नई दिल्ली। दुनिया के कई हिस्सों में गर्मी की मार पड़ रही है। इस लिहाज से एरिजोना चर्चा कुछ ज्यादा हो रही है। एरिजोना की राजधानी फीनिक्स फिलहाल अपने इतिहास की सबसे लंबी गर्मी की मार झेल रही है। यहां एक महीने से पारा लगातार 43 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा रहा है। इतनी ज्यादा गर्मी मनुष्यों के लिए घातक खतरा साबित हो सकती है। इस खतरे को समझने के लिए एक खास रोबोट को काम पर लगाया गया है। इंसान की तरह ही यह रोबोट गर्मी में पसीना बहाता है, इसे कंपकंपी छूटती है और यह सांस भी लेता है। इसे ‘एएनडीआइ’, यानी ‘एडवांस्ड न्यूटन डायनेमिक इंस्ट्रूमेंट’ नाम दिया गया है।
‘एएनडीआइ’ को एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में काम पर लगाया गया है। यह रोबोट अपनी तरह का पहला ‘ह्यूमनाइड’ रोबोट है। एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर कोनराड रेकाजेव्स्की के मुताबिक, ‘यह दुनिया का पहला तापवाही पुतला है, जिसे हम नियमित रूप से बाहर ले जा सकते हैं और माप सकते हैं कि उसे पर्यावरण से कितनी गर्मी मिल रही है।’ उन्होंने कहा कि ‘एएनडीआइ’ एक अच्छा तरीका है यह मापने का कि मनुष्य चरम जलवायु पर कैसे प्रतिक्रिया करता है, और वो भी बिना लोगों को जोखिम में डाले। रोबोट को पसीना कैसे आता है।
पहली नजर में यह एक साधारण दुर्घटनाओं का परीक्षण करने वाले डमी जैसा दिखता है। इसकी इपाक्सी/कार्बन फाइबर की त्वचा में तकनीक का खजाना छिपा है। उदाहरण के लिए आपस में जुड़े हुए सेंसर्स का एक नेटवर्क है, जो शरीर में फैली गर्मी का आकलन करता है। ‘एएनडीआइ’ में शरीर को ठंडा करने का एक अंदरूनी तंत्र है। त्वचा पर बारीक छिद्र भी हैं जो इसे सांस लेने और पसीना बहाने में मदद करते हैं।
यह रोबोट मनुष्यों की तरह ही अपनी पीठ से ज्यादा पसीना बहाता है। इसमें 35 स्वतंत्र थर्मल जोन हैं और इसको बनाने में पांच लाख डालर से अधिक की लागत आई है। अब तक इस प्रकार के लगभग केवल एक दर्जन रोबोट ही मौजूद थे और उनमें से किसी को भी बाहर नहीं ले जाया जा सकता था। इनका उपयोग मुख्य रूप से खेल का सामान बनाने वाली कंपनियों में होता था। ये कंपनियां इनके जरिए कपड़ों की तकनीक का परीक्षण करती थीं।
शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि यह रोबोट ‘हाइपरथर्मिया’ को बेहतर तरीके से समझने में मदद करेगा। ‘हाइपरथर्मिया’ शरीर की वह स्थिति है, जिसमें शरीर अत्यधिक गर्म हो जाता है। यह स्थिति जलवायु परिवर्तन के कारण ज्यादा सामने आ रही है। इसकी वजह से दुनिया के कई इलाकों में इंसानों पर खतरा मंडरा रहा है। रेकाजेव्स्की का कहना है कि मानव शरीर पर गर्मी के प्रभाव को अभी भी पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है।
‘एएनडीआइ’ शोधकर्ताओं को इसे समझने में मदद देगा। ‘एएनडीआइ’ और मार्टी (मीन रेडिएंट टेम्परेचर) फीनिक्स में पहली बार प्रयोगशाला के बाहर निकल रहे हैं। मार्टी एक मोबाइल मौसम स्टेशन है, जो आसपास की इमारतों से परावर्तित गर्मी को मापता है। यह एक आदर्श प्रयोगशाला है, जिससे भविष्य के जलवायु के लिए तैयारी की जा सकती है। रेकाजेव्स्की कहते हैं, ‘हम इन सवालों पर काम कर रहे हैं- व्यवहार के पैटर्न को कैसे बदलें और इस परिमाण के तापमान के अनुसार कैसे समायोजित करें?’
