– हृदयनारायण दीक्षित
सृजन में आनंद है। हम एक छोटी सी कविता लिखते हैं। मन आनंद से भर जाता है। किसी पौधे को सींचते हैं, पौधा प्रसन्न हो जाता है। पौधे की प्रसन्नता देखी जा सकती है। सृजन का आनंद सृजन के लिए और भी प्रेरित करता है। आनंदित चित्त अराजक नहीं होते। जान पड़ता है कि तनावग्रस्त लोग अराजकता के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। चाय का स्वाद इच्छानुसार नहीं हुआ। हम कप-प्लेट तोड़ देते हैं। प्रकृति अराजक नहीं है। इसके प्रत्येक अंश की गति नियमबद्ध है। हम संसार को अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते हैं। लेकिन संसार हमारे अनुसार नहीं चलता। प्रकृति की तरह समाज भी परिवर्तनशील है। हम सचेत रूप मे सोद्देश्य सामाजिक परिवर्तन की गति बढ़ाने का काम कर सकते हैं। समाज के मन को सृजनशील बना सकते हैं लेकिन पीछे काफी समय से भारतीय समाज में तनाव है। कुछ समूह अपनी मांग मनवाने के लिए हिंसा का सहारा ले रहे हैं। वे लोकतांत्रिक संवैधानिक मार्ग नहीं अपनाते। भयावह आगजनी से आकाश में भी धुआं है। दलतंत्र इसकी निंदा नहीं करता। कई मामलों में वह सरकार को घेरने के लिए अराजकता का समर्थन करता प्रतीत होता है। ध्वंस मे आनंद आश्चर्यजनक है।
भारत प्राचीन जनतंत्र है। जनतंत्र का मुख्य आधार विचार विविधता है। यहां अनेक विचार हैं। संविधान में विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह मौलिक अधिकार है। वाद, प्रतिवाद और संवाद की धारा वैदिक काल मे ही विकसित हो चुकी थी। वैचारिक बहसों से जनतंत्र मजबूत होता है। यहां ईश्वर या परमात्मा के होने या न होने पर भी बहसें चलती हैं। विचारों मे टक्कर भी होती रहती है। वैचारिक स्वतंत्रता के कारण ही यहां कम से कम आठ दर्शन है। पूर्व मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग व वेदान्त प्राचीन दर्शन हैं। जैन और बुद्ध को मिलाकर आठ दर्शन हैं। यहां आध्यात्मिक लोकतंत्र भी है। ईश्वर और देवतंत्र भी बहस के दायरे में हैं। संवैधानिक राज व्यवस्था है। भारतीय जनता ही राज व्यवस्था के शासक चुनती है। बहुमत दल सरकार चलाता है और अल्पमत निगरानी करता है। तमाम मुद्दों पर विपक्ष की राय भिन्न होती है। विपक्ष स्वाभाविक ही तमाम मसलों पर सत्ता का विरोध करता है। लेकिन हम भारत के लोग विरोध करने की आचार संहिता का विकास नहीं कर पाए। इसीलिए सार्वजनिक संपत्ति को आग लगाकर विरोध जताने की खतरनाक प्रवत्ति सामने है। आग लगाना, तोड़फोड़ व हिंसा ही विरोध व्यक्त करने के आधुनिक उपकरण हैं। यह स्थिति आत्मघाती है।
हिंसा और तोड़फोड़ विरोध व्यक्त करने के खतरनाक उपकरण हैं। डा. आंबेडकर ने संविधान सभा के अंतिम भाषण मे कहा था- ‘संविधान बन गया है। हम अराजक उपाय छोड़ें। संविधान के माध्यम से समस्या का समाधान खोजे।’ अराजक उपायों से समस्या का समाधान नहींं होता। हिंसा के बाद भी परस्पर वार्ता ही की जाती है। वार्ता और परस्पर संवाद का कोई विकल्प नहींं। अग्निपथ को लेकर ट्रेन-बसें जलाई गई हैं। आग में जलती सार्वजनिक सम्पदा का धुआं आकाश तक गया है। मूलभूत प्रश्न गहरा है। अपनी ही संपदा को आग में जला देने का पाप किसी भी सूरत मे औचित्यपूर्ण नहींं लगता। यह आत्मघात है। पहली दफा ही नहींं हुआ। सीआईए और किसान आंदोलन में ऐसा ही हुआ है। यह खतरनाक है। गांधी जी के नेतृत्व में होने वाले स्वाधीनता आंदोलनों मे कई बार हिंसा की चुनौतियां सामने आईं। गांधी जी ने आंदोलन रोका। हिंसक आंदोलनों की निंदा भी की। हिंसा बुरी है। उसका औचित्य भले ही उचित और जरूरी बताया जाता हो लेकिन अपने मूल रूप मे यह हिंसक ही होती है। ब्रिटिश सत्ता से लड़ते हुए गांधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह नाम के दो उपकरण बनाए थे। गांधी जी के दर्शन और व्यवहार मे आंदोलनों का मर्म है। 1975 मे राष्ट्रव्यापी संपूर्ण क्रान्ति आंदोलन हुआ था। जयप्रकाश नारायण इस आंदोलन के नेता थे। नारा था- ‘हमला चाहे जैसा भी हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा’।
