दो दिलों का मिलन होता है शादी और यह मिलन सात फेरों, यानी सात वचनों से बंधा होता है… यदि यह वचन टूट जाएं…इन वचनों से कोई मुकर जाए… इन वचनों का मान नहीं रख पाए… जीवन-मिलन, अर्पण-समर्पण और सम्मान और सेवा की सीमा यदि टूट जाए तो वचनों का संगम और शादी का बंधन उसी दिन टूट जाता है… फिर उसे संविधान और कानून के फंदे से क्यों लटकाया जाता है… किसी व्यक्ति को क्यों इस कदर प्रताडि़त किया जाता है कि वो जान देने पर आमादा हो जाता है…बेंगलुरु के इंजीनियर अतुल सुभाष की मौत के लिए उसके ससुराल वालों से ज्यादा इस देश का कानून जिम्मेदार है, जिसने एक व्यक्ति को मौत की इंतहा तक परेशान किया… वो अदालतों के चक्कर लगा-लगाकर इतना प्रताडि़त हुआ कि उसे अपनी जान देना आसान लगा…एक औरत के फर्जी आरोपों से मौैत की हद तक जा पहुंचे इस व्यक्ति को प्रताडि़त करने में इस देश के संविधान ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी… हजारों बार यह सच सामने आया कि धारा 498 में मिले अधिकारों का दुरुपयोग कर औरतें और उनके परिवार के लोग पुरुषों को प्रताडऩा की उस हद तक परेशान करते हैं कि यदि वो जिंदा रह जाए तो मौत-सी यातना झेले और मर जाए तो इस देश के संविधान और कानून से मुक्ति पा ले… लेकिन इसके बावजूद न तो संविधान अपनी क्रूरता समझने को तैयार है और न अदालतें ऐसे लोगों की हालत पर हैरान हैं… नारी का अबला स्वरूप कब बला बन जाता है… केवल अपने दंभ, अहंकार, लालच और स्वार्थ के वशीभूत होकर अत्याचार पर उतर आता है, यह सच न कोई स्वीकार कर पाता है और न इस जुल्म से पुरुष बच पाता है…समाज को समझना चाहिए… संविधान में ऐसा कुछ होना चाहिए कि महिलाएं कानून का मखौल न उड़ाएं और पुरुष भी जुल्म न ढाएं… शादी के टूटने की और रिश्तों के बिखरने की जिम्मेदारी भले ही कानून तय करे, लेकिन पूरे परिवार को मुलजिम बनाने से पहले कोई यह तो पूछने की जहमत उठाए कि जिस दिन महिला पर जुल्म हो रहा था तो वो घर में क्यों रह रही थी… और जब पहले दिन उस पर जुल्म हुआ उसी दिन उसने कानून की शरण क्यों नहीं ली… साल-महीनों तक की प्रताडऩा की कहानी बताकर किया गया कानून का दुरुपयोग जज को भी समझ आता है और पुलिस को भी…लेकिन महिलाओं को प्रताडि़त और पुरुष को जुल्मी समझना परंपरा बन चुकी है… इस रवैये से पुरुष शादी से डरते हैं और युवतियां डराने से बाज नहीं आती हैं… यही हो रहा है लिव-इन में… पहले मर्जी से युवकों के साथ रहती हैं, फिर उन पर शादी न करने और संबंध बनाने के आरोप मढ़ती हैं… कानून भी ऐसी युवतियों को संरक्षण देता है और लडक़ों को गुनहगार समझता है… ऐसी लड़कियों का नाम उजागर न करने पर प्रतिबंध रहता है, लेकिन लडक़ों का नाम आरोपी बनाकर प्रचारित करता है… सही मायनों में तो हमारा संविधान, हमारा कानून खुद जुल्म करने के नियम बनाता है और हमारे रिश्ते, हमारी मर्यादा, हमारी सभ्यता और संस्कृति का दमन करने का मुजरिम बनता है… सर्वोच्च अदालतें भी पुरुषों पर अत्याचारों का हथियार बन चुकी धारा 498 पर आपत्ति तो करती हैं, लेकिन उसे खत्म करने का आदेश नहीं देती हैं… समाज में सभ्यता, संस्कृति और परंपरा बनी रहे… पुरुष हो या महिला रिश्तों और कानून दोनों के अत्याचार से बच सके ऐसी पहल होना चाहिए… जो सच है उसे तो समझना चाहिए…
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