– ऋतुपर्ण दवे
चकमक पत्थरों से आग पैदा करने से लेकर आज माइक्रोवेव ऑवन के दौर तक का सफर बेहद रोमांचक और यादगार है। पाषाण युग में जीव, वनस्पतियों को पहले कच्चा खाकर पेट भरना बाद में पकाकर खाना सीखना भी मानव सभ्यता की सिलसिलेवार कहानी है। यह विकास यात्रा जितनी रोचक है उतनी ही विस्तृत और कुछ यूँ कि कितना भी लिखा जाए या शोध किया जाए, कभी खत्म नहीं होने वाली सत्यकथा। चूल्हे में पकाए भोजन का स्वाद, उसका जो महत्व था अब भी जस का तस है। चूल्हा पके भोजन व शुध्द प्राकृतिक उपज का अटूट संबंध भी है। इसके पीछे का मर्म कहें या संदेश साफ है कि शुध्द प्राकृतिक वातावरण वनस्पतियों को भी चाहिए। मानव व वनस्पति दोनों की जननी भूमि, हमारे स्वास्थ्य व समृध्दि के लिए वरदान है। यही प्रकृति शारीरिक विकृतियों, बीमारियों से बचाव का साधन भी है जिसे समझना होगा। यही वजह है कि अत्याधुनिक इस दौर में एक बार फिर प्राकृतिक और अब नया नाम ऑर्गेनिक खेती खूब चर्चाओं में है।
अरबों साल पुरानी धरती पर मानव जीवन 50 से 75 लाख साल पुराना माना जाता है। अध्ययनों और शोधों से भी पता चलता है कि मनुष्य ने कृषि में कई तरह के विकास पूर्व पाषाण युग में किए जो कि आधुनिक काल से 20-25 लाख साल पूर्व से शुरू होकर 12 हजार साल पूर्व तक माने जाते हैं। यानी यह वह दौर था जब कृषि का महत्व बढ़ता ही गया। विकास और सीखने के दौर में खेती केवल पत्थरों के औजारों से निकलकर हल-बैल, बक्खर से होते हुए रहट, तालाब, नहर, ट्रैक्टर, पॉवर ट्रिलर, बिजली के पंप यहां तक कि हरित ऊर्जा यानी सोलर पॉवर तक न केवल आ पहुँची बल्कि अहम होने लगी। दुनिया की अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में खेती-किसानी भी शुमार होने लगी।
भारतीय कृषि के संदर्भ में देखें तो रसायनिक खादों से पहले अरंडी, नीम, मूँगफली, सरसों आदि की खली की खाद, हड्डी का चूरा, सनई और मूँग की हरी और सूखी पत्तियों की खाद, बर्मी कम्पोस्ट का खूब चलन था। यह तब की विशुध्द प्राकृतिक खेती का दौर कहा जा सकता है। सच है कि भारतीय किसान 1960 से पहले यूरिया नहीं जानते थे। मवेशियों के मल से तैयार जैविक खाद और पारम्परिक कृषि पर ज्या दा निर्भरता थी। लेकिन तभी यह मिथक बढ़ा कि प्राकृतिक खादों से फसल का उत्पादन नहीं बढ़ता है।
इसी बीच कृषि को अघोषित रूप से ही सही बड़ा इकोनॉमी सेक्टर मान लिया गया और पूरी दुनिया में उत्पादन पर बढ़ावा जैसे शोध और नित नई तकनीकी के प्रयोगों का दौर चल पड़ा। हर रोज खेती एक नए और परिवर्तित रूप में दिखने लगी। रसायनों के साथ हारवेस्टर, थ्रेसर और नए उपकरणों के चलते पैदावार बढ़ाने की तकनीकों के बीच धरती की सेहत का ध्यान ही नहीं रहा। बढ़ती जनसँख्या और खाद्यान्नों की जरूरतों के बीच उत्पादन की होड़ में यह