पं. जवाहर लाल नेहरू ने डा. रामधारी सिंह दिनकर की किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की प्रस्तावना (1955) लिखी थी। बात काफी पुरानी है लेकिन आधुनिक संदर्भ में भी लागू होती है। लिखा है-‘हमारे आचरण की तुलना में हमारे विचार और उद्गार इतने ऊंचे हैं कि उन्हें देखकर आश्चर्य होता है। बातें तो हम शांति और अहिंसा की करते हैं मगर काम हमारे कुछ और होते हैं। घोषणा तो हमारी यह है कि स्थित प्रज्ञ बनना अर्थात कर्मों के प्रति अनासक्त रहना हमारा आदर्श है लेकिन काम हमारे बहुत नीचे के धरातल पर चलते हैं। बढ़ती अनुशासनहीनता हमें वैयक्तिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों मे नीचे ले जाती है।’ विचार और व्यवहार की एकता का प्रश्न गंभीर है। देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। हम विरोध करने और आंदोलन चलाने का व्यवहार शास्त्र नहींं विकसित कर सके। आंदोलन का अर्थ अराजकता नहींं हो सकता। पं. नेहरू ने तमाम आदर्श दिए थे, लेकिन उन्हीं की वंश परंपरा में आए नेतृत्व ने देश की राजनीतिक संस्कृति का स्वस्थ विकास नहींं किया। आखिरकार विरोध प्रदर्शनों का भी कोई आचार शास्त्र तो होना ही चाहिए। आंदोलनों का ध्येय होना चाहिए। उन्हें राष्ट्रहित से जुड़ा रहना चाहिए। आंदोलन और अराजकता पर्यायवाची नहीं है। यह पवित्र लोकतांत्रिक कर्तव्य है।
सामाजिक परिवर्तन का रथ तमाम उपकरणों से चलता है। अर्थनीति सामाजिक परिवर्तन का मुख्य उपकरण है। संस्कृति सामाजिक परिवर्तन की दिशा तय करती है। प्रत्येक संस्कृति का सुनिश्चित दर्शन होता है। भारतीय संस्कृति का जन्म और विकास दर्शन के नेतृत्व में होता रहा है। यहां अनेक दर्शन फले-फूले हैं। सामाजिक परिवर्तन की गति पर सभी दर्शनों का प्रभाव पड़ा है। राजनीति की मुख्यधारा पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रभाव सुस्पष्ट है। लेकिन भारतीय समाज और राजनीति में जातियों के प्रभाव गहरे हैं। यहां राजनीतिक संस्कृति का स्वस्थ विकास नहींं हुआ। स्वाधीनता आंदोलन के मूल्य मार्गदर्शी होते तो आदर्श राजनीतिक संस्कृति का विकास होता। ऐसी राजनीतिक संस्कृति में विरोध करने की आदर्श शैली भी विकसित हो सकती थी। तब आंदोलन का भी व्यवहार शास्त्र विकसित होता। असहमति व्यक्त करने व विरोध करने में हिंसा व अराजकता की कोई जगह न होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब शब्द संयम की महत्ता नहीं है। शब्द अपशब्द हो रहे हैं। संसद और विधान मंडलों में व्यवधान और हंगामे बढ़ रहे हैं। मुद्दा आधारित बहसें नहीं होतीं। आंदोलन लोकतंत्र के मुख्य तत्व हैं। सरकार के पास काम करने का जनादेश होता है। विपक्ष का काम वैकल्पिक विचार देना है। सत्ता के निर्णय और कार्यक्रमों की निगरानी करना है। वाद विवाद और संवाद से ही लोकतंत्र मजबूत होता है। सार्वजनिक संपदा मे आग लगाना आंदोलन नहीं है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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