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    हत्‍या के दोषी की सजा में सुप्रीम कोर्ट ने किया बदलाव, कहा-अक्‍सर हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच अंतर करना काफी मुश्किल होता है

  • September 16, 2021

    नई दिल्ली। मध्यप्रदेश(Madhya Pradesh) में एक सब इंस्पेक्टर की हत्या (sub inspector murder) के दोषी ठहराए गए व्यक्ति की सजा को बदलते (change the sentence of the guilty) हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ (Supreme Court bench) ने दोषी को हत्या का दोषी न मानकर गैर इरादतन हत्या का दोषी ठहराया(convicted of culpable homicide)। साथ ही पीठ ने उसकी उम्रकैद की सजा को 10 साल की कैद में बदल दिया।
    सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बुधवार को कहा कि अकसर हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच अंतर करना मुश्किल होता है क्योंकि दोनों में ही मौत होती है. लेकिन दोनों ही अपराधों में मंशा और मालूम पड़ने के बीच सूक्ष्म भेद होता है।
    जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ ने यह टिप्पणी मध्यप्रदेश में एक सब इंस्पेक्टर की हत्या के दोषी ठहराए गए व्यक्ति की सजा को बदलते हुए की। पीठ ने दोषी को हत्या का दोषी न मानकर गैर इरादतन हत्या का दोषी ठहराया। साथ ही पीठ ने उसकी उम्रकैद की सजा को 10 साल की कैद में बदल दिया। पीठ ने कहा कि आईपीसी के लागू होने के बाद से पिछले डेढ़ सदी से लेकर अब तक अदालतों के समक्ष यह मसला बार-बार उठता रहा है कि हत्या इरादतन की गई या गैर इरादतन। इरादतन हत्या का अपराध आईपीसी की धारा 302 के तहत दंडनीय है जबकि गैर इरादतन हत्या आईपीसी की धारा 304 के तहत।



    पीठ याचिकाकर्ता मोहम्मद रफीक की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। रफीक ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने उसको दोषी ठहराते हुए उसकी उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा था। अपने फैसले में पीठ ने कहा कि कई जगहों पर गैर इरादतन हत्या के संबंध में संभावना शब्द का इस्तेमाल अनिश्चितता के तत्व को दिखाता है कि दोषी ने व्यक्ति की हत्या की हो सकती है या नहीं। आईपीसी की धारा 300 हत्या को परिभाषित करती है लेकिन संभावित शब्द के इस्तेमाल से बचती है। हालांकि अभियुक्त इस बात से पूरी तरह से अवगत होता है कि उसके कार्य के चलते मौत हुई।
    पीठ ने कहा कि अकसर हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच अंतर करना मुश्किल होता है क्योंकि दोनों में ही मौत होती है। इतना ही नहीं, दोनों ही अपराधों में शामिल मंशा और मालूम पड़ने के बीच एक सूक्ष्म भेद होता है। दोनों अपराधों के बीच मंशा और मालूम पड़ने की मात्रा काफी व्यापक होती है। पीठ ने कहा कि अभियोजन के अनुसार, पुलिस थाने को 9 मार्च 1992 को सूचना मिली कि एक ट्रक ने वन विभाग के बैरियर को तोड़ दिया और एक मोटरसाइकिल से जा भिड़ा।
    अभियोजन का आरोप है कि पुलिस टीम को अलर्ट किया गया और सब इंस्पेक्टर डीके तिवारी अन्य के साथ घटनास्थल पर पहुंचे। पुलिस का दावा है कि सब इंस्पेक्टर ने दोषी द्वारा चलाए जा रहे ट्रक को रोकने की कोशिश की लेकिन उसने रफ्तार बढ़ा दी। सब इंस्पेक्टर चलते ट्रक पर चढ़ गया और दोषी ने उसे धक्का दिया जिसके चलते सब इंस्पेक्टर गिर गया और बाद में उसकी मौत हो गई। घटना को अंजाम देने के बाद दोषी फरार हो गया था।
    पीठ ने कहा कि यदि अभियोजन की यह बात स्वीकार कर भी ली जाए कि दोषी ने सब इंस्पेक्टर को मारने की धमकी दी थी तो फिर कोई यह नहीं मान सकता है कि उसका मृतक को मारने का कोई मकसद या दुश्मनी थी। पीठ ने कहा कि क्या याचिकाकर्ता का सब इंस्पेक्टर तिवारी की हत्या का इरादा था? हमारा मानना है कि नहीं। यह साफ है कि उसे पता था कि सब इंस्पेक्टर ट्रक से गिर गया, वह ट्रक आगे बढ़ाता है। हालांकि यह साबित नहीं हुआ कि सब इंस्पेक्टर ट्रक के पिछले टायर की दिशा में गिरा था या फिर वह ट्रक से गिरा था। साथ ही यह भी सुबूतों से पता नहीं चलता है कि याचिकाकर्ता को सब पता था। ऐसे में उसे हत्या का दोषी ठहराना सही नहीं है।

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