img-fluid

संस्कृति के चार अध्यायः दिनकर की सांस्कृतिक चेतना का महाकाव्य

September 23, 2021

– सुरेंद्र कुमार

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को उनके जन्मदिवस (23 सितम्बर) पर याद किया जा रहा है। दिनकर को याद करना न सिर्फ समाज और राजनीति को नई दिशा देने के लिहाज से महत्वपूर्ण हो सकता है, बल्कि लेखकों को भी उनके दायित्व बोध का अहसास कराने में अहम साबित हो सकता है। दिनकर मानव-मात्र के दुख-दर्द से पीड़ित होने वाले कवि थे और राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि था। शायद इसीलिए वह जन-जन के कवि बन पाए और आजाद भारत में उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा मिला।

दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीयता और जन-पक्षधरता का स्वर प्रधान है। भारत मां के वीर सपूतों में जोश जगाने से लेकर श्रृंगार रस होते हुए विभिन्न धाराओं की रचना करने वाले दिनकर की कई अनमोल कृतियां हैं, जिनकी प्रमुखता से चर्चा होती है और वे युगों-युगों तक भुलाई नहीं जा सकती। दिनकर लिखित ऐसे ही ग्रंथों में एक है महाकाव्य ”संस्कृति के चार अध्याय।” किसी ना किसी रूप में संस्कृति के चार अध्याय की हमेशा होती है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस महाकाव्य की प्रस्तावना लिखकर अपने को गौरवान्वित महसूस किया था। जवाहरलाल नेहरू ने इसकी भूमिका में संस्कृति को मन, आचार अथवा रुचियों की परिष्कृति या शुद्धि और सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना माना है। ओज, राष्ट्रीयता और निर्भीक वैचारिकता के प्रणेता राष्ट्रकवि दिनकर अपनी कविता में भावपरकता के आधार पर जिस सांस्कृतिक चेतना से प्रेरित हैं, वही उनकी महत्त्वपूर्ण कृति ”संस्कृति के चार अध्याय” में विवेचन और विश्लेषण के रूप में समाहित है। यह ऐसा समाजशास्त्रीय इतिहास है, जिसमें तटस्थता और वस्तुपरकता से निकले निष्कर्षों की प्रामाणिकता है और ममत्व तथा परत्व से अविचलित रहकर चिंतन की निष्ठा है।

संस्कृति के इस महाकाव्य में दिनकर का अध्ययन विस्तार और संदर्भों का अंतरिक्ष चमत्कृत करता है। दिनकर भले ही इसे इतिहास नहीं, बल्कि साहित्य का ग्रंथ कहें, लेकिन वह भारतीय संस्कृति का क्रमिक इतिहास ही है और वह भी इतिहास-लेखन की दृष्टिसंपन्नता के साथ। दिनकर के विवेचन की पद्धति है कि वे विभिन्न मुद्दों पर विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हैं और फिर उनमें से सही मत के पक्ष में निर्णय लेते हैं। वे तर्क और प्रमाण के बिना सपाट तरीके से निष्कर्ष तक नहीं पहुंचते।

दिनकर ने कहा है कि भारतीय संस्कृति का मूल तत्त्व सामाजिकता है। अपने इसी विचार के प्रतिपादन में उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की कविता उद्धृत की है यहां आर्य हैं, द्रविड़ और चीनी वंश के लोग हैं। शक, हूण, पठान, मुगल आए और सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गए। इन सबके मिलन से भारतीय संस्कृति को अनेक संस्कृतियों के योग से बना हुआ मधु कहा जा सकता है। दिनकर भारतीय संस्कृति के इतिहास में चार बड़ी क्रांतियां मानते हैं। पहली क्रांति आर्यों के भारत आगमन और आर्येतर जातियों से उनके संपर्क के रूप में हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। इससे स्पष्ट है कि दिनकर ने आर्यों को भारत के बाहर से आगत माना है। दूसरी क्रांति यहां स्थापित धर्म के विरुद्ध गौतम बुद्ध के विद्रोह के साथ हुई। तीसरी क्रांति तब हुई जब विजेताओं के धर्म के रूप में इस्लाम भारत पहुंचा और चौथी क्रांति यूरोप के आगमन के साथ हुई। इन्हें ही दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय कहकर पुकारा है।

प्रथम अध्याय में दिनकर भारतीय जनता की रचना पर विचार करते हुए सभ्यता के उद्गम तक जाते हैं। अश्वेत, औष्ट्रिक, द्रविड़, आर्य, मंगोल, यूनानी, युची, शक, आभीर, हूण, तुर्क आए और सभी हिंदू समाज के चार वर्णों में समाहित हो गए। सी.एम. जोर के शब्दों में भारतीय हमेशा से ही अनेक जातियों के लोगों और अनेक प्रकार के विचारों के बीच समन्वय स्थापित करने को तैयार रहे हैं। इससे भारतीय संस्कृति में विश्वजनीनता उत्पन्न हुई। विश्व मानवता के अपूर्व चिंतक रोमारोलां मानते हैं कि अगर इस धरती पर कोई ऐसी जगह है, जहां सभ्यता के आरंभिक दिनों से ही मनुष्यों के सारे सपने आश्रय पाते रहे हैं तो वह जगह हिंदुस्तान है।

दिनकर ने ऋग्वेद का काल 65 सौ वर्ष पूर्व माना है। वे जाति-प्रथा और अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न समन्वय की परख करते हैं और शिव, राम, कृष्ण भक्ति और विभिन्न देवताओं की मान्यता पर विचार करते हैं। आर्य और आर्येतर के संबंधों का विश्लेषण करते हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संस्कृति की रचना किस तरह परस्पर प्रभावों से होती है। आर्य और आर्येतर समन्वय पर विचार करते हुए दिनकर कहते हैं कि आर्यों की जाति-प्रथा को अन्य जातियों ने भी स्वीकार कर लिया। यह सांस्कृतिक समन्वय की ओर पहला कदम था। आर्य और द्रविड़-मिलन भी इसी तरह का समन्वय था। सात नगरियों और सात नदियों को साथ रखना भौगोलिक एकता का उदाहरण है।

दिनकर अपने वैचारिक सत्य के साथ लिखते हैं कि हिंदू संस्कृति का आज जो रूप है, उसके भीतर प्रधानता उन बातों की नहीं है, जो ऋग्वेद में लिखी मिलती हैं, बल्कि हमारे बहुत से अनुष्ठानों और हमारी कई रीतियों का उल्लेख वेदों में नहीं मिलता। विष्णु, शिव, रुद्र इत्यादि देवताओं तथा चावल, नारियल, सिंदूर जैसी अनेक वस्तुओं को जब दिनकर बहिरागत मानते हैं तो वे आज की बनी धारणा को झकझोर देते हैं। वे कहते हैं कि सिंदूर नाग लोगों की वस्तु है, इसीलिए उसे नाग-गर्भ और नाग-संभव कहा गया। वह सामाजिक समन्वय में नारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानते हैं और रामकथा का देश की एकता में बड़ा महत्त्व निर्धारित करते हैं।

दूसरे अध्याय में दिनकर बौद्ध धर्म का परीक्षण करते हैं। स्वयं हिंदुत्व में ही वेदों के बाद उपनिषदों का विवेच्य बदल गया है। भारतीय संस्कृति का पुराना रूप वही है, पर आज नास्तिक और भौतिकवादियों को छोड़कर अधिकतर हिंदू परलोक भय मानते हैं। वैदिक ऋषि मृत्यु के भीत नहीं हैं, उनके विचार में स्वर्ग-नरक नहीं है, वे आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफल के बारे में ज्यादा नहीं सोचते। वेदों का वातावरण उल्लासपूर्ण एवं पवित्र है। उनमें प्रार्थना है कि हमारे बैल पुष्ट हों, अश्व बलवान हों, फसलें अच्छी हों और शत्रुओं पर हमें विजय मिले। इस आशावादी और बहुदेववादी समाज के बाद उपनिषद्काल में सूक्ष्मचिंतन आ गया। मोक्ष जीवन का परम ध्येय बन गया, वैराग्य और संन्यास माध्यम बन गए। वैदिक जीवन में सांसारिकता प्रेय है। उपनिषद प्रेय को छोड़कर श्रेय की ओर बढ़े।

दिनकर कहते हैं कि वेदों के समय का धर्म प्रकृति के तत्त्वों को सजीव मानने वाले भावुक मनुष्य का धर्म है। हिंसा और अहिंसा के द्वंद्व में जैन धर्म और अहिंसा को प्रतिष्ठा मिली। बौद्धों ने जाति-प्रथा को चुनौती दी और उनके मतानुसार कर्म की महत्ता को श्रेय मिला। दिनकर ने इस समय के अंत:संघर्षों और परस्पर टकरावों पर तटस्थ विचार करते हुए कहा कि इसके बावजूद हिंदुत्व और बौद्ध धर्म में समानता है। बौद्ध धर्म का महत्त्व यह भी है कि इसी समय बाहरी दुनिया से हमारा प्रत्यक्ष संपर्क हुआ।

तीसरा अध्याय हिंदू-मुसलिम संबंधों की भूमिका का विमर्श है। दिनकर लिखते हैं कि इस्लाम अपने प्रगतिशील युग में भारत में नहीं आया। वह अपने आरंभ में बहुत ऊंचे धरातल पर था, लेकिन जब हूण, तुर्क और मंगोल भी मुसलमान हुए तो उन जातियों की बर्बरता का उस पर प्रभाव पड़ा। बाबर ने हुमायूँ को जो वसीयतनामा किया, उसमें लिखा था ”हिंदुस्तान में अनेक धर्मों के लोग बसते हैं। भगवान को धन्यवाद दो कि उन्होंने तुम्हें इस देश का राजा बनाया है। तुम तअस्सुब यानी सांप्रदायिकता से काम नहीं लेना, निष्पक्ष होकर न्याय करना और सभी धर्मों के लोगों की भावना का ख्याल रखना।”

