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    नये बजट में शिक्षा के लिए प्रावधान नाकाफी हैं

  • February 09, 2023

    – गिरीश्वर मिश्र

    भारत का वर्ष 23-24 का राष्ट्रीय बजट अमृत-काल में प्रस्तुत हुआ पहला बजट है। इस अवसर का लाभ लेते हुए सरकार ने इसे भविष्य के शक्तिशाली और समर्थ भारत की आधारशिला के रूप में पेश किया है। इसके अंतर्गत जीवन के सभी क्षेत्रों की जरूरतों को स्पर्श करते हुए संसाधन उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। उथल-पुथल के वर्तमान दौर में वैश्विक स्तर पर आर्थिक दृष्टि से आत्म विश्वास से भरी एक बड़ी हैसियत बनती भारत की अर्थव्यवस्था निश्चय ही चकित करने वाली है। इस परिवर्तन को देख-सुन सभी भारतवासी खुश दिख रहे हैं।


    ‘विकासशील’ की श्रेणी से निकल कर ‘विकसित’ देशों की श्रेणी में पहुँचने के लिए बड़ी छलांग की तैयारी इस बजट में साफ़ झलक रही है। सबको संतुष्ट करने की चेष्टा के साथ गरीब, मध्य वर्ग, अमीर, किसान, व्यापारी, सरकारी मुलाजिम हर किसी की झोली में कुछ न कुछ पहुँचाने की क़वायद इस बजट की एक बड़ी खूबी है। विभिन्न क्षेत्रों में आधार-संरचना (इंफ़्रा स्ट्रक्चर) के संवर्धन के लिए प्रयासों में विस्तार और तेज़ी के संकेत नागरिक जीवन की सुविधाओं को बढ़ाने की दिशा में बड़े कदम हैं। इन सब प्रयासों में कुछ लोगों को आसन्न आम चुनाव की घंटी की गूंज सुनाई पड़ रही हो तो उसे सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार ने इस बजट में सचमुच सबको साधने की भरपूर कोशिश की है। आय कर में प्रस्तावित छूट का कई सालों से मध्य वर्ग खास तौर पर नौकरीशुदा लोगों को बेसब्री से इंतजार था। कृषि-क्षेत्र के लिए की गई घोषणाओं से खेती-किसानी की दुनिया में सकारात्माक परिवर्तन की आशा बंधती है।

    ‘विकास’ अभी भी हमारा मुख्य सरोकार है और दूर राज के गाँव को भी विकसित करने का लक्ष्य बना हुआ है। सारी भौतिक सुविधाएँ जुटा देना उसका ध्येय है। इस मुहिम में टेक्नोलॉजी एक इंजिन की तरह मुख्य भूमिका निभा रही है। व्यापार, वाणिज्य, शिक्षा, पर्यटन, स्वास्थ्य, कृषि प्रत्येक क्षेत्र में इस पर भरोसा करते हुए इसे बड़ी जिम्मेदारी दी जा रही है। इस प्रसंग में आज सब कुछ ‘डिजिटल’ होने की तैयारी में है। साइबर युग की दहलीज पर खड़े हम सबको डिजिटलीकरण करने में ही आज की हर समस्या की राम-बाण औषधि की झलक मिल रही है। निश्चय ही यह सब मनुष्यता की रक्षा और मानवता की सुख-शांति के संवर्धन के कल्याणकारी उद्देश्य को पाने के लिए किया जा रहा है।

    मनुष्य कल्पनाशील है और वह तरह-तरह की कल्पनाएँ करता रहता ‘एलेक्सा’ पीछे छूट गई। अब तो चैट-जीपीटी से पूछने पर हर समस्या का समाधान और हर प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। मनुष्य एक अंक बनता जा रहा है। उसकी संवेदना, उसके मूल्य, उसकी अस्मिता और उसकी संस्कृति आदि आदि जिसे ले कर मनुष्य होने के गौरव की अनुभूति होती है। वह सब कुछ जिसे लेकर सृष्टि चक्र में मनुष्य की प्राणिगत श्रेष्ठता का अहसास होता था अब अप्रासंगिक होता हुआ दिख रहा है। मनुष्य को निर्जीव चेतनारहित वस्तु या पदार्थ में तबदील करते हुए अनिश्चय, संशय और विकल्पों का दायरा सिमटता सिकुड़ता जा रहा है। सब कुछ पूर्वनिर्धारित और अतिनिश्चित हुआ जा रहा है। यह अलग बात है जो देश इस पद्धति पर आगे बढ़े हैं उनका अनुभव अंतत: आत्म घाती ही साबित हो रहा है। आज साल भर से रूस और यूक्रेन के युद्ध की विभीषिका इसी की ओर संकेत कर रही है। इनके चलते जो जीवन, प्रकृति और भौतिक सम्पदा का जान बूझ कर विनाश चल रहा है उसमें डिजिटल युग और कृत्रिम बुद्धि (आर्टीफ़िशियल इंटेलिजेंस) की बड़ी भूमिका है। विलक्षण बात यह है कि ज्ञान-विज्ञान की वीभत्स और विनाशकारी भूमिका का यह महादृश्य पश्चिम के सभी विकसित देशों के गहन आपसी सहयोग से विश्व रंग-मंच पर मंचित हो रहा है।

    यह एक विलक्षण अंतर्विरोध है कि जिस विषय का सम्बन्ध समाज के प्रत्येक वर्ग से हो और जो ज्ञानार्जन, संस्कृति , स्वास्थ्य, न्याय, तथा नागरिक दायित्व आदि के निर्वाह जैसे जीवन के लगभग सभी महत्वपूर्ण पक्षों को स्पर्श करता चलता हो नीतियों और कार्यक्रमों की दृष्टि से वरीयता सूची में कोई जगह ही न पा सके। आज भारत की पूरी शिक्षा प्रणाली के औचित्य और निष्पादन को लेकर चिंता बनी हुई है और शिक्षा पाने के लिए तैयार हो रहे अतिविशाल युवा वर्ग को लेकर व्याकुलता बनी हुई है। ऐसे में शिक्षा एक तदर्थ व्यवस्था यानी ‘ एडहाकिज्म’ की शिकार हुई जा रही है। इससे सक्रिय रूप से जुड़े छात्रों और अध्यापकों अन्य सहयोगी जनों की संख्या के अनुसार जिस अनुपात में ध्यान दिया जाना चहिए वह बहुत दिनों से नहीं हो पा रहा है। इस स्थिति के कई सम्भव कारण हैं। एक बड़ा कारण तो यही है कि शिक्षा में सुधार लाने के लिए धन की आवश्यकता होती है और वह अन्य मदों में चला जाता है। पर यह भी है कि आकस्मिक महत्व की फौरी घटनाएं तत्काल महत्व चाहती हैं और उन पर ध्यान देने के क्रम में सार्वकालिक महत्व की घटना विचार में आने से छूट जाती है। परंतु इस तरह की निरंतर उपेक्षा का संचित परिणाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समाज को ही भोगना पड़ता है।

    हमारे स्वीकृत आदर्श, नीति, कथनी और करनी इन सबमें अंतर बढता ही जा रहा है। हम शिक्षालय, शिक्षक और शिक्षार्थी की स्थिति को लेकर वादे करते रहते हैं पर कार्य योजना के स्तर पर दुविधाओं से ग्रस्त हैं। किसी नर्सरी और प्राइमरी स्कूल में प्रवेश से जो युद्ध शुरू होता है जीवन भर चलता रहता है। किसी अच्छे विद्यालय में बिना धन-बल और सिफारिश के बच्चे को दाखिला मिलना लगभग असम्भव हो चुका है और धन की मांग पर कोई प्रतिबंध नहीं है। सरकारी और गैर सरकारी विद्यालयों की तुलना करें तो गैर सरकारी (पब्लिक!) विद्यालयों का ही पलड़ा भारी है। शिक्षा के निजीकरण की मजबूत नींव यहीं पड़ती है।

