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    खालिस्तान की मांग नई नहीं, लेकिन जंग-ए-आजादी से भी कनेक्शन….जानिए कैसे भड़कती गई यह मांग

  • February 25, 2023

    नई दिल्ली (New Delhi)। अमृतपाल सिंह ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन का मुखिया है. इस संगठन को पंजाबी एक्टर-एक्टिविस्ट दीप सिंह सिद्धू (Punjabi actor-activist Deep Singh Sidhu) ने शुरू किया था. पिछले साल फरवरी में कार एक्सीडेंट में दीप सिद्धू की मौत हो गई थी. उनकी मौत के बाद अमृतपाल वारिस पंजाब (Amritpal Waris Punjab) दे का मुखिया बन गया.

    अमृतपाल सिंह खालिस्तान (Khalistan) का समर्थक है और वो अक्सर इस पर बयान देता रहता है. उसने गृहमंत्री अमित शाह (Home Minister Amit Shah) को सीधे तौर पर धमकी भी दी थी. उसने कहा, ‘अमित शाह ने कहा था कि वो खालिस्तान आंदोलन को आगे नहीं बढ़ने देंगे. मैंने कहा था कि इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने भी ऐसा ही किया था. अगर आप भी ऐसा ही करेंगे तो आपको उसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा.’

    उसने कहा था कि जब लोग हिंदू राष्ट्र की मांग कर सकते हैं तो हम खालिस्तान की मांग क्यों नहीं कर सकते. इंदिरा गांधी ने खालिस्तान का विरोध करने की कीमत चुकाई थी.

    खालिस्तान माने क्या…?
    लेकिन ये खालिस्तान क्या है? जिसकी चर्चा आए दिन होती रहती है. ये जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा. इसकी कहानी शुरू होती है 31 दिसंबर 1929 से.

    उस समय लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ. इसमें मोतीलाल नेहरू ने ‘पूर्ण स्वराज्य’ की मांग की. कांग्रेस की मांग का तीन समूहों ने विरोध किया. पहला- मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग. दूसरा- भीमराव अंबेडकर की अगुवाई वाला दलित समूह. और तीसरा- मास्टर तारा सिंह का शिरोमणि अकाली दल. तारा सिंह ने पहली बार सिखों के लिए अलग राज्य की मांग की थी.

    आजादी के बाद भारत का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान अलग देश बन गया. इस बंटवारे ने पंजाब को भी दो हिस्सों में बांट दिया. एक हिस्सा पाकिस्तान के पास गया और दूसरा भारत में रहा. इसके बाद अकाली दल ने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग और तेज कर दी. इसी मांग को लेकर 1947 में ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’ शुरू हुआ.

    अलग राज्य की मांग को लेकर 19 साल तक आंदोलन चलते रहे. आखिरकार 1966 में तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस मांग को मान लिया. इंदिरा गांधी की सरकार में पंजाब तीन हिस्सों में बंटा. सिखों के लिए पंजाब, हिंदी बोलने वालों के हरियाणा और तीसरा हिस्सा चंडीगढ़.

    कहां से आया ‘खालिस्तान’?
    खालिस्तान का आइडिया नया नहीं है. कुछ दस्तावेजों के मुताबिक, मार्च 1940 में ‘खालिस्तान’ शब्द का पहली बार इस्तेमाल हुआ था. खालिस्तान मतलब- ‘खालसाओं का देश.’

    माना जाता है कि मार्च 1940 में डॉ. वीर सिंह भट्टी ने पहली बार ‘खालिस्तान’ शब्द का इस्तेमाल किया था. उन्होंने उस समय कुछ टैम्पलेट छपवाए थे, जिसमें सिखों के लिए ‘खालिस्तान’ नाम से अलग देश की मांग की गई थी. उन्होंने ये टैम्पलेट मुस्लिम लीग के लाहौर डिक्लेरेशन के जवाब में छपवाए थे.


