नई दिल्ली । नारायण भाई देसाई (Narayan Bhai Desai) जीवन के आखिरी वक्त तक ‘गांधी कथा’ सुनाते रहे। जिस दिन वे ‘बा’ (कस्तूरबा गांधी) (Kasturba Gandhi) की मृत्यु की कथा सुनाने वाले होते थे, तो पहले ही श्रोताओं को आगाह कर देते कि ताली न बजायें। उस दिन वातावरण गमगीन रहता था। कथा सुनाते-सुनाते कई बार स्वयं नारायण देसाई भावुक हो जाते थे।
गुजरात विद्यापीठ (Gujarat Vidyapeeth) के चांसलर रहे नारायण देसाई ने ‘बा’ को जैसा देखा था, उन्हें उसी रूप में बताते थे। वे गांधी के सचिव (सहयोगी) महादेव देसाई के बेटे थे और ‘बा’ की देख-रेख में पले-बड़े थे। ऐसे में ‘बा’ को नजदीक से जानना उनके लिए स्वाभाविक बात थी। ‘गांधी कथा’ कहते हुए नारायण देसाई ‘बा’ के विषय में जो बताते थे, उससे मालूम होता है कि ‘बा’ जीवन महान था। स्वयं नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने गांधीजी को लिखे एक पत्र में कहा था, “बा भारतीय स्त्रीत्व का आदर्श थीं। शक्तिशाली, धैर्यवान, शांत और आत्मनिर्भर।”
खैर, बात 11 अप्रैल, 1869 की है। इसी दिन काठियावाड़ा के पोरबंदर (Porbandar) में कस्तूरबा (Kasturba) का जन्म हुआ था। तब कौन जानता था कि यह नाम एक दिन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का पर्याय बनने वाला है! लेकिन वही हुआ। पिता गोकुलदास मकनजी साधारण व्यापारी थे। कस्तूरबा जब छह साल की हुईं तो पिता ने मोहनदास से सगाई कर दी और 13 साल में विवाह कर दिया। कस्तूरबा की सामाजिक कार्यों में उनकी गहरी रुचि थी। भारत को लेकर उनका अपना सामाजिक दृष्टिकोण था।
आजादी की लड़ाई में उन्होंने कदम-कदम पर महात्मा गांधी का साथ निभाया। जब कभी अवसर आया तो अपने नेतृत्व के गुण से भी परिचय कराया।
एक घटना से यह बात साफ हो जाती है। बंबई के शिवाजी पार्क में महात्मा गांधी जनसभा होने वाली थी। सभा से एक दिन पहले 9 अगस्त 1942 को वे गिरफ्तार कर लिए गए। अब भाषण कौन दे? यह सवाल सामने था। तभी ‘बा’ सामने आईं। उन्होंने कहा कि परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। मैं सभा को संबोधित करूंगी।” वही हुआ। उनकी आवाज सुनकर पूरा वातावरण भावपूर्ण हो गया।
लेकिन, वही हुआ, जिसका डर था। भाषण खत्म होते ही पुलिस ने बा को गिरफ्तार कर लिया। फिर उन्हें पूना स्थित आगा खां पैलेस ले जाया गया, जहां महात्मा गांधी पहले से ही बंदी थे। वहीं ‘बा’ बीमार हो गईं। फिर स्वस्थ नहीं हो पाईं। हालांकि, ‘बा’ को बचाने की लाख कोशिश हुई। लेकिन, होनी को कुछ और मंजूर था।
वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं कि ‘बा’ को बचाने के आखिरी प्रयास के तौर पर उनके बेटे देवदास गांधी ने कलकत्ता से ‘पेनिसिलीन’ दवा मंगवाई। ‘पेनिसिलीन’ उस जमाने की नई ‘वंडर ड्रग’ थी। लेकिन जब गांधी को पता चला कि ‘पेनिसिलीन’ को कस्तूरबा को ‘इंजेक्ट’ किया जाएगा, तो उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी।
22 फरवरी 1944 को जब यह साफ हो गया कि कस्तूरबा के जीवन के कुछ ही घंटे बचे हैं, तो देवदास ने तीन बजे उनके होठों में गंगा जल की कुछ बूंदे टपकाईं। शाम 7.30 बजे कस्तूरबा ने अपनी अंतिम सांस ली। तब अंग्रेजी सरकार यह नहीं चाहती थी कि कस्तूरबा का अंतिम संस्कार सार्वजनिक रूप से हो। इस बात पर गांधी भी अड़ गए। उन्होंने कहा कि या तो पूरे राष्ट्र को कस्तूरबा के अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति दी जाए, या फिर वे अकेले ही उनका अंतिम संस्कार करेंगे।
खैर, ‘बा’ के पार्थिव शरीर को उनके दो बेटे, प्यारेलाल और स्वयं गांधी ने कंधा दिया। देवदास ने चिता में आग लगाई। कहते हैं कि गांधीजी तब तक चिता के सामने एक पेड़ के नीचे बैठे रहे, जब कि उसकी लौ पूरी तरह बुझ नहीं गई।
‘बा’ की मृत्यु के बाद सुभाष चंद्र बोस ने गांधीजी को पत्र लिखकर कहा था- ‘हिन्दुस्तान को एक निजी क्षति हुई है। इस महान महिला को जो हिन्दुस्तानियों के लिए मां की तरह थी, मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।’ ‘बा’ अपने पति के साथ संघर्ष की हर घड़ी खड़ी रहीं। उनके आंदोलन की पहली कार्यकर्ता के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया।
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved