नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय अमेरिका की यात्रा पर हैं. लंबे अरसे बाद हो रही ये यात्रा 21 जून से 24 जून तक चलेगी. उनकी इस यात्रा से पहले ये बात गौर करने लायक है कि कैसे भारत को लेकर पश्चिमी दुनिया के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है. पीएम मोदी ने देश के भीतर ‘वैश्विक नेता’ (स्टेट्समैन) की जो छवि गढ़ी, कैसे उसका असर दुनियाभर में देखने को मिला. वहीं विदेश नीति के मोर्चे पर भी भारत का रुख अब किसी देश या गुट के प्रति झुकाव वाला ना होकर मुद्दों पर आधारित हो चला है. ऐसे में उन्होंने भारत की छवि ऐसी गढ़ी है कि इंडिया के बिना पश्चिमी दुनिया का काम ही नहीं चलेगा. आखिर ये सब हुआ कैसे…?
इस बारे में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन विवेक देबरॉय विस्तार से बताते हैं. पीएम मोदी की मौजूदा अमेरिका यात्रा को अहम बताते हुए वो कहते हैं कि ‘अब जितना भारत के लिए अमेरिका जरूरी है, उतना ही अमेरिका को भारत की जरूरत है. अमेरिका में एक बड़ी आबादी भारतीय समुदाय की है.
मुद्दों का समाधान और भविष्य की रणनीति
इसलिए मोदी की इस यात्रा के दौरान कई अहम मुद्दों पर चर्चा होगी, कई का समाधान निकाला जाएगा. तो वहीं कई मुद्दों को भविष्य में ‘हल’ होने के लिए छोड़ दिया जाएगा, जैसे कि ट्रेड एग्रीमेंट. इतना ही नहीं भारत और अमेरिका के बीच भविष्य में न्यूक्लियर एनर्जी, ग्रीन एनर्जी, पीएलआई स्कीम के तहत दवा क्षेत्र में अमेरिका के निवेश इत्यादि को लेकर भविष्य में सहयोग की रणनीति भी तैयार हो सकती है.
बात करें ट्रेड एग्रीमेंट की, तो किन्हीं भी दो देश के बीच का व्यापार, दोनों देशों में एक-दूसरे के निवेश से प्रेरित होता है. इसलिए भारत की कोशिश है कि अमेरिका का यहां निवेश बढ़े. वहीं इस निवेश का दोनों देशों को एक फायदा भी है. इस निवेश से अमेरिका को जहां चीन पर अपनी निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी, वहीं भारत के लिए ये एक इकोनॉमिक बूस्टर का काम करेगा.
अमेरिका वैसे भी किसी ऐसे देश पर अपनी सप्लाई चेन को लेकर निर्भर नहीं होना चाहता, जिसके साथ उसकी रणनीतिक स्तर पर सहमति ना हो. अमेरिकी कंपनियां अपनी सप्लाई चेन को चीन से शिफ्ट करना चाहती हैं और अमेरिका की इस जरूरत को भारत का ‘मेक इन इंडिया’ और ‘पीएलआई स्कीम’ जैसा प्रोग्राम पूरी करता है. इतना ही नहीं भारत और अमेरिका के बीच शोध, विज्ञान, प्राइवेट सेक्टर, प्राइवेट युनिवर्सिटी के लेवल पर साझेदारी बढ़ाने कर असीम संभावनाएं हैं.
अमेरिका को स्पेशल ट्रीटमेंट नहीं, भारत के लिए सब बराबर
पीएम मोदी के कार्यकाल में भारत विदेश नीति के मोर्चे पर अमेरिका और रूस के बीच बैलेंस बनाने में सफल रहा है. अमेरिका जहां व्यापार समझौते के लिए जब बार-बार भारत में लगने वाले ज्यादा करों का मुद्दा उठाता है, तब भी एल्युमीनियम और स्टील के आयात में दी जाने वाली तरजीह को खत्म किए जाने की बात कह सकता है. यही वजह है कि दोनों देशों के बीच ट्रेड डील के दौरान सिर्फ भारत को ही सब कुछ छोड़ना पड़े, ऐसा नहीं होगा. बल्कि अमेरिका को भी काफी कुछ छोड़ना पड़ेगा.
भारत किसी विशेष देश को तरजीह देने की रणनीति पर नहीं चल सकता, और ना ही इस पर चलना चाहता है. इसलिए अगर किसी सेक्टर में सुधार की जरूरत है तो ये दुनिया के सभी देशों के लिए होगी, ना कि अमेरिका या किसी विशेष देश के लिए. वैसे भी मोदी सरकार 2014 से देश में ‘इज ऑफ डूइंग बिजनेस’ की पॉलिसी पर बहुत जोर दे रही है.
रूस और अमेरिका के बीच का ये संतुलन भारत को अपनी ऊर्जा जरूरत को भी पूरा करने में मदद करता है. भारत देश के गरीब से गरीब व्यक्ति तक बिजली पहुंचाना चाहता है. इसके लिए उसे दुनिया में जहां से भी सस्ती ऊर्जा मिलेगी, वह लेगा. अब अमेरिका या रूस के रुख के हिसाब से इसके लिए किसी पर निर्भर होने की जरूरत नहीं है.
भारत को नजरअंदाज करना हुआ मुश्किल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में जो सबसे अहम काम हुआ, वह लोगों के बीच भारतीय होने को लेकर गर्व करना. इसका एक फायदा दोतरफा हुआ, पहला ये कि दुनियाभर में भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ की धमक बनी, वहीं इसने इकोनॉमिक पावर बनने में मदद किया. अब भारत की इकोनॉमिक ग्रोथ कैसी भी हो, लेकिन उसकी ग्लोबल प्रेजेंस दिखती है. भारत मौजूदा समय में बेहतर तरीके से आगे बढ़ रहा है, हालांकि कई बार हमें अमेरिका के फेडरल रिजर्व की नीतियों के आधार पर फैसले लेने पड़ते हैं.
इसी के साथ बिवेक देबरॉय का मानना है कि भारत को मूडीज, एसएंडपी और फिच जैसी रेटिंग एजेंसियों के पीछे भागना छोड़ देना चाहिए. इन एजेंसियों ने पहले भी कई देशों को अच्छी रेटिंग दी है, उसके बावजूद वह डूब चुके हैं. वहीं विकसित देशों और विकासशील देशों या उभरती अर्थव्यवस्थाओं को लेकर इनका रवैया पक्षपात पूर्ण रहा है.
ये रेटिंग एजेंसी किसी देश में निवेश के साइकिल को प्रभावित जरूरत करती हैं, लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेशक और पोर्टफोलियो इंवेस्टर्स का निवेश करने का अपना आकलन होता है. इसे उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं कि अगर ये निवेशक भारत के इकोनॉमिक ग्रोथ रेट को 6.5 प्रतिशत मानते हैं, तो उन्हें अधिकतर रेटिंग एजेंसियों के ग्रोथ अनुमान 5.5 प्रतिशत से फर्क नहीं पड़ेगा.
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved