– हृदय नारायण दीक्षित
`मैं’ से `हम’ की अंतर्यात्रा आनंददायी है। `मैं’ होना एकाकी है। एकाकी में उदासी है और विषाद है।`हम’ सामूहिकता हैं और प्रसाद हैं । `मैं’ होना दुखदायी है। ‘हम‘ होना विश्व का अंग होना है। ‘मैं‘ होना उल्लासहीनता है। ‘हम‘ होना उल्लासपूर्ण सांस्कृतिक अनुभूति है। ‘मैं‘ होना सिकुड़ना है और ‘हम‘ होना विस्तीर्णता है। आदिम काल में ‘मैं‘ भयभीत था। वह ‘मैं‘ से ‘हम‘ हुआ। सामूहिक हुआ। ‘हम‘ सामूहिकता है। फिर सामूहिक जीवन सामाजिक हुआ, सांस्कृतिक हुआ। मानव जाति में संवेदनशीलता बढ़ी। लोकजीवन व्यवस्थित हुआ। सोच विचार बढ़ा। तर्क प्रतितर्क हुए। वाद विवाद संवाद बढ़ा। दर्शन का विकास हुआ। जीवन नियमबद्ध हुआ। इसी का नाम धर्म हुआ। आधुनिक हिंदुत्व इसी परंपरा का अमृत प्रसाद है।
मैं हूँ। यह हमारी अस्मिता है। मैं समुद्र की लहरों में उठती विलीन होती बूँद हूँ। बूँद इकाई है। इकाई लघुता है। लघुतम है। समुद्र ऐसी ही अनंत नाशवान इकाइयों की अनंत जलराशि है। इकाई की अस्मिता अनंत का भाग है। स्वयं के बोध में मैं अनंत हूँ। मैं अनंत में जन्म लेता हूँ। अनंत में बढ़ता हूँ, अनंत में यशस्वी होता हूँ। अनंत कोई ओर छोर नहीं। अनंत अंतहीन प्रवाह है। भारतीय धर्म परंपरा में मैं लघुता है, हम होना महत्ता है। हम का विस्तार अनंत में है। उत्सव सामूहिक होते हैं। आनंदित करते हैं। एक अकेला मनुष्य उत्सवों का आयोजन नहीं कर सकता। साथ साथ चलना अकेले चलने की तुलना में ज्यादा आनंद देता है। परस्पर वार्ता और संवाद आनंद देता है। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में प्रीतिकर उल्लेख है, ‘हम साथ साथ चलें। परस्पर प्रीतिपूर्ण वार्ता करें। समान मन से ज्ञान प्राप्ति करें- संगच्छध्वं संवदध्वं, सं वो मनासि जानताम।’ पूर्वज सामूहिकता के आनंद से सुपरिचित थे। इसी मन्त्र में आगे कहते हैं, ‘पूर्व काल में भी हमारे पूर्वज सामूहिक उपासना करते रहे हैं- यथापूर्वे संजानाना उपासते।’
प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। अधिक वर्षा बाढ़ लाती है। अवर्षण सूखा लाता है। तमाम हिंसक पशु मानव जीवन को त्रस्त करते हैं। इसलिए मनुष्य में असुरक्षा बोध होता है। एकाकी मनुष्य में असुरक्षा बोध ज्यादा होता है। अंतर्विरोधों से संघर्ष में सामूहिक जीवन उपयोगी होता है। साथ साथ रहने से असुरक्षा बोध नहीं होता। सामूहिकता से ‘मैं’ ‘हम’ बना। ‘हम’ ने सुरक्षा भाव बढ़ाया। विश्व की तमाम सभ्यताओं में सामूहिक जीवन का विकास बाद में हुआ। इसमें व्यक्तिगत उपलब्धि पर जोर है। भारतीय संस्कृति परंपरा में सामूहिक उपलब्धि आनंदकारी है। भारत में ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले से ही सामूहिक जीवनशैली का विकास हो चुका था। वैदिक धर्म में ‘हम’ भाव का लगातार विकास हुआ। पृथ्वी माता हो गईं। आकाश पिता हो गए। प्रकृति की शक्तियां देवता जानी गईं। धर्म सभी कर्तव्यों का नियामक बना। लोकमंगल का ध्येय मार्गदर्शी बना। आनंदपूर्ण जीवन हिन्दुत्व का ध्येय और परिणाम बना। हिन्दुत्व का प्रभाव अंतरराष्ट्रीय है।
भारतीय चिंतन में नारद निराले पात्र हैं। वे बिना किसी वाहन के सभी लोकों का भ्रमण करते हैं। वह भी वाद्य संगीत वीणा लेकर। वे वैदिक काल में हैं। उत्तर वैदिक काल में हैं। पुराण कथाओं में उनकी गहन उपस्थिति है। वे रामायण में हैं। महाभारत में भी हैं। ऐसा निराला पात्र दुनिया की किसी भी सभ्यता, संस्कृति या मिथ में नहीं मिलता। लेकिन छान्दोग्य उपनिषद की एक सुंदर कथा में वे अशांत हैं। वे उस समय के विद्वान सनत कुमार के पास गए। बोले, हे भगवन् उपदेश दीजिए। सनत् कुमार ने कहा, ‘तुम जो जानते हो, वह बताओ।’ नारद ने कहा, ‘मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्ववेद जानता हूँ। इतिहास, पुराण, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, देव विद्या, ब्रह्म विद्या, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, देवजन विद्या आदि जानता हूँ।’ नारद अनेक विषयों के जानकार हैं। इससे ज्ञात होता है कि इस उपनिषद् के रचनाकाल में शिक्षा और ज्ञान के अनेक विषय-ज्ञान अनुशासन थे। नारद ने कहा, ‘मैं केवल मन्त्रवेत्ता हूँ। आत्मवेत्ता नहीं हूँ। मैंने विद्वानों से सुना है कि आत्मवेत्ता शोक को पार कर लेता है। आप मुझे शोक से पार करें।’ भारतीय परंपरा में तमाम विषयों की जानकारी को ही सुख आनंद की प्रतिभूति नहीं माना गया। आत्म ज्ञान से सुख की प्राप्ति होती है।
जानकारियां रूप और नाम का संचय होती हैं। बोलने सुनने में नाम का प्रयोग होता है। रूप देखने से ज्ञान का भाग बनता है। सनत् कुमार ने नारद को बताया, ‘‘ऋग्वेद आदि विषय नाम है। नाम की सीमा है। नारद ने पूछा, ‘‘क्या नाम से भी कुछ बड़ा है? आप हमें वही बताएं।‘‘(7-1-5) सनत् कुमार ने उत्तर दिया, ‘वाक् नाम से बढ़कर है। वाक् या वाणी ही ऋग्वेद आदि को प्रकट करती है। वाणी न होती तो धर्म अधर्म का ज्ञान न होता। इसलिए तुम वाक् की उपासना करो।’ इसी तरह सनत् कुमार ने मन की शक्ति बताई, ‘मन की गति जहां तक है वहां तक स्वेच्छा गति होती है।’ नारद ने फिर पूछा, ‘क्या मन से भी बढ़कर कुछ है?’ सनत् कुमार ने कहा, ‘संकल्प मन से बढ़कर है। पुरुष संकल्प करता है, वह बोलने की इच्छा करता है। वाणी को प्रेरित करता है। नाम में सब मंत्र एक रूप हो जाते हैं। मन्त्रों में कर्म का अंतर्भाव हो जाता है।’ आगे कहते हैं, ‘मन आदि संकल्परूप, संकल्पमय संकल्प में प्रतिष्ठित हैं। अंतरिक्ष और पृथ्वी ने संकल्प किया है, वायु और आकाश ने संकल्प किया है। वर्षा संकल्प के लिए समर्थ होती है। कर्मों के संकल्प के लिए लोक फल समर्थ होते हैं। लोकों के संकल्प के लिए सब समर्थ होते हैं। तुम संकल्प की उपासना करो।’ संकल्प में बड़ी क्षमता है।
संकल्प में ऊर्जा का जागरण होता है। हिन्दुओं में प्रत्येक कार्य के पहले संकल्प की परंपरा है। नारद ने पूछा कि क्या संकल्प से बढ़कर भी कुछ है? सनत् कुमार ने बताया, ‘चित्त संकल्प से बड़ा है। पुरुष जब चेतनावान होता है तभी वह संकल्प करता है। मनन करता है। वाणी को प्रेरित करता है। उसे नाम से प्रवृत्त करता है। नाम में मंत्र एक रूप होते हैं और मन्त्रों में कर्म।’ सनत् कुमार ने बताया कि ध्यान चित्त से बढ़कर है। पृथ्वी ध्यान करती है। अंतरिक्ष ध्यान करता है और जल भी। देवता भी ध्यान करते हैं। ध्यान के लाभ का अंश पाकर मनुष्य महत्वपूर्ण होते हैं। नारद तुम ध्यान की उपासना करो।’ फिर ध्यान से विज्ञान को बड़ा बताते हैं, ‘विज्ञान से ही पुरुष ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद्, इतिहास, पुराण, व्याकरण, ब्रह्म विद्या आदि सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान पाता है। जहां तक विज्ञान की गति है, वहां तक उसकी स्वेच्छा गति होती है। लेकिन विज्ञान से बल श्रेष्ठ है, सौ विज्ञानवानों को भी बलवान हिला देता है। वह श्रवण करने वाला होता है। कर्ता होता है। बल से पृथ्वी, अंतरिक्ष, पर्वत, देवता, पशु, पक्षी, वनस्पति, कीट, पतिंग स्थित हैं।’ लेकिन अन्न बल से श्रेष्ठ है, ‘अन्न से वह द्रष्टा होता है। श्रोता, मनन कर्ता होता है। विज्ञाता होता है। तुम अन्न की उपासना करो।’
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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