मुस्लिम समाज ने हिंदुओं के अनेक रीति-रिवाज ग्रहण कर लिए। कला और साहित्य में भी दोनों में आदान-प्रदान हुए। हिंदुओं की जीवनशैली भी अनेक स्वीकारों के लिए तत्पर रही। इस्लाम के स्वरूप और उसके प्रभाव पर विचार करते हुए दिनकर कहते हैं कि हिंदुओं में धार्मिकता की गलत धारणा, पाखंड, देश में एकत्व के भाव का अभाव तथा बाहर जाने को धार्मिक दृष्टि से निषिद्ध मानना वे कारण हैं, जिनसे उनका पतन हुआ।

दिनकर ने इस पुस्तक को संस्कृति के चार अध्याय कहा है। संस्कृति समावेशी शब्द है, उसमें जीवनशैली, आदर्श, कला, साहित्य इत्यादि विभिन्न आयाम समाहित हैं। इस्लाम के भारत आगमन और मुस्लिम शासन के वर्षों में भारत की स्थिति कई दृष्टियों से विशिष्ट है। इस समय धार्मिक कट्टरता के अतिरेक से अन्याय भी हुए और उसके विपरीत हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के परस्पर आदान-प्रदान भी हुए।

दिनकर ने हिंदू धर्म में भक्ति आंदोलन के उदय का वर्णन करते हुए तीन तरह के कवियों का उल्लेख किया है। एक वर्ग में जायसी, दूसरे में कबीर तथा तीसरे में विद्यापति और तुलसी। वह कबीर, मीरा, बोधा और घनानंद के भावुक पक्ष पर प्रेम के सूफी स्वरूप का प्रभाव मानते हैं। इसी काल में उर्दू का जन्म हुआ। भाषाओं में शब्दों के आदान-प्रदान हुए और सांस्कृतिक परस्परता के कारण सामाजिक संस्कृति का स्वरूप उभरा।

चौथे अध्याय में भारतीय संस्कृति और यूरोप की अंतःक्रिया का विवेचन है। यूरोप के विभिन्न देशों के भारत आगमन, भाषा और संस्कृति पर पड़ रहे वांछित और अवांछित प्रभावों, नवजागरण के समाज-सुधारों, वैज्ञानिक दृष्टि के उदय तथा टूटती रूढ़ियों का आख्यान ही इस युग का कथानक है। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, धर्म समाज, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, अरविंद, गांधी इत्यादि के माध्यम से व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बौद्धिकता और तर्क का अभिनव पाठ लिखा जा रहा था। प्राचीन भारत में आर्य और आर्येतर संस्कृतियों के मेल से निकली संस्कृति मध्य युग में मुसलमानों के साथ संवादरत रही। अब एक और भिन्न संस्कृति के साथ उसका संभाषण चला। विज्ञान और अध्यात्म, दोनों समाज को अपनी तरह निर्धारित कर रहे थे। विचार, कला, साहित्य और भूगोल, का एक व्यापक विषय हमारे ज्ञान के नए गवाक्ष खोल रहा था। एक सर्वथा भिन्न संस्कृति के साथ अब हमारा सामना हो रहा था। अभी तक मुसलिम शासन और जीवनपद्धति से हमारी असमानता, द्वंद्व थी। अब यूरोपीय संस्कृति से भी हमारी भिन्नता प्रभावित हो रही थी। अंग्रेजी शासकों की सांस्कृतिक वर्चस्विता भी हो रही थी और सामंजस्य भी। गुलामी के खिलाफ अभियान भी चला और भाषा, वेशभूषा, खान-पान भी प्रभावित हुआ।

दिनकर की रचनाशीलता का एक अलग औदात्त्य है- संस्कृति के चार अध्याय। ऐसा लगता है जैसे भावना के कलश में ज्ञान का महासागर भर दिया गया हो। दिनकर की सांस्कृतिक चेतना एक ऐसे व्यक्ति की अनुभूति है, जिसे निजता प्रिय है, पर उसका विवेक सजग है। वे अपने गुण-दोषों का परीक्षण करते हुए इतिहास लेखन की निष्पक्षता का उदात्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। संस्कृति का ऐसा विमर्श करते हुए दिनकर एक व्यक्ति नहीं रह जाते, बल्कि संदेहों और भ्रमों से परे एक सर्वसमावेशी संस्थान बन जाते हैं। उनका अपरिमित ज्ञान विस्मित भी करता है और आश्वस्त भी।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

Share:

China की रियल एस्टेट कंपनी Evergrande पर दिवालिया होने का संकट, भारत पर भी होगा असर

Thu Sep 23 , 2021
नई दिल्ली। चीन की दूसरी सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी एवरग्रांड (China, second largest real estate company Evergrande) अपने भारी-भरकम कर्ज का भुगतान करने में लगातार नाकाम हो रही है। इसका असर न सिर्फ चीन के बाजारों पर होगा, बल्कि भारत सहित दुनियाभर की अर्थव्यवस्था दबाव में आ जाएगी। एवरग्रांड पर करीब 22 लाख करोड़ […]
सम्बंधित ख़बरें
खरी-खरी
गुरुवार का राशिफल
मनोरंजन
अभी-अभी
Archives

©2024 Agnibaan , All Rights Reserved