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    सार्वजनिक जीवन में मर्यादा की जरूरत

  • July 27, 2022

    – गिरीश्वर मिश्र

    देश को स्वतंत्रता मिली और उसी के साथ अपने ऊपर अपना राज स्थापित करने का अवसर मिला। स्वराज अपने आप में आकर्षक तो है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके साथ जिम्मेदारी भी मिलती है। स्वतंत्रता मिलने के बाद आजादी का स्वाद तो हमने चखा पर उसके साथ की जिम्मेदारी और कर्तव्य की भूमिका निभाने में ढीले पड़ कर कुछ पिछड़ते गए। देश को देने की जगह शीघ्रता और आसानी से क्या पा लें, इस चक्कर में भ्रष्टाचार, भेद-भाव तथा अवसरवादिता आदि का असर बढ़ने लगा। इसीलिए देश के आम चुनाव में कई बार भ्रष्टाचार एक मुख्य मुद्दा बनता रहा। देश की जनता उससे मुक्ति पाने के लिए वोट देती रही है। परन्तु परिस्थितियों में जिस तरह का बदलाव आता गया है उसमें देश की राजनीतिक संस्कृति नैतिक मानकों के साथ समझौते की संस्कृति होती गई। आज की स्थिति में धनबल, बाहुबल, परिवारवाद के साथ राजनीति के किरदारों की अपराध में संलिप्तता किस जोर-शोर से बढ़ती जा रही है वह चिंता का विषय हो रहा है।

    भारत में अब तक हजारों करोड़ रुपये के घोटाले हो चुके हैं। इन सबके पीछे यही बात समझ में आती है कि आचार में खोट आने पर हर किस्म की गिरावट की राह खुल जाती है। यही ध्यान में रख कर आचार अर्थात अच्छी तरह व्यवहार करने का तौर-तरीका परम धर्म यानी सबसे बड़ा धर्म या नियम के रूप में पहचाना गया है। आचार सबसे बड़ा तप है, सबसे बड़ा ज्ञान है। आचार हो तो जीवन में सब कुछ सध जाता है। सदाचार और चरित्र की बड़ी महिमा गाई जाती रही है। जीवन में नैतिकता की शुरुआत करने, उसकी अभिव्यक्ति और उसे बनाए रखने में आचार का बड़ा योगदान होता है और आचार का सबसे प्रकट पहलू है, दूसरों के साथ पेश आते वक्त हमारे बातचीत के ढंग और व्यवहार। इस सन्दर्भ में भारतीय संसद आजकल चर्चा में है जहां असंसदीय शब्दों के प्रयोग और आचार को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। इनको लेकर विपक्ष अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के आरोप लगा रहा है। वैसे तो संसद के दोनों ही सदनों में संवाद करने की व्यवस्था पूर्वस्वीकृत है और उनकी अपनी-अपनी परम्पराएं हैं परन्तु उनको दरकिनार रख सारी सीमाओं को लांघते हुए यदि अभद्र शब्दावली और लहजे का प्रयोग किया जाए और अमर्यादित व्यवहार हो तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।

    यह बड़े ही खेद की बात है कि विगत कई वर्षों में रैलियों, जनसभाओं, रोड शो आदि के दौरान सार्वजनिक मंचों पर नेतागण बेलगाम होकर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से नहीं चूकते। कई बार तो अफवाह फैला कर लोगों को दिग्भ्रमित करने लगते हैं। मीडिया पर होने वाली चर्चाओं खास कर टीवी न्यूज चैनलों में एक-दूसरे पर जिस तरह व्यक्तिगत रूप से आपत्तिजनक आक्षेप लगने लगे हैं,वे भ्रम, पारस्परिक वैमनस्य और विद्वेष को ही बढ़ाते हैं। कहना न होगा कि इस तरह के कई मामलों में उनके भयानक परिणाम भी सामने आ रहे हैं और सामाजिक सौहार्द खतरे में पड़ने लगा है। दूसरों को अपने से हेठा समझ कर बातचीत करते समय उनको पीड़ा और हानि पहुंचाना तथा प्रताड़ित करना मनुष्यता के अनुरूप नहीं होता।

    भारत वर्ष की संसद सार्वजनिक जीवन में विचार-विमर्श के लिए उच्चतम वैधानिक संस्था है, जहां माननीय सारे देश के लिए नियम-कानून बनाते हैं और जरूरत पड़ने पर उसे बदलते भी हैं। यह उनकी स्वाभाविक जिम्मेदारी बनती है कि वे व्यवहार में विवेक का उपयोग करें और लोक-कल्याण की रक्षा करें। भारतीय संसद के दोनों सदन ‘सभा’ कहे जाते हैं। सभा शब्द का अर्थ होता है सभ्यजनों का समुदाय। सभ्य वही होता है जो सत्य बोले और सदाचार करे। इस तरह संसद सभ्य लोगों का समुदाय है। संसद में किस तरह वाद, विवाद और संवाद किया जाए इसकी सर्वमान्य पद्धति स्वीकृत है जिसके अंतर्गत विपक्ष की भूमिका में सत्ता-पक्ष की आलोचना और विरोध की विधान-सम्मत सर्व-स्वीकृत जगह है। ऐसा करना हर तरह से जायज भी ठहरता है। वस्तुत: यह एक स्वस्थ परम्परा है जो किसी भी लोकतंत्र की व्यवस्था के संचालन के लिए एक अनिवार्य जरूरत होती है। इसलिए उसे होना ही चाहिए ताकि सत्तापक्ष पर अंकुश रहे और उसके दायित्व की याद बनी रहे। यह गौरवशाली परम्परा भारत में रही है परन्तु अब स्थितियां बदल रही हैं। यह

    दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि लोकसभा और राज्यसभा में तार्किक चर्चा और सार्थक विचार-विनिमय की जगह सभाकक्ष के भीतर स्वच्छ धवल वस्त्र में अलंकृत माननीयों द्वारा जिस तरह की अनर्गल टिप्पणी, शोर-शराबा, छीना-झपटी, तोड़फोड़ के अलावा सभाध्यक्ष के साथ अभद्र व्यवहार करने की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह लज्जाजनक है। सदन के भीतर हंगामें के दृश्य आए दिन दिखाई पड़ने लगा है। ऐसा लगता है कि संसद के कार्य में बाधा पैदा करते हुए उसकी कार्यवाही को सुचारु रूप से न चलने देना ही विपक्ष का धर्म होता जा रहा है। इस अव्यवस्था के कई प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम होते हैं। संसद के सत्र के चलने में प्रति मिनट लगभग ढाई लाख रुपये खर्च बैठता है। ताजा आंकड़ों के अनुसार लोकसभा में कुल बानबे घंटों की अवधि में माननीयों द्वारा उपस्थित किए गए व्यवधान के फलस्वरूप लगभग एक सौ चवालीस करोड़ रुपये की आर्थिक हानि हुई। व्यवधान पड़ने के कारण बहुत सारे वैधानिक कार्य हंगामे की बलि चढ़ जाते हैं। इनसे कई काम रुक जाते हैं और जरूरी निर्णय नहीं लिए जाते। संचार माध्यमों में संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण दर्शकों के मनोभावों पर भी बुरा असर पड़ता है। देख-देख कर बहुत से लोग इस तरह के आचरण को (वैध मान कर!) अपनाने भी लगते हैं । ऐसा करना नेतृत्व और सार्वजनिक कार्य में शामिल होने की इच्छा रखने वालों के लिए मॉडल भी बनने लगता है। बड़े लोग जिस राह पर चलते हैं उसे अक्सर लोग आंख मूंद कर अपनाने लगते हैं।

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की जान और शान होती है। परन्तु कोई भी स्वतंत्रता पूरी तरह निरपेक्ष नहीं हो सकती। ऐसा हुआ तो वह निरंकुशता और स्वच्छंदता तक पहुंच जाएगी जिसका परिणाम समाज के लिए घातक होगा। इस दृष्टि से यह जरूरी है संसद की मर्यादाओं को स्वीकार किया जाय। इसी से जनता के प्रति माननीय सांसदों की जवाबदेही भी पूरी हो सकेगी। भारत की आम जनता पांच साल के लिए माननीयों को देश और समाज का भला करने के लिए भेजती है। इसलिए राजनीति को देशहित की दिशा में ले जाने के लिए सांसदों को ज्यादा से ज्यादा समय संसद की कार्यवाही को सक्रिय और सकारात्मक रूप से चलाने में लगाना चाहिए। यह तभी हो सकेगा जब आचरण और भाषा की मर्यादाएं बनी रहें।

    (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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