    सम्भ्रान्त और सम्पन्न वर्ग के पास अनेक विकल्प होते हैं पर मध्य वर्ग और निम्न आय वर्ग हतप्रभ हो रहा है। बाल दिवस मनाया जाता है और मध्याह्न भोजन भी दिया जाता है पर क्षणिक सक्रियता के बाद सब कुछ ठंडा पड़ जाता है और मध्याह्न भोजन कितना अखाद्य हो रहा है इसकी कथाएं प्रतिदिन अखबारों में आती हैं। चूँकि दिखावा ही सही पर शिक्षा की उपेक्षा कथित रूप से संभव नहीं है इसलिए कोई न कोई कार्यक्रम चलता रहता है परंतु चूँकि शिक्षा ठीक से न दिए जाने से पैदा होने वाली हानि तत्काल लक्षित नहीं होती है, इसलिए किसी रचनात्मक पहल की जल्दी नहीं रहती है। यदि होती भी है राज्य द्वारा किसी व्यवस्था को आरोपित करने के रूप में होती है जो स्वीकृत और संचालित नहीं हो पाती है। बुरी तरह लड़खड़ाते ढांचे और उपयोगिता की दृष्टि से प्रश्नांकित, भारी भरकम और कालबाह्य विषय वस्तु और पद्धति के साथ जूझने की प्रक्रिया पूरे अध्ययन काल चलती रहती है। उच्च शिक्षा का अनियंत्रित विस्तार का एक परिणाम बेरोजगारों की फौज तैयार होना भी है। शिक्षा से पैदा होने वाले मानसिक तनाव के दुष्परिणामों के बारे में हम अक्सर पढ़ते रहते हैं। निजी क्षेत्र में शिक्षा का विस्तार जिस तरह हो रहा है उसके कई परिणाम हो रहे हैं। देश के निर्माण में शिक्षा की भूमिका की अनदेखी करने की प्रवृत्ति से उबरना जरूरी है।

    बहुत दिनों से देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जी डी पी का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की बात की जाती रही है। पर वास्तविकता यही रही की हम तीन प्रतिशत तक कभी भी नहीं पहुँच सके । 22-23 के बजट में यह 2.6 प्रतिशत रहा और इस बार भी हम यहीं हैं । सच्चाई यह भी है कि कोविड महामारी के दौरान शिक्षा की स्थिति और कमजोर हुई। उसके बाद शिक्षा क्षेत्र की जरूरत और बढ़ गई । खास तौर पर डिजिटल माध्यम ने बड़ा ध्यान खींचा। सच्चाई यही है जनसंख्या के भार को ढोने में शिक्षा का ढाँचा चरमरा रहा है और कार्यनिपुणता को बढ़ाने वाले शिक्षण की स्थिति ठीक नहीं है । 23-24 के बजट में पिछले बजट के मुकाबले स्कूली शिक्षा में 8 प्रतिशत और उच्च शिक्षा में 7.9 प्रतिशत आवंटन की वृद्धि की गई है जो सकारात्मक होने पर भी नाकाफी ही रहेगी।

    नए बजट में आम जनता को कुछ राहत मिलती दिख रही है, व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से कई सकारात्मक पहल भी हुई है और आर्थिक मोर्चे पर अच्छे संकेत भी हैं । इन सबका अच्छा असर पड़ना चाहिए परंतु शिक्षा में सुधार की दृष्टि से जो संकल्प लिए गए हैं उनके लिए और संसाधन ज़रूरी होंगे । दर्जा तीन से ही शिक्षा के आरम्भ के साथ ही विविधता पूर्ण शिक्षा की संकल्पनाओं को जो दक्षताओं पर बल देगी ज़रूरी होगा कि शिक्षण प्रशिक्षण को बेहतर बनाया जाय । इस महत्वाकांक्षी प्रस्ताव को अमली जामा पहनाने के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने होंगे । भविष्य के भारत के निर्माण के लिए निवेश मान कर सरकार को शिक्षा के लिए उदार होना होगा।

    (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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