भी ध्यान नहीं रहा कि जमीन पर रसायनों का कैसा दुष्प्रभाव हो रहा है? सच तो यह है कि इस बारे में ईमानदारी से सोचा ही नहीं गया। तभी हरित क्रान्ति का दौर जो आया तथा यूरिया और तमाम रासायनिक उर्वरकों ने देखते ही देखते दुनिया भर में खेती के तौर तरीके ही बदल दिए। यूरिया के परिणामों से फसल तो लहलहा उठी। लेकिन जल्द ही भोजन में आवश्यक तत्वों की कमी और शरीर के लिए घातक तत्वों की अधिकता के साथ ही रसायनों के लगातार उपयोग ने जमीन की उर्वरता पर जो असर दिखाए उसने नई बहस और चिन्ता को जन्म दे दिया। खेत बंजर होने लगे तो समझ आया कि रसायनिक उर्वरक अबतक उपजाऊ रही जमीन को किस कदर खराब कर देते हैं। यह अब सबकी समझ में आने लगा है। शायद यही वजह भी है कि समूची दुनिया में एकबार फिर प्राकृतिक खेती पर बहस छिड़ गई है।
दरअसल खेती एक स्वतः प्रकृति जनित प्राकृतिक प्रक्रिया है। अज्ञानता कहें या उपज की हवस जो भी उसी के फेर में प्राकृतिक रूप से उपजाऊ जमीन का हमने बेहरमीं से मिजाज ही बदल डाला। शुरू में तो जरूर भरपूर बल्कि कहें इफरात पैदावार हुई। जिससे कोठियाँ और तिजोरियाँ भी खूब भरी गईं। लेकिन जल्द ही उपज के गुण-दोष असर दिखाने लगे। बारीकी से परखने पर पता चला कि रसायनिक उर्वरकों से उपजे अन्न से शरीर की जरूरत के मुताबिक पोषण तो नहीं मिला उल्टा नुकसान दिखने लगा। शायद आहार में मौजूद तत्वों के बदले संतुलन ने स्वास्थ्य पर जहाँ असर दिखाया वहीं कृषि भूमि का खतरनाक मिजाज भी समझ आने लगा। इसी से सबका झुकाव फिर प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ा नतीजतन के इसके तौर तरीके चर्चाओं में आए और इनकी उपज की माँग बेतहाशा बढ़ने लगी। इन्हीं में एक जीरो बजट नेचुरल फॉर्मिंग है जिसमें बिना निंदाई, जुताई, गुड़ाई की खेती की तरह-तरह की कला से नई उम्मीद जगी कि जल्द ही दुनिया में एक बदलाव तय है वह यह कि हम भोजन की प्राकृतिक शुध्दता को फिर से पा सकेंगे।
आँध्र प्रदेश पहला राज्य है जिसने 2015 में ही जीरो बजट खेती की और 2024 तक इसे गाँव-गाँव तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा। हिमाचल प्रदेश में तो 2022 तक पूरे राज्य को प्राकृतिक खेती में तब्दील करने की ठान रखी है। भारत में प्राकृतिक खेती पर कई नाम अपने आप में ब्रॉन्ड बनते जा रहे हैं। सभी बढ़ावा देने का काम कर एक तरह से पूरे देश में नई क्रान्ति लाने की दिशा में तत्पर हैं। इनमें महाराष्ट्र के कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर को भारत में इसका सूत्रधार कहा जा सकता है। जिन्हें जंगलों से प्रेरणा मिली कि बिना खाद और इंसानी मदद के कैसे हरे-भरे हैं। बस यहीं से उन्होंने नया सूत्रपात किया। जब बिना खाद जंगल पनप सकते हैं तो हम अपने खेत में उपज क्यों नहीं ले सकते?
