिदिन हुआ । किंतु 1857 में मंगल पांडे के बलिदान के बाद भारत में क्रांति की ज्वाला धधक उठी और पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का आरंभ हो गया । बलिदानी मंगल पांडे का प्रतिकार ही 1857 की क्रान्ति का मूल बनी। इतिहास की वही पुनरावृत्ति जलियांवाला बाग कांड के बाद हुई । उस दिन जलियांवाला बाग में लोग किसी संघर्ष के लिये एकत्र नहीं हुए थे । वैशाखी मनाने एकत्र हुए थे । यदि संघर्ष के लिए एकत्र होते तो महिलाओं और बच्चों को भी साथ क्यों ले जाते । हां, यह बात अवश्य है कि वे अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति जागरूक थे । वहां एकत्र समूह संस्कृति और परंपरा निर्वहन के संकल्प के साथ ही वहां एकत्र हुए थे । लेकिन अंग्रेजी फौज ने चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध फायरिंग आरंभ कर दी । इस कांड के प्रतिशोध के लिए सैकड़ों युवाओं ने संकल्प लिया किंतु सफलता क्रांतिकारी ऊधमसिंह को मिली । उन्होंने लंदन जाकर जनरल डायर को मौत की नींद सुला दिया । इस कांड पर अंग्रेजों को खेद जताने में सौ साल लगे । 2019 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने पहली बार खेद जताया ।

इससे पहले अंग्रेजों ने इस घटना और इस तरह की तमाम घटनाओं को कभी गंभीरता से न लिया था । वे हर नरसंहार का औचित्य प्रमाणित करते रहे । अंग्रेजों या यूरोपियन्स ने ऐसे नरसंहार केवल भारत में ही नहीं किए हैं । पूरी दुनिया में किए हैं । इसका कारण यह है कि वे इस प्रकार के सामूहिक नरसंहार करने के आदी रहे हैं । मध्य एशिया से लेकर यूरोप तक के लोग जिन भी देशों में भी गए, उन देशों में जाकर अपनी सत्ता स्थापित करने या स्थापित सत्ता को सशक्त करने के लिये नरसंहार ही किए हैं । ऐसा कोई देश अपवाद नहीं । अमेरिका और अफ्रीका में अंग्रेजों के ऐसे नरसंहार किए जाने की घटनाओं से भी इतिहास भरा है । अंग्रेज ही नहीं अन्य यूरोपियन्स समूहों द्वारा भी सामूहिक नरसंहार करना सामान्य बात है । भला यूरोप का ऐसा कौन सा देश है जहां यहूदियों का सामूहिक नरसंहार न हुआ हो । लाखों यहूदियों का तड़पा-तड़पा कर प्राणांत किया गया । केवल भारत है, भारत की सनातन परंपरा है। इन्हीं लोगों ने विश्व बंधुत्व, परोपकार, सेवा और मानवीय मूल्यों की स्थापना की बात की । भारतीय जन जब गए, जहां गए, दुनिया के जिस कोने में गए, शांति का संदेश लेकर ही गए । न तो सत्ता हथियाने के षडयंत्र चलाये और न लूट बलात्कार किए । यदि हम इतिहास की घटनाओं का विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि सनातन परंपरा का अनुपालन करने वाले भारतीयों के अतिरिक्त अन्य सभी समूहों द्वारा की गई प्रेम, शांति और भाईचारे की बातें मानो बनावटी रहीं, दिखावा रहीं । वे सेवा शांति की बात करके अपने निश्चित अभियान में सदैव लगे रहे ।

