मोहन सिंह
कोरोना काल में लगातार दूसरे साल किसानों की दुश्वारियां बढ़ रही हैं। अभी गांव पूरी तरह कोरोना की चपेट में नहीं आये हैं। पर आवाजाही पर लगी रोक, सरकारी खरीद में तमाम तरह की पाबंदियां, कृषि पैदावारों की घटती मांग ने किसानों की कमर तोड़ दी है। आज फसल के खलिहान से घर आने के बाद किसानों मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं।
पहली मुसीबत तो यह कि कोरोना काल में किसानों की पैदावार पर लगी रोक की वजह से किसानों को वाजिब दाम नहीं मिल रहा है। सरकारी खरीद के काम में इस साल इतनी पाबंदियां हैं कि किसानों को औपचारिकताएं पूरा करने में ही दम निकल जाये। सरकारी मुलाजिम बताते हैं कि ये सारी बंदिशें इस साल भारतीय खाद निगम की ओर से लगायी गयी हैं। यह उस उत्तर प्रदेश की हालत है, जो व्यपारिक सुगमता के लिहाज से देश में दूसरे नम्बर पर है। भारत सरकार की मुख्य खरीद एजेंसी ऐसी तमाम अड़चनें शायद इसलिए पैदा कर रही हैं कि उसे किसानों के कम से कम पैदावार खरीदने पड़े। क्योंकि उसके अपने गोदाम अनाज से भरे हैं। सरकार के पास अनाज का इतना ज्यादा बफर स्टॉक है कि अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये दो साल तक मुफ्त में अनाज लोगों में बांटे जाएं तब भी पर्याप्त भंडारण की व्यवस्था है।
सरकार की ओर से यह सवाल बार-बार सामने आ रहा है और खेती को निजी हाथों सौंपने के पैरोकार भी यह दावा करते ही हैं कि सरकार का मुख्य काम किसान की पैदावार की खरीद, उसके सुरक्षित रखरखाव और बिक्री अथवा निर्यात की व्यवस्था करना है या कुछ और? इस कुछ और के सवाल ने ही सरकार की सोच और पिछले छह महीने से चल रहे किसान आंदोलन के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर दी है। मसलन यह कि जैसा किसान आंदोलन के नेता दावा कर रहे हैं कि वे अनाज को तिजोरी में कैद नहीं होने देंगे। भारत सरकार अपनी ओर से किसानों नेताओं को आश्वस्त करने में अबतक विफल रही है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की पैदावार की खरीद की गारंटी देने को तैयार है। सरकार हर साल तेइस तरह के अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है। इस समर्थन मूल्य पर भी पूरे देश में महज सात से आठ फीसद किसानों के पैदावार की खरीद होती हैं। बाकी खरीद स्थानीय साहूकारों, बनियों के जरिये ही होती है।
मतलब यह कि आजतक पूरे देश में किसानों की पैदावार खरीदने की कोई मुकम्मल व्यवस्था पंजाब और हरियाणा को छोड़कर अन्य प्रदेशों में नहीं हो पायी है। इस वजह से सरकार विपणन और खरीद का काम निजी हाथों में सौंपने का मन बना चुकी है। सरकारी एजेंसियों को किसानों के अधिकतम पैदावार नहीं खरीदने पड़े, इस वजह से तमाम पाबंदियां लगायी जा रही हैं। उसके लिए जमीन तैयार करने का उपक्रम इस साल कोरोना काल में प्रकट रूप से शुरू हो चुका है। एक ऐसे समय में जब कोरोना महामारी में लाखों जिंदगियां असमय काल कवलित हो गयी। हर किसी ने अपने किसी खास को खोया है। ऐसे वक्त ही गरीब, किसान बेसहारों को सरकार की मदद की दरकार होती है। सरकारों को गरीब परस्त और किसान परस्त होने का सबूत भी ऐसे ही वक्त देना होता है।
निजी पूँजी ऐसे वक्त गरीबों के कल्याण के बजाय अपने मुनाफे पर ही ज्यादा ध्यान देती हैं। इसका असली चरित्र कोरोना काल में परत दर परत उजागर हो रहा है। खासकर जीवनरक्षक दवाओं के जमाखोरी के मामलों में। उन औघोगिक घरानों से यह उम्मीद करना बेमानी होगी कि वे किसानों के मेहनत की पैदावार के वाजिब दाम देंगे। फिर किसान जाएं तो कहां? जिस देश में सत्तर फीसद आबादी खेती और खेती से जुड़े काम लगी है। जिस देश में खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था अनुमानतः लगभग पच्चीस लाख करोड़ रुपये की है। पिछले साल जब देश के कुल घरेलू उत्पाद में लगभग बाईस फीसद की गिरावट दर्ज की गयी। उस वक्त भी कृषि सेक्टर ही ऐसा रहा, जहां कोरोना की मार का दंश नहीं झेलना पड़ा और 2.4% की वृद्धि दर्ज हुई।
ऐसे समय में जब कोरोना की दूसरी लहर ज्यादा खौफनाक रूप में सामने रही है, जरूरत है सरकार को आगे बढ़कर किसानों के हाथ थामने की। विडंबना देखिए कि इस विकट स्थिति में निजी कंपनियां तो किसानों की पैदावार वाजिब दाम पर खरीदने में आनाकानी कर ही रही हैं, सरकार भी तमाम तरह की बंदिशें लगाकर सरकारी खरीद से हाथ खींच रही है। सबसे बुरा हाल उन लगभग 88% सीमांत और बटाईदार किसानों का है, जिनके ज्यादा पैदावार ही जी का जंजाल बन गयी है। कारण यह कि अपनी पैदावार की बिक्री के लिए ऐसे किसानों को खतौनी समेत तमाम दूसरी औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ रही हैं जो उनके बूते के बाहर हैं। वे उन खेत मालिकों के दरवाजे रोज दस्तक दे रहे, ताकि किसी तरह उनकी पैदावार की सरकारी बिक्री हो जाएं। ताकि वक्त पर वे अपनी मालगुजारी और दूसरे देनदारियों से मुक्त हो सकें।
पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार ने सीमित स्तर ही सही, पर बटाईदार किसानों के लिए थोड़ी सहूलियत दी थी। पर इस साल इसकी कोई गुंजाइश नहीं दिख रहीं है। उड़ीसा सरकार ने अपने बटाईदार किसानों को वे सारी सुविधाएं उपलब्ध करायी हैं, जो मूल किसानों को हासिल हैं। मसलन प्राकृतिक आपदा के वक्त सरकार से मिलने वाली रियायतें ज्यादातर राज्यों में मूल किसानों को ही मिलती हैं। बटाईदारों को नहीं, जबकि वास्तविक नुकसान खेती करने वाले इन किसानों का ही होता है। पर उड़ीसा सरकार वे सारी सुविधाएं बटाईदार किसानों को भी मुहैया करवायी हैं। एक किसान हितैषी होने का दावा करने वाली किसी भी सरकार को इन किसानों के हक में जरूर कानून बनाना चाहिए।
अब किसानों की लागत का जायजा लें, जो एक किसान को जमीन की मालगुजारी, जोताई बुवाई, सिंचाई, खाद, किसान और उसके परिवार की मेहनत के रूप में निवेश करना पड़ता है। यह सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण का असली आधार होना चाहिए। पर ऐसा होता नहीं। मसलन खेत की जुताई से लेकर सिंचाई, आनाज की ढुलाई के काम में जिस डीजल का उपयोग होता है, उसमें पिछले साल के मुकाबले इस साल 21 रुपये से 22 रुपये की बढ़ोतरी हुई है। सवाल है कि इसकी तुलना में न्यूनतम समर्थन मूल्य में कितनी वृद्धि हुई? सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं। अभी गनीमत है कि खरीफ की बुआई के पहले सरकर ने डीएपी पर 137%सब्सिडी का ऐलान किया है। शायद किसानों के बढ़ते प्रतिरोध को शांत करने की मंशा से। सरकारी खजाने पर इससे 14,775 करोड़ का बोझ पड़ेगा। बता दें कि अपने देश में हर साल 350.42 लाख टन यूरिया और 119.13 लाख टन डीएपी खाद की खपत होती है। सरकार के इस ऐलान से खरीफ की बुआई से पहले किसानों को कुछ राहत की उम्मीद जगी है।
इस बीच धरनारत किसानों ने भी प्रधानमंत्री से नये सिरे से बातचीत की पेशकश की है। एक ऐसे समय में जब देश के लगभग 90 फीसद हिस्से में लॉकडाउन है। सेंटर फॉर मॉनिटएरिंग इंडियन इकोनामी के अनुमान के मुताबिक ग्रामीण इलाके में बेरोजगारी बढ़कर 14.34% और शहरी इलाके में 14.7% हो गई। पिछले साल लॉकडाउन के दौरान 12.2 करोड़ लोगों की नौकरियां खत्म हुई। अब कोरोना की तीसरी लहर की सूचना ने निवेश की सम्भावना को भी खत्म कर दिया है। भारत जैसे देश में जहां खेती-किसानी और ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के जल्दी बेहतर और टिकाऊ रोजगार के अवसर परम्परागत रूप से कृषि और ग्रामीण आधारित उद्योगों में उपलब्ध होते रहे हैं। सरकारों को खेती-किसानी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नये सिरे से नयी तकनीक में निवेश की ओर ध्यान देना चाहिए, ताकि कोरोना काल के बाद पटरी से उतर गयी जीवन की राह सुगम हो और लोगों की ज़िंदगी में उम्मीद की नयी की कपोलें फूटें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)