बीजिंग। चीन(China) में अंतरराष्ट्रीय स्कूलों (International schools) की शाखाओं में बच्चों को पढ़ाने की ललक बढ़ती ही जा रही है। ये बात इससे ही जाहिर होती है कि 1999 में देश में अंतरराष्ट्रीय पाठ्यक्रमों (International courses) के मुताबिक शिक्षा (Education) देने वाले स्कूलों की संख्या सिर्फ 86 थी, जो 2019 में बढ़ कर 800 से ज्यादा हो गई। अब देश में ब्रिटेन (UK) और दूसरे देशों के प्राइवेट स्कूलों (other private schools) को अपने कैंपस खोलने की इजाजत मिल चुकी है। इसलिए ऐसे स्कूलों की संख्या में और बढ़ोतरी का अनुमान है। लेकिन इन स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई से चीन में एक नए तरह की समस्या खड़ी हो रही है।
एक विश्लेषण(Analysis) के मुताबिक ये स्कूल समाज में वर्ग भेद पैदा करने का जरिया बन रहे हैं। इन स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना सबके वश की बात नहीं है। मसलन, 2019 में शंघाई में अंतरराष्ट्रीय हाई स्कूल में पढ़ाने का औसत सालाना खर्च ढाई लाख युवान (लगभग 36 हजार डॉलर) था। ये रकम शहर के निवासियों की औसत खर्च योग्य आमदनी से चार गुना ज्यादा थी। इसलिए धनी परिवार ही इन स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने की स्थिति में हैं। ये स्कूल तड़क-भड़क वाली आकर्षक जिंदगी का सपना यहों के लोग के बीच बेच रहे हैँ। मसलन, उन स्कूलों की तरफ से बच्चों घुड़सवारी और रग्बी जैसे खेलों, जीवन की पश्चिमी शैली और अंग्रेजी बोलने में पारंगत बनाने का दावा किया जाता है। इन स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होता है।
चीन के हाल के वर्षों में अंग्रेजी का आकर्षण तेजी से बढ़ा है। पूर्वी चीन के एक स्कूल में अंग्रेजी की शिक्षिका यिंग तियानयी ने लिखा है- ‘मैं चार साल से अंग्रेजी पढ़ा रही हूं। इस दौरान अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने आने वाले छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ी है। आज चीन के स्थानीय शिक्षकों से भी ये उम्मीद की जा रही है कि क्लास में वे अंग्रेजी ही बोलें, भले उनका उच्चारण कैसा भी हो या वे खुद को ठीक से इस भाषा में अभिव्यक्त कर पाते हों या नहीं।’ यिंग तियानयी के मुताबिक उन्होंने अपने स्कूल में एक सर्वे किया। इससे सामने आया कि अभी भी 83 फीसदी छात्र अपनी भाषा में पढ़ने में सहजता महसूस करते हैं। कुछ छात्रों ने तो यहां तक कहा कि क्लास में जब अंग्रेजी बोली जाती है, तो वे खुद को खोया-खोया सा महसूस करते हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में ऐसे मामले भी हुए हैं, जब किसी शिक्षक ने चीन की अपनी भाषा में बात की, तो उसके आचरण को ‘गैर-पेशेवर’ ठहरा दिया गया। यिंग तियानयी के मुताबिक इन स्कूलों में निदेशक आम तौर पर विदेशी होते हैं और वे ही शिक्षकों के प्रदर्शन का आकलन करते हैँ। उनके आकलन पर शिक्षक का प्रमोशन या नौकरी निर्भर करती है। इस कारण बहुत से शिक्षक छात्रों की जरूरत पर अपने अंग्रेजी प्रदर्शन को तरजीह देने लगे हैं। जानकारों का कहना है कि ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध करना स्थानीय शिक्षकों के लिए संभव नहीं है। वैसे भी विदेशी स्कूलों में विदेशी शिक्षक अधिक लाभ की स्थिति में रहते हैँ। इसका एक अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक दबाव चीनी शिक्षकों को झेलना पड़ रहा है। गौरतलब है कि चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद यहां मातृभाषा को संपूर्ण शिक्षा का माध्यम बनाया गया था। लंबे समय तक चीन में तकनीकी शिक्षा भी मातृभाषा में दी जाती रही। लेकिन चीनी अर्थव्यवस्था को दुनिया से जुड़ने की ललक में अंग्रेजी सीखने पर जोर देने का जो चलन आया, अब वह मातृभाषा में शिक्षा के लिए चुनौती बनने लगा है।