नई दिल्ली: हरियाणा (Haryana) विधानसभा चुनाव के नतीजों का एक स्पष्ट संकेत है. इसे भाजपा (BJP) महसूस कर रही है. विपक्षी गठबंधन (Opposition Coalition) इंडिया का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस (Congress) को अब भी यह संकेत समझ में नहीं आ रहा. कांग्रेस को लगता है कि नतीजे में कोई खेल हुआ है. इस मुद्दे पर कांग्रेस की सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) जाने की भी तैयारी है. हालांकि हरियाणा के नतीजों में खेल की आशंका इसलिए खारिज कर देनी चाहिए कि कर्नाटक, पश्चिम बंगाल या उन राज्यों में जहां गैर भाजपा दलों या गठबंधन की जीत होती है तो विपक्ष को कोई खोट नजर नहीं आती है. पर, जहां विपक्षी पार्टियां हारती हैं, वहां ठीकरा चुनाव आयोग (Election Commission) और ईवीएम पर फोड़ना फैशन हो गया है.
आधिकारिक तौर पर घोषित चुनाव परिणामों पर सवाल भले उठें, लेकिन उसे स्वीकार करने की तो हर किसी की मजबूरी है. अब इन परिणामों का संकेत समझने की जरूरत है. कांग्रेस को यह समझ लेना चाहिए कि हड़बड़ी में किसी कमाल की उम्मीद उसे नहीं करनी चाहिए. कामयाबी के लिए उसे गलतबयानी या अफवाहों की बजाय सच्चाई के साथ चुनाव मैदान में उतरने की जरूरत है. झूठ एक बार चकाचौंध तो पैदा कर सकता है, लेकिन उसकी उम्र लंबी नहीं होती. दूसरा कि इंटरनेट के जमाने में देश की जनता घरेलू और विश्व की हर राजनीतिक घटना पर नजर रखती है. जनता देख रही है कि जिन देशों ने तुष्टिकरण की राह पकड़ी, आज वे किस तरह की समस्या का सामना कर रहे हैं. मुस्लिम तुष्टिकरण लगातार उनके लिए नुकसानदायक साबित होते रहे हैं, लेकिन कांग्रेस अब भी चेतने के बजाय अपने पुराने अंदाज को बदलने को तैयार नहीं.
कांग्रेस में पीएम पद के शाश्वत उम्मीदवार राहुल गांधी विदेशों में जाते हैं तो उनकी जुबान अपने ही देश के खिलाफ कैंची की तरह चलती है. बांग्लादेश में हिन्दुओं पर जुल्म के खिलाफ कांग्रेस के नेता नहीं बोलते, बल्कि भारत में इसकी आवृत्ति का अंदेशा जताते हैं. मुस्लिम कम्युनिटी को तो कांग्रेसी ऐसे रिझाते हैं, जैसे उसके बिना पार्टी का अस्तित्व ही नहीं बचेगा. कांग्रेस नेताओं को लगता है कि ऐसा कहने या करने से उनको कामयाबी मिल जाएगी. वे भाजपा को शिकस्त दे देंगे. वे भूल जाते हैं कि पहले भी तुष्टिकरण की कोशिशें कांग्रेस ने जब-जब कीं, उसे मुंह की ही खानी पड़ी है.
मुस्लिम तुष्टिकरण ने कांग्रेस को बड़ा नुकसान पहुंचाया है. यह कांग्रेस के लोग जानते भी हैं. पर, क्षेत्रीय दलों के तर्ज पर उनकी जातीय या धार्मिक गोलबंदी को कांग्रेस कामयाबी का मूल मंत्र मानने से पीछे नहीं रहती. कांग्रेस को इससे नुकसान तो 1989 से ही होने लगा था, जब शाह बानो मामले में कांग्रेस राजीव गांधी के दबाव पर मुस्लिम तुष्टिकरण में लग गई थी. कांग्रेस का पराभव भी तभी से शुरू हुआ, जो अब तक जारी है. शाह बानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदला गया. अयोध्या में राम मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त हो जाने के बाद भी कांग्रेस इसमें अड़चन बनी रही. राहुल गांधी संसद में ईश्वर के नाम पर शपथ नहीं लेते. इतना ही नहीं, अयोध्या में राम लला के दर्शन को जुटने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ को राहुल नाच-गान जैसे मनोरंजन की संज्ञा देते हैं.
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस की बुरी हार हुई तो सोनिया गांधी ने इसके कारणों का पता लगाने के लिए एके एंटोनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी. एंटोनी ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि मुस्लिम तुष्टिकरण का खामियाजा कांग्रेस को भोगना पड़ा है. ब्राह्मण कांग्रेस के पारंपरिक वोटर माने जाते रहे हैं. उन्होंने भी कांग्रेस से किनारा कर लिया. दूसरी हिन्दू जातियां भी कांग्रेस से इसीलिए खफा होकर भाजपा की मुरीद हो गईं कि भाजपा ने बहुसंख्यक की चिंता की. नतीजतन कांग्रेस लगातार सिकुड़ती गई. वर्ष 1977 की तरह विपक्षी दलों की मजबूत गोलबंदी के बवजूद कांग्रेस अगर लोकसभा चुनाव में तीन अंकों की संख्या तक भी नहीं पहुंच पाई तो तुष्टिकरण ही इसकी बड़ी वजह है. कांग्रेस ने एंटोनी की फाइंडिंग से भी कुछ नहीं सीखा और उसी लीक पर आज भी चल रही है, जिससे उसे नुकसान होता है.
©2025 Agnibaan , All Rights Reserved