– निवेदिता सक्सेना
हाल ही में रिलीज हुई फिल्म `द केरला स्टोरी’ तथ्यपरख होने के साथ आने वाले भविष्य के लिए एक दस्तक भी है। जो न सिर्फ बेटियों के लिए, वरन हर उस इंसान के लिए जो अब तक अपने जीवन मूल्य के अस्तित्व को न समझ पाया है न ही उसे बताया गया है। एक बालक को कोई अपनी बात मनवाने के लिए झुनझुना पकड़ा दिया जाता है ताकि कुछ समय तक वह भ्रमित रहे और उससे खेलता रहे। वह झुनझुने से निकली आवाज से खुश होता रहे, लेकिन एक उम्र के बाद उसे उस झुनझुने की असलियत पता लगती है, तब वह उसके मायाजाल में नहीं फंसता। ये तो रही बच्चे की बात लेकिन धर्म एवं कर्म के नाम का झुनझुना जिंदगी को पलट देता है।
स्थिरं जीवितं लोके ह्यस्थिरे धनयौवने ।
स्थिराः पुत्रदाराश्च धर्मः कीर्तिर्द्वयं स्थिरम् ॥
इस स्थिर जीवन/संसार में धन, यौवन, पुत्र-पत्नी आदि सबकुछ अस्थिर है। केवल धर्म और कीर्ति ये दो बातें स्थिर हैं। फिलहाल ऐसा भारत में भी हो रहा है, जिसके इतिहास को हर जगह से आक्रांताओं ने विलोपित कर दिया। चाहे वह गलत हो या सही उसे सर्वोत्तम मान स्वीकार कर लीजिए, नहीं तो दमनकारी नीतियों से भारत की सनातन धर्म-संस्कृति को कमजोर बताकर भूखे, लालची लोगों को भ्रमित कर उनका ब्रेनवॉश कर उनका शोषण किस तरह हो रहा है, उन्हें भी पता नहीं लगता।
मुख्य बात यह है कि जब तक असलियत का एहसास होता तब तक वे अपनी वास्तविकता से दूर हो चुके होते हैं। फिल्म `द केरला स्टोरी’ जो कहीं न कहीं फिल्म के साथ वास्तविकताओं को सामने लेकर आई है। राष्ट्रवादियों को जहां धक्का लगा है। वहीं, देशविरोधी ताकतों में उथल-पुथल मच गई है। ना जाने कितने आन्दोलन और एडीटेड ट्रुथ के साथ आंकड़ों की गणना देने लगे या फिल्म में दिये आंकड़ों को लेकर बहस करना।
यहां ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि यही कश्मीर फाइल्स के साथ हुई थी। जंगल का राजा शेर, राजा तब तक है, जब तक वह गीदड़ या मगरमच्छ की भूमिका नहीं निभाता है और न ही उसे वह बनाया जाता है। अगर ऐसी कोशिश भी की गयी तो उससे जुड़ी समस्त श्रृंखला नष्ट हो जाएगी।
नाभिषेको न संस्कार: सिंहस्य क्रियते मृगै: ।
विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ।।
(अर्थात, जंगल में पशु, शेर का संस्कार करके या उस पर पवित्र जल का छिड़काव कर उसे राजा घोषित नहीं करते बल्कि शेर अपनी क्षमताओं और योग्यता के बल पर खुद ही राजस्व स्वीकार करता है।)
वैसे सच ये भी है कि अगर एक हिन्दू लड़की को अपने धर्म के प्रति मनोभावों में आध्यात्मिक या सांस्कृतिक रूप से कमजोर दर्शाया गया जो आज की हमारे समाज की कटु वास्तविकता भी है। हालांकि भारत में सत्य पर आधारित फिल्म बनाना सम्भव नहीं है। जैसा कि `द केरला स्टोरी’ फिल्म में बताये अनुसार एक प्रान्त की बढ़ी आबादी में से चुपके से लड़कियों को एक आतंकी गिरोह में शामिल करवाया गया और फिर मतांतरण कर गायब कर दिया जाता है। लेकिन अब हमें विचार ये करना है कि क्या ये सिर्फ फिल्मी समीक्षा बनकर रह जाना चाहिए या इसके आगे उनके सत्य को व्यापक फलक पर उद्घाटित किया जाए।
तर्कविहीनो वैद्यः लक्षण हीनश्च पण्डितो लोके।
भावविहीनो धर्मो नूनं हस्यन्ते त्रीण्यपि।
(बिना तर्क के वैद्य, बिना लक्षण के विद्वान और भावना के बिना धर्म- निश्चित रूप से दुनिया में हंसने योग्य हो जाते हैं।)
जब पौधे की जड़ कमजोर हो तो हल्की सी हवा भी उसे नष्ट कर सकती है। फिर यहाँ तो जड़ ही हल्की और जमीन के ऊपर ही टिकी है, उसे नष्ट करना असम्भव नहीं है और स्वयं अपने धर्म को लेकर आधे-अधूरे ज्ञान के साथ हंसी का पात्र बनते या मूक रह जाते हैं। हमें हमारे सनातन धर्म का ही पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं। हमें पता ही नहीं जीवन का असली सत्व तो इसी में है।
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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