भोपाल। मध्यप्रदेश की सियासत में सिंधिया राजवंश या राघौगढ़ राजघराने का दखल, दबदबा और हनक भले ही सबसे ज्यादा हो, लेकिन सूबे में छोटे-बड़े राजघरानों, रियासतों, जमींदारों और जागीरदार परिवारों का रसूख भी कम नहीं है। विधानसभा हो या लोकसभा चुनाव, इन सभी के नुमांइदे राजनीति के मैदान में उतरते और सफल होकर विधायक, मंत्री बनते रहे हैं। देश की आजादी के बाद राजा-रजवाड़े खत्म होने पर इनके परिवारों ने जनता पर शासन के लिए लोकतंत्र का रास्ता चुना। मध्यप्रदेश में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसके मद्देनजर दर्जनभर से ज्यादा रियासतों के मुखिया, वारिस चुनावी ताल ठोंकने के लिए हमेशा की तरह इस बार भी तैयार बैठे हैं। राजनीतिक दल भी जनता के बीच पैठ रखने वाली छोड़ी-बड़ी रियासतों के जिताऊ नुमांइदों पर निगाहें लगाए बैठे हैं।
1 नवंबर 1956 को मप्र के गठन के बाद से पहली विधानसभा से लेकर अब तक 15वीं विधानसभा के सदस्यों की सूची पर नजर डालें, तो पाएंगे कि बड़ी संख्या में राजपरिवारों के लोग चुनकर सदन में पहुंचते रहे हैं और विधायक, मंत्री ही नहीं मुख्यमंत्री भी बनते रहे हैं। उदाहरण के लिए चुरहट राजघराने के अर्जुन सिंह और राघौगढ़ राजघराने के दिग्विजय सिंह ने तो डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए सूबे पर राज किया है। महलों से निकलकर राजनीति में आए रामपुर बघेलान के गोविंद नारायण सिंह भी मुख्यमंत्री रहे। इसी तरह अविभाजित मप्र में सारंगढ़ राजघराने के गोंड राजा नरेशचंद्र भी 13 दिन ही सही, लेकिन मप्र के मुख्यमंत्री रहे।
सियासत में ताल ठोंकने वाली रियासतें
राघौगढ़ और सिंधिया राजघरानों के अलावा रीवा, नरसिंहगढ़, चुरहट, खिलचीपुर, देवास, दतिया, छतरपुर, पन्ना, मैहर, हरसूद, मकड़ाई, नागौद, खरगापुर, धार जैसी छोटी-बड़ी रियासत परिवार, उनके वारिस की चुनावी राजनीति में हाथ आजमाते हुए मंत्री, विधायक, सांसद बनते रहे हैं। मसलन रीवा राजघराने के राजा मार्तण्ड सिंह और उनके बाद बेटे पुष्पराज सिंह कांग्रेस में हैं, तो बेटे दिव्यराज सिंह भाजपा में हैं। पुष्पराज सिंह तो दिग्विजय शासनकाल में मंत्री भी रह चुके हैं और कई बार पार्टी भी बदल चुके हैं।
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