नई दिल्ली: कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के नतीजे को लेकर शायद ही भ्रम हो पर शशि थरूर को कितने वोट मिलते हैं, इसे लेकर लोगों में उत्सुकता है. बिना औपचारिक घोषणा के भी मलिकार्जुन खड़गे को गांधी परिवार का उम्मीदवार माना जा चुका है, इसलिए उनकी जीत नाम की घोषणा के साथ प्रायः सुनिश्चित मान ली गई है. दिलचस्प है कि अगर कांग्रेस के अध्यक्ष पद के इस चुनाव में खड़गे की जीत पर संदेह नहीं है तो इसी के साथ यह भी निर्विवाद है कि पार्टी पर गांधी परिवार का दबदबा आगे भी कायम रहेगा. चुनाव की नौबत तो मजबूरी में आई है.
पार्टी में एक सुर से मांग थी कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी फिर से संभाल लें. उन्हें मनाने की कोशिशें 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद उनके इस्तीफे के समय से ही चल रही थी. ये सिलसिला चुनाव कार्यक्रम की घोषणा और नामांकन के समय तक चलता रहा. खरगे तो परिवार के उम्मीदवार ही हैं लेकिन थरूर ने भी अपनी उम्मीदवारी की घोषणा के पहले सोनिया गांधी से भेंट करके जाहिर कर दिया था कि उनके चुनाव लड़ने का मतलब किसी रूप में गांधी परिवार को चुनौती न माना जाए.
अध्यक्ष कोई हो , पार्टी सिर्फ गांधी परिवार की ओर देखेगी
अब जब गांधी परिवार के बाहर का अध्यक्ष होना तय हो चुका है तो अध्यक्ष की सीमाओं को लेकर सवाल हो रहे हैं. क्या उसे गांधी परिवार के रिमोट से चलना होगा ? जाहिर है कि इसका जबाब नकारात्मक ही मिलना था और राहुल गांधी ने वैसा ही उत्तर दिया. वास्तविकता क्या है ? मतदाता क्या फैसला देते हैं, यह अलग मुद्दा है. लेकिन पार्टी के एक छोटे से वर्ग को छोड़कर बड़े से छोटे नेताओं तक की उम्मीदों का पहला और आखिरी केंद्र गांधी परिवार है. पार्टी पर परिवार की पकड़ और प्रभाव पर कोई सवाल नहीं है. ऐसे में अध्यक्ष पद पर कोई भी आसीन हो, इससे परिवार के प्रति निष्ठा रखने वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वे पार्टी से जुड़े मसलों पर सिर्फ और सिर्फ गांधी परिवार की इच्छा और इशारों को समझेंगे, मानेंगे और उसी का अनुकरण करेंगे.
जब पार्टी परिवार के पीछे तो अध्यक्ष उससे भिन्न कैसे होंगे ?
इसे मान लेना चाहिए कि राहुल गांधी और उनके परिवार ने अच्छी मंशा और खुले मन से अध्यक्ष पद पर गांधी परिवार से इतर व्यक्ति को आसीन होने का अवसर दिया है.लेकिन जब कमोवेश पूरी पार्टी गांधी परिवार के पीछे चल रही है तो क्या अध्यक्ष उससे भिन्न कुछ सोच सकते हैं? जब पार्टी के हर छोटे बड़े नेता और कार्यकर्ता को राहुल, सोनिया और प्रियंका गांधी के निर्देश का इंतजार रहेगा तो क्या अध्यक्ष को अपनी असली ताकत का आभास नहीं होगा? संगठनात्मक ढांचे में भले शीर्ष पद अध्यक्ष का हो लेकिन चुनावी राजनीति में अहमियत जनता के बीच पहचाने जाने वाले चेहरे की होती है. बेशक राहुल गांधी की अगुवाई में चुनाव दर चुनाव पार्टी की पराजयों का सिलसिला चल रहा है लेकिन कांग्रेस की ओर से जनता के बीच पहचाने जाने वाला और भीड़ खींचने वाला चेहरा अभी भी यही परिवार है. विफलताओं के बाद भी न पार्टी उनसे नाउम्मीद है और न ही राहुल – प्रियंका के हौसलों में कोई कमी है.
तब परिवार के लिए केसरी को हटाया था
1998 में सोनिया गांधी को पदासीन करने के लिए कांग्रेस के तत्कालीन निर्वाचित अध्यक्ष सीताराम केसरी को बहुत ही अपमानजनक तरीके से हटाया गया था. 22 वर्ष के अंतराल पर अध्यक्ष पद का चुनाव इसलिए हो रहा है क्योंकि परिवार के वारिस राहुल गांधी की अध्यक्ष पद या उसकी जिम्मेदारी में दिलचस्पी नहीं है. लेकिन अध्यक्ष पद छोड़ने का मतलब , पार्टी की बागडोर छोड़ना नहीं है. इसलिए इस चुनाव में अगर खरगे ऑफिशियल या गांधी परिवार का उम्मीदवार बताए जा रहे हैं तो उसमे कुछ अजूबा नहीं है. अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने में असमर्थता दिखाने का मतलब जनता के बीच पार्टी की अगुवाई से इंकार नहीं है और उस अगुवाई के औपचारिक संदेश के लिए पार्टी पर नियंत्रण जरूरी है. इसके लिए अनुकूल अध्यक्ष भी चाहिए. किसी वफादार की जरूरत थी और खरगे इस कसौटी पर खरे उतरते हैं.
अपनी पदयात्रा से चर्चा के केंद्र में हैं राहुल गांधी
राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष पद के चुनाव से भले दूर हों लेकिन यह चुनाव ऐसे अवसर पर हो रहा है, जब अपनी पदयात्रा के कारण वे चर्चा के केंद्र में हैं. केरल से शुरू हुई उनकी यात्रा फिलहाल कर्नाटक में है. वे एक हजार किलो मीटर से अधिक चल चुके हैं और ढाई हजार किलोमीटर की दूरी उन्हें और तय करनी होगी. इस यात्रा का फलितार्थ राज्यों या 2024 के लोकसभा के चुनाव के मौके पर पता चलेगा लेकिन रास्ते में या फिर सभाओं और रैलियों में उमड़ती भीड़ और जोरदार स्वागत ने राहुल गांधी और पार्टी का हौसला काफी बढ़ाया है. ये भीड़ पार्टी के पस्त नेताओं और कार्यकर्ताओं को उत्साहित कर रही है और वे इसमें कांग्रेस की वापसी का संदेश पढ़ – सुन रहे हैं.
पदयात्रा कर रही है कांग्रेसियों को उत्साहित और बढ़ा रही हैं राहुल से उम्मीदें
इस लंबी पदयात्रा के जरिए राहुल गांधी अपने राजनीति जीवन के सबसे महत्वाकांक्षी अभियान पर हैं. वे पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए पसीना बहा रहें हैं. उनके इस परिश्रम में उन इलाकों के कांग्रेसी या शुभचिंतक जुड़ रहे हैं, जिधर से उनकी यात्रा गुजर रही है. देश के बाकी हिस्सों के कांग्रेसी भी उत्साहित हैं. पदयात्रा के अनुभवों का पार्टी को लाभ मिल सके , इसकी कोशिश रहेगी. इस कोशिश का लाभ जनता के बीच पहचाने जाने वाले चेहरे से ही मुमकिन होगा. यकीनन यह चेहरा कांग्रेस के अध्यक्ष का नहीं होगा. पार्टी का चेहरा गांधी परिवार या फिलहाल राहुल गांधी हैं. इस स्थिति में पार्टी के अध्यक्ष को उनसे समन्वय बनाना होगा. अध्यक्ष कितना सक्षम है, यह अध्यक्ष के काम काज से नहीं तय होगा, बल्कि राहुल या सोनिया, प्रियंका उन्हें कितना स्पेस देते हैं, इस पर निर्भर करेगा.
जिन्हें शिकायत वे किनारे हुए
चुनाव प्रचार के दौरान शशि थरूर ने खरगे को यथास्थिति का प्रतीक बताया तो खुद की उम्मीदवारी को परिवर्तन से जोड़ा. वे किस यथास्थिति का जिक्र कर रहे हैं? पार्टी की मौजूदा कार्यशैली उसके नेतृत्व की देन हैं. 22 वर्षों से यह नेतृत्व सोनिया या राहुल गांधी का रहा है। बहुसंख्य कांग्रेसियों को उनके नेतृत्व से कोई शिकायत नहीं है. पार्टी के लगातार सिकुड़ने के बाद भी उनकी नेतृत्व क्षमता या कार्यशैली पर कोई सवाल नहीं है. जिन्होंने सवाल खड़े किए या तो उनके रास्ते अलग हो गए या हाशिए पर चले गए. वोटों की गिनती थरूर को बताएगी कि पार्टी को किसी परिवर्तन की जरूरत नहीं है.
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