ऐसा आज की दुनिया में भी देख सकते हैं । लेकिन भारतीय सदैव इससे अलग रहे । वैदिक आर्यों से लेकर स्वामी विवेकानंद तक जो जहां गया, सबसे जीवन का संदेश ही दिया । पूरे विश्व को अपना कुटुम्ब माना और प्रकृति से जुड़कर सह अस्तित्व के साथ जीने की शिक्षा दी । आज के आधुनिक युग में भी यदि भारतीय बच्चे कहीं जा रहे हैं तो सेवा के लिए जा रहे हैं । आज की दुनिया में भला ऐसा कौन सा ऐसा संस्थान है जो भारतीयों की सेवा से पुष्पित और पल्लवित न हो रहा हो । सुविख्यात वैज्ञानिक संस्थान नासा से लेकर बिल गेट्स के औद्योगिक समूह तक सबकी नींव में भारतीय हैं । लेकिन अन्य का चरित्र और संस्कार ऐसे नहीं हैं । उनका आरंभिक स्वरूप, बातचीत और व्यवहार भले ही कैसा हो पर बहुत शीघ्र वे शोषण और दमन पर उतर आते हैं । भारत में लगभग सभी विदेशी आगन्तुकों ने ऐसा ही किया । यदि उनके विचारक पहले समूह बनाकर आए तो भी वे भूमिका के लिए आये थे । जो बाद के हमलावरों के आने पर स्पष्ट हुआ। अंग्रेजों ने भी यही शैली अपनाई । अंग्रेजों ने सबसे पहले विचारक भेजे, दक्षिण भारत में चर्च बनाया, दूसरे क्रम पर व्यापार की बात हुई और अंततः सत्ता शोषण और दमन का आरंभ । यही है अंग्रेजों का इतिहास ।

अंग्रेजों ने जो आरंभ सबसे दक्षिण भारत से किया, वही शैली उन्होंने पूरे भारत में अपनाई । पहले चर्च, फिर व्यापार। फिर सेना । भारत के मध्य भाग के शासकों की हो या दिल्ली के दरबार की सब जगह एक ही शैली । दिल्ली और पंजाब पर कब्जा करने में अंग्रेजों को लगभग पौने दो सौ साल लगे । मुगल दरबार में अंग्रेजों की आमद 1600 के बाद आरंभ हुई और 1803 में दिल्ली पर अधिकार कर लिया । उनका चौथा चरण सामूहिक दमन नरसंहार और लूट का ही रहा है । जलियांवाला बाग की भांति ही अंग्रेजों द्वारा सामूहिक दमन और नरसंहार से भारत का हर कोना रक्त रंजित है । अंग्रेजों ने एक दर्जन से अधिक नरसंहार तो केवल वनवासी क्षेत्रों में किए थे। कौन भूल सकता है गुजरात के सांवरकाठा कांड को ।

अंग्रेजों ने वनवासियों को समस्या सुनने के बहाने एकत्र किया और गोलियों से भून दिया। इस कांड में भी सैकड़ों वनवासी बलिदान हुए । शव उठाने वाला भी कोई न बचा था । मध्य प्रदेश में सिवनी जिले से लेकर नर्मदापुरम तक की पूरी वनवासी पट्टी पर कितना रक्त बहा, कोई देखने वाला तक नहीं। झारखंड में बिहार में क्रूरता और बर्बरता से हुए इन नरसंहारो के विवरण भरे पड़े हैं । जो स्वयं अंग्रेज अधिकारियों ने अपनी डायरियों के पन्नों पर लिखे हैं। 1822 में नागपुर के राजा द्वारा परिवार सहित वन में चले जाने की घटना से अंग्रेज इतने बौखलाये कि नागपुर से लगे पूरे मध्य प्रांत में गांव के गांव जलाए गए, सामूहिक नरसंहार किए । तब मध्य प्रदेश का महाकौशल भी इसी मध्य प्रांत का एक हिस्सा था ।

इस पर स्वयं नागपुर के अंग्रेज रेजीडेन्ट ने इस प्रकार गांव जलाने और सामूहिक नरसंहार को अनुचित बताया था । 1857 की क्रान्ति की विफलता और अंग्रेजों ने अपनी जीत के बाद तो मानो सामूहिक नरसंहार का अभियान ही चला दिया था सभी क्रांतिस्थलों पर जो सामूहिक नरसंहार किए । इनमें लखनऊ, कानपुर, कालपी, झांसी, इंदौर, गोडवाना, भोपाल में गढ़ी अम्बापानी की घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं । इसी प्रकार दिल्ली पर दोबारा अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली के आसपास पूरी जाट पट्टी में लाशों के ढेर लगा दिए थे । उनका विवरण पढ़ कर रोंगटे खड़े होते हैं । कानपुर में सामूहिक नरसंहार करने के लिए अंग्रेजों ने सत्ती चौरा कांड का बहाना लिया । सत्ती चौरा कांड का विवरण अंग्रेजों द्वारा कूटरचित है ।

भारतीय क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों का कोई नरसंहार नहीं किया था । कानपुर में क्रांतिकारियों की सफलता के बाद सत्ती चौरा में अंग्रेज समूह एकत्र हो गया था । यह समूह क्रांतिकारियों से घिरा हुआ था । लेकिन क्रांतिकारियों ने किसी को क्षति नहीं पहुंचाई । नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज स्त्री बच्चों, पादरियों सहित सभी सामान्य नागरिकों को जाने दिया । उन्हें सुरक्षा देकर रवाना कर दिया था । वहां जो अंग्रेज मरे ये सभी सैनिक थे और वे थे जिन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया था । लेकिन अंग्रेजों ने इस घटना को नरसंहार करार दिया । और जब दूसरा दौर आया, अंग्रेजों की अतिरिक्त कुमुक आई । कानपुर पर अंग्रेजों का दोबारा अधिकार हुआ तब उन्होंने किया था सामूहिक नरसंहार । इस नरसंहार में न केवल क्रांतिकारियों की ढूंढ-ढूंढ कर हत्या की अपितु उन गांवो में भी सामूहिक नरसंहार किए जिन गांव वालों ने क्रांतिकारियों को छिपने के लिए सहायता की थी । देश भर ऐसे वीभत्स दृश्य उपस्थित हुए जो मानवता को भी शर्मशार करने वाले हैं ।

1857 में नरसंहार की इन सभी घटनाओं में एक बात सभी स्थानों पर दोहराई गई । वह यह कि अंग्रेजी सेना ने पहले घेरकर क्रांतिकारियों से हथियार डालने को कहा, यह आश्वासन भी दिया कि यदि हथियार डाल कर समर्पण कर दोगे तो माफी दे दी जाएगी । तोप के मुहानों पर, चारों तरफ से घिरे क्रांतिकारी जो भोजन की सामग्री की तंगी तक से जूझ रहे थे, के सामने हथियार डालने के अतिरिक्त कोई रास्ता भी नहीं था । उन्होंने शस्त्र रख दिए लेकिन जैसे ही क्रांतिकारियों ने हथियार डाले उनके शरीरों को गोलियों से छलनी कर दिया गया । यह कहानी हर जगह दोहराई गई । यह भारतीय मानस का भोलापन है कि वे बार-बार धोखा खाते हैं । दूसरे पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं । भारत की परतंत्रता की बुनियाद में दो ही बातें हैं । एक भारतीयों का भोलापन, और दूसरे विदेशियों का कुटिल विश्वासघात । जब हम अतीत की किसी भी बड़ी घटना का स्मरण करते हैं तो परिदृश्य में ये बातें ही उभरकर सामने आतीं हैं । जलियांवाला बाग के सामूहिक नरसंहार की स्मृति आते ही क्रांतिकारी ऊधम सिंह का बलिदान गर्व से सीना चौड़ा कर देता है। अतीत में जो घट गया उसे बदला नहीं जा सकता है, लेकिन उससे सबक लिया जा सकता है । यह सबक जलियांवाला बाग में बलिदान हुए देशवासियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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