नई दिल्ली (New Delhi)। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो 21वीं सदी के अंत तक 60 करोड़ भारतीयों (60 crore Indians) समेत दुनिया भर (Whole world) के 200 करोड़ लोग (200 million people) खतरनाक गर्मी की चपेट (grip of dangerous heat) में होंगे। एक नए अध्ययन में बढ़ते तापमान (rising temperature) को लेकर यह भयावह तस्वीर सामने आई है। इसमें कहा गया है कि अगर सभी देश उत्सर्जन में कटौती के अपने वादे को पूरा भी कर लेते हैं, तभी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
अध्ययन के मुताबिक, हम आने वाली पीढ़ियों के लिए भी गैस चैंबर तैयार कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर 3.5 व्यक्ति या केवल 1.2 अमेरिकी नागरिक अपने जीवन में जीतना उत्सर्जन करते हैं, वह भविष्य में पैदा होने वाले प्रत्येक एक व्यक्ति को भीषण गर्मी की चपेट में लाने का कारण बनता है। यह जलवायु असमानता के संकट को भी उजागर करता है क्योंकि भविष्य में खतरनाक तापमान की चपेट में आने वाले ये लोग उन स्थानों पर रहेंगे जहां वर्तमान समय में वैश्विक औसत के मुकाबले उत्सर्जन का स्तर आधा है।
50 प्रतिशत आबादी के अस्तित्व पर खतरा
अर्थ कमीशन और नानजिंग विश्वविद्यालय (Earth Commission and Nanjing University) के साथ मिलकर शोध करने वाले एक्सेटर विश्वविद्यालय के ग्लोबल सिस्टम इंस्टीट्यूट (University of Exeter’s Global Systems Institute) के वैज्ञानिकों ने कहा है कि सबसे खराब स्थिति में अगर वैश्विक तापमान में 4.4 डिग्री की वृद्धि होती है तो दुनिया की 50 प्रतिशत आबादी अभूतपूर्व गर्म तापमान की चपेट में होगी और उनके अस्तित्व पर खतरा पैदा हो जाएगा।
मौसम का संतुलन बिगड़ेगा
जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार, वर्तमान जलवायु नीतियों से इस शताब्दी के अंत तक (2080-2100) वैश्विक तापमान में 2.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। इससे मौसम का संतुलन बिगड़ेगा और एक ही समय में कहीं भीषण गर्मी पड़ेगी तो कहीं तूफान आएगा तो कहीं बाढ़ का प्रलय देखने को मिलेगा। दुनिया भर में समुद्र का जल स्तर भी बढ़ेगा। वैज्ञानिकों ने यह आकलन किया था कि अगर 2.7 फीसदी तापमान बढ़ता है तो तापमान की दृष्टि से संरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
मानवीय कीमत चुकानी पड़ेगी
ग्लोबल सिस्टम इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रोफेसर टिम लेंटन ने कहा, आमतौर पर वैश्विक तापमान से होने वाले आर्थिक नुकसान को दिखाया जाता है, लेकिन हमारे अध्ययन ने जलवायु आपात स्थिति से निपटने में विफल रहने पर कितनी मानवीय कीमत चुकानी पड़ेगी, इसको उजागर किया है।
22 फीसदी तक आबादी होगी चपेट में
शोधकर्ताओं के अनुसार इस सदी के अंत तक अनुमानित 950 करोड़ की आबादी का 22 से 39 प्रतिशत हिस्सा खतरनाक तापमान (औसत 29 डिग्री सेल्सियस या अधिक) की चपेट में होगा। अगर तापमान में वृद्धि को 2.7 डिग्री से घटाकर 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित कर दिया जाता है तो आबादी का यह हिस्सा 22 फीसदी से घटकर पांच फीसदी पर आ जाएगा। अध्ययन में कहा गया है कि वैश्विक आबादी के नौ फीसदी यानी 60 करोड़ लोग पहले की खतरनाक तापमान की चपेट में आ चुके हैं।
1.5 डिग्री वृद्धि पर भारत में नौ करोड़ लोग प्रभावित होंगे
अध्ययन के मुताबिक वैश्विक तापमान में अगर 2.7 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होती है तो भारत में 60 करोड़ लोग खतरनाक गर्मी की चपेट में होंगे। वहीं, अगर तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर दिया जाता है तो भारत में पीड़ितों की संख्या घटकर बहुत कम नौ करोड़ पर आ जाएगी।
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