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    विलुप्त होने को है सावन में झूला झूलने की परंपरा

  • August 08, 2022

    – डॉ. रमेश ठाकुर

    सावन माह झूलों के लिए प्रसिद्ध रहा है, जिसमें झूला झूलना सिर्फ रिवाज नहीं माना गया, बल्कि भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपरा भी कहा गया। पर, ये परंपरा अब विलुप्त होने के कगार पर है। क्योंकि अब सावन के माह में झूले कहीं दिखाई नहीं पड़ते। बदलते परिवेश और आधुनिकता की चकाचौंध ने झूलों की परंपरा को धराशायी कर दिया है। कमोबेश, आज स्थिति ये है कि ये रिवाज अब इतिहास के कागजी पन्नों में सिमटने को मजबूर हैं। सावन की रिमझिम बारिश और झूलों पर हिंदी फिल्मों के कई गाने बनें, फिल्मों में झूलों के दृश्य भी फिल्माए गए, पर अब ना वैसे अब गाने रहे और न ही झूले। बदलते समाज ने तमाम परंपराओं को समेट कर पिंजरे में बंद कर दिया है।

    शहरों के मुकाबले ग्रामीण परिवेश में सावन माह के महत्व को हमेशा से बड़ा माना गया। वेद-पुराणों में इस महीने को पवित्र तो कहा ही गया है, साथ ही दो और खास बातें जुड़ी हैं। अव्वल बारिश और दूसरा झूला? बारिश के दीदार तो होते रहते हैं, पर झूले अब कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते। वो भी वक्त था, जब गांव की औरतों को सावन के आने का इंतजार बेसब्री से हुआ करता था। अब उन्होंने भी इंतजार करना छोड़ दिया। प्रत्येक वर्ष सावन माह का आगमन तो होता है, लेकिन अपने साथ झूले नहीं लाता। इस परंपरा के खत्म होने के पीछे कोई एक नहीं, कई कारण हैं।

    दरअसल, आधुनिक समाज की तेज रोशनी ने बहुत कुछ झुलसा दिया। बीते एकाध दशकों से तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि अब समूचे हिंदुस्तान में झूला झूलने की परंपरा मानो धीरे-धीरे खत्म होने को है। झूला झूलने के लिए हिंदी भाषी प्रदेश जैसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड एवं राजस्थान विख्यात थे। उनके लिए बिना झूलों के सावन अधूरा था। युवतियों के अलावा घरों की बूढ़ी औरतें भी सावन की फुहारों में सराबोर हो जाया करती थीं।

    झूलों को याद करने मात्र से गुजरे जमाने के दृश्य आंखों के सामने घूमने लगते हैं। युवतियां पेड़ों पर झूला झूलती थीं। गीत गाती थीं। सखियों के बीच आपस में हंसी-मजाक व ठिठोलियां होती थीं, पर अब यह सब किस्से कहानियां में सिमट गया है। यही कारण है कि मौजूदा समय की युवा पीढ़ी झूलों की महत्ता से अनभिज्ञ है। झूला झूलते वक्त लड़कियां और औरतें लोक गीत कजरी गाती थीं, जिन्हें सुनने के लिए पुरुषों का भी जमावड़ा लगता था। झूला झूलते वक्त औरतें बड़े ही मनमोहक अंदाज से कजरी सुनाती थीं।

    दरअसल, कजरी देशी किस्म की वह विधा है जिसमें सावन, भादो के प्यार-स्नेह, वियोग व मधुरता के मिश्रण का संगम समाया होता था। धीमी-धीमी बारिश में भी युवतियां झूला झूलती थीं और कजरी गाती थीं। सावन का सौंदर्य और परंपरागत कजरी की सुगंधित मिठास वर्षा बहार का जो वर्णन लोक गायन की विधा कजरी में था, वह किसी और में नहीं, लेकिन अब न झूले रहे, न कजरी को गाने वाली औरतें। आधुनिक युग की औरतों को कजरी का जरा भी ज्ञान नहीं।

    भागते समय की रफ्तार कोरोना काल में हल्की सी थमती हुई जरूर महसूस हुई, लेकिन पुरानी परंपराएं फिर भी नहीं लौटीं। लॉकडाउन में जब लोग घरों में कैद थे और एक तिहाई हिंदुस्तान की आबादी गांवों में शिफ्ट हो चुकी थी, उस दौरान लोगों ने पुराने दिनों को खूब याद किया। तब कई जगहों पर झूले भी लगे दिखे, लोगों ने झूलों का आनंद भी लिया। देखकर ऐसा लगा शायद गुजरा जमाना एक बार फिर मुड़ा है। उत्तर प्रदेश के जिले पीलीभीत में बाकायदा औरतों ने बागों में झूले सजाएं, डीजे लगवाकर झूला झूले, गाने गाए। बच्चों के लिए वो दृश्य एकदम नए थे। दरअसल झूले कैसे होते हैं, किस तरह झूले जाते हैं ये सब उन्होंने किताबों में ही पढ़ा। खैर, कोरोना के चलते युवतियों ने पुरानी परंपरा को कुछ समय के लिए लोगों को जरूर दीदार कराएं, लेकिन कुछ समय बाद जिंदगी फिर उसी भागम भाग में समा गई। इंसान तरक्की के लिए बहुत तेजी से भाग रहा है। उस तेज दौड़ में पीछे बहुत कुछ छोड़ता जा रहा है। जो छूठ रहा है, वो शायद ही उसे दोबारा कभी मिल पाए। यहां किसी को कोसना भी उचित नहीं, क्योंकि इस दौड़ में हम सभी शामिल हैं।

    बहरहाल, सावन माह में पेड़-पौधों की हरियाली अब भी मन मोहती है। झूले नहीं हैं तो कोई बात नहीं, पर बारिश और हरियाली तो है ही। मॉडर्न युग में लेडीज क्लबों में सावन का उल्लास मनाया जाता है। उत्साह और मस्ती को सेलिब्रेट करने के लिए अलग-अलग थीमों पर कार्यक्रम आयोजित होते हैं। सखियां एक साथ रंग-बिरंगे परिधानों में सज धज कर हाथों में मेहंदी और बालों में गजरा लगाती हैं। एकाध जगहों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, लेकिन झूले नहीं होते और कजरी भी कोई नहीं गाता। स्कूलों में सावन पर आधारित विभिन्न तरह के खेल व अन्य प्रतियोगिताएं होती हैं। फाइव स्टार होटलों में तीज जैसे त्योहार मनाए जाते हैं। सनातन संस्कृति में सावन को सबसे पवित्र माह माना गया है, लेकिन ये पवित्रता भी लोग अब भूलते जा रहे हैं। सावन में झूले दिखें, ऐसा सभी चाहते हैं।

    (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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