‘एएनडीआइ’ को अगिनत बार प्रोग्राम किया जा सकता है। परियोजना में शामिल जलवायु विज्ञानी जेनिफर वानोस बताती हैं कि शोध टीम आबादी के विभिन्न वर्गों को देखने के लिए रोबोट के डिजिटल जुड़वां बना सकती है। जलवायु परिवर्तन की दिशा में रोबोट के इस्तेमाल से वैज्ञानिक एक और शोध में जुटे हैं। रोबोट के जरिए वैज्ञानिकों ने हिमखंडों के पिघलने की प्रक्रिया को समझने की कोशिश की है। पेंसिल जितने पतले रोबोट की मदद से वैज्ञानिकों ने प्रलयंकारी हिमखंड का सबसे निचला हिस्सा देख लिया है।
पहली बार वैज्ञानिकों ने यह समझने की कोशिश की है कि क्या है जो इस हिमखंड को इस कदर खाए जा रहा है कि यह लगातार पिघल रहा है और समुद्र के जलस्तर को प्रलय के खतरे तक बढ़ाने को उतारू है। यह रोबोट बनाया है पोलर साइंटिस्ट ब्रिटनी श्मिट ने जो कारनेल यूनिवर्सिटी में काम करती हैं। वह कहती हैं कि वैज्ञानिकों ने डूम्सडे ग्लेशियर या थाटीज ग्लेशियर के नीचे वह जगह देखी, जहां यह तेजी से पिघल रहा है और टूट-टूट कर अलग हो रहा है। इससे पहले वैज्ञानिकों ने थाटीज पर इस जगह को नहीं देखा था और इस पूरी प्रक्रिया को भी इस तरह करीब से नहीं जाना था। आइसफिन रोबोट की मदद से वैज्ञानिक 1925 फुट गहरे छेद के नीचे पहुंच पाए और देखा कि किस तरह बर्फ की निचली परत टूट रही है। श्मिट कहती हैं कि यह परत सिर्फ पिघल नहीं रही है बल्कि टूट-टूटकर अलग हो रही है।
दुनिया के इस सबसे चौड़े हिमखंड को समझने के लिए पांच करोड़ डालर की मदद से बहुवर्षीय शोध परियोजना पर काम हो रहा है। इस हिमखंड का आकार अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत जितना है। इसे डूम्सडे ग्लेशियर नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि इस हिमखंड में इतनी बर्फ है कि अगर वो पूरी पिघल जाए तो समुद्र का जलस्तर दो फुट से ज्यादा बढ़ जाएगा और प्रलय जैसे हालात हो जाएंगे। हालांकि इसमें कई सौ साल लग सकते हैं। ए वरदान समझा जाने वाला प्लास्टिक अब दुनिया के लिए अभिशाप बन चुका है। जो न केवल पर्यावरण बल्कि इंसानी स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन चुका है।
धरती पर आज शायद ही कोई जगह हो जहां प्लास्टिक के अंश मौजूद न हों। यह कितना खतरनाक है इसका खुलासा एक शोध में किया गया है, जिसके मुताबिक प्लास्टिक में मौजूद केमिकल्स केवल इसी पीढ़ी को ही नहीं बल्कि अगली दो पीढ़ियों को भी प्रभावित कर सकते हैं।वहीं दिनों-दिन बढ़ते कचरे के बारे में ओईसीडी द्वारा जारी रिपोर्ट में सामने आया है कि अगले 37 वर्षों में यानी 2060 तक प्लास्टिक कचरे की मात्रा तीन गुणा बढ़ जाएगी। अनुमान है कि 2060 तक हर साल 100 करोड़ टन से ज्यादा प्लास्टिक कचरा पैदा होगा, जिसका एक बड़ा हिस्सा करीब 15.3 करोड़ टन बिना शोधन के पर्यावरण में मिल जाएगा।
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