कई पुस्तकों के लेखक पालेकर ने 15 वर्ष तक कई शोध किए। आज वह दुनिया भर में प्राकृतिक खेती पर प्रशिक्षण दे रहे हैं। उत्तराखण्ड के एक गाँव लावली के युवा दम्पत्ति वन्दना और त्रिभुवन जो मुँबई में फैशन इण्डस्ट्री से जुड़े थे अपनी मासूम बच्ची को खोने के बाद प्रकृति से जुड़ने वापस गाँव लौटे और प्राकृतिक खेती में जुट गए। वहाँ लीज पर जमीन लेकर खेती शुरू की। आज वह पूरे क्षेत्र के लिए मिसाल हैं। मौसम के हिसाब से खेती में न केवल खुद महारत हासिल की बल्कि पूरे गाँव की तकदीर बदलने की भी ठान ली। उन्होंने पहाड़ों पर फसल लहलहा कर नया उदाहरण पेश किया। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्राजील जैसे देश भी तेजी से प्राकृतिक खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं। भारत में भी गंगा के कछारों में तेजी से प्राकृतिक खेती का चलन बढ़ा है जो अच्छा संकेत है।
बीते दिसंबर में मुझे होशंगाबाद में प्राकृतिक खेती करने में महारत हासिल कर चुके राजू टाइटस के फॉर्म हाउस जाने का मौका मिला जिन्हें ‘ऋषि खेती’ के प्रति समर्पित होकर बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। आप जापान के मासानोब फुकुओका से प्रभावित थे जो एक किसान व दुनिया को प्राकृतिक कृषि दर्शन के जनक और असल प्रस्तावक हैं। इनकी पुस्तक ‘वन स्ट्रॉ रिवोल्यूशन’ यानी एक तिनके से आई क्रान्ति काफी चर्चित है। फुकुओका खुद होशंगाबाद आकर टाइटस के खेती के तरीकों को सराह चुके हैं। 30-35 वर्षों से बिना निंदाई, गुड़ाई, जुताई के खेती करके सालाना लाखों रुपए कमाए वह भी बिना बाजारू खाद, बिना कीटनाशक का प्रयोग किए।
2018 में राजू टाइटस की मृत्यु के बाद इस फॉर्म हाउस को उनके बेटे मधु टाइटस उसी तर्ज पर आगे बढ़ा रहे हैं। मधु बताते हैं कि इस पध्दति में खर्च नाम मात्र का है। वह खेत की नम व सतही चिकनी मिट्टी को इकट्ठा कर उसमें बीज लपेटते हैं फिर सुखाते हैं। तैयार फसल के कटने से 15 दिन पहले जमीन पर बस फेंक देते हैं जो फसल कटते समय दब जाता है। कटाई के वक्त थोड़ी ठूंठ छोड़ देते हैं। इसमें पहले से पड़ी खरपतवार भी होती है जो पानी पड़ते ही सड़ जाती है। इसी से खाद, गैस और प्राकृतिक उपजाऊ पोषण अगली फसल को मिलता है। नई फसल लहलहा उठती है। बस यही छोटा सा फण्डा है जिसमें वो विशुध्द प्राकृतिक फसल होती है जो बिना उर्वरक और बिना जुताई, गुड़ाई, निंदाई के होती है।
सबको साफ दिख रहा है कि एक सदी से भी कम समय में रसायनों के अंधाधुंध प्रयोगों ने करोड़ों बरस में खेती योग्य बनी भूमि को किस तरह दूषित किया। जो भी कारण हो भले ही इस पर खुलकर ज्यादा न बोला जा रहा हो लेकिन इस एक दशक के अन्दर प्राकृतिक और ऑर्गेनिक उपज की बढ़ती माँग, झुकाव और इनका तैयार होता और बड़ा रूप लेता अलग बाजार खुद बताता है कि कारण कुछ भी हों जो रसायनिक उर्वरकों का विरोध न हो पा रहा हो परन्तु इसके दूरगामी प्रभाव-दुष्प्रभाव सभी को समझ आने लगे हैं। बस यही सुकून अच्छा संकेत है कि फिर से दुनिया का झुकाव फिर प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ता जा रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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