    1956 में जब भाषा के आधार पर राज्यों को बांटा गया तो पंजाब की मांग को नजरअंदाज कर दिया. इसे लेकर जमकर आंदोलन हुए. 1966 में इंदिरा गांधी ने सिखों के लिए अलग प्रदेश तो बना दिया. इससे कुछ समय तक तो शांति रही, लेकिन विरोध के सुर अंदर ही अंदर उठ भी रहे थे.

    अलग प्रदेश बनने के बाद 1969 में पंजाब में विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में टांडा विधानसभा सीट से रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया के उम्मीदवार जगजीत सिंह चौहान भी खड़े हुए, लेकिन वो हार गए. चुनाव हारने के दो साल बाद जगजीत सिंह चौहान ब्रिटेन चले गए और वहां जाकर ‘खालिस्तान आंदोलन’ की शुरुआत की.

    1971 में चौहान ने न्यूयॉर्क टाइम्स में खालिस्तान आंदोलन के लिए फंडिंग की मांग करते हुए एक विज्ञापन भी दिया. 1977 में चौहान भारत लौटे और 1979 में वापस ब्रिटेन चले गए. वहां जाकर उन्होंने ‘खालिस्तान नेशनल काउंसिल’ की स्थापना की.

    इसके बाद चौहान ने एक कैबिनेट बनाई और खुद को ‘रिपब्लिक ऑफ खालिस्तान’ का राष्ट्रपति घोषित कर दिया. उसने खालिस्तानी पासपोर्ट, स्टाम्प और खालिस्तानी डॉलर भी जारी किए. इतना ही नहीं, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में खालिस्तानी एम्बेसी भी खोल दी.

    …इसी बीच आया आनंदपुर साहिब रिजॉल्यूशन
    पंजाब अलग प्रदेश बना तो फिर ज्यादा अधिकार की मांग उठने लगी. 1973 में अकाली दल ने पंजाब को ज्यादा अधिकार देने की मांग रख दी.

    पहले 1973 और फिर 1978 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पास किया, जिसमें पंजाब को ज्यादा अधिकार देने के कुछ सुझाव रखे गए थे.

    इस प्रस्ताव में सुझाया गया कि केंद्र सरकार का सिर्फ रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर अधिकार हो, बाकी सभी मामलों पर राज्य सरकार का अधिकार हो. इस प्रस्ताव में पंजाब को और ज्यादा अधिकार यानी स्वायतत्ता देने की बात कही गई थी. अलग देश की बात नहीं थी.

    इसी दौरान अमेरिका में बैठे खालिस्तानी विचारक गंगा सिंह ढिल्लों ने भी अलग खालिस्तान की मांग रख दी. ये वो समय था जब पंजाब में खालिस्तानी समर्थक जरनैल सिंह भिंडरावाले की ताकत बढ़ रही थी.

    अगस्त 1982 में अकाली दल के नेता एचएस लोंगोवाल और प्रकाश सिंह बादल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को लागू करने, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा से पंजाबीभाषी इलाके पंजाब में मिलाने और सतलुज-यमुना लिंक कैनाल की योजना को मुल्तवी करवाने के लिए भिंडरावाले के साथ मिलकर धर्मयुद्ध मोर्चा खोल दिया.

    फिर वो हुआ, जो इतिहास बन गया…
    भिंडरावाले की ताकत बढ़ती जा रही थी. वो अकालियों के करीब था, लेकिन निरंकारियों का दुश्मन. अप्रैल 1978 में अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच हिंसक झड़प हुई. इसमें अकाली दल के 13 कार्यकर्ताओं की मौत हो गई.

    80 के दशक की शुरुआत में पंजाब में हिंसक घटनाएं बढ़ने लगीं. 1981 में पंजाब केसरी के संस्थापक और संपादक लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई. अप्रैल 1983 में पंजाब पुलिस के डीआईजी एएस अटवाल की गोली मारकर हत्या कर दी गई. इन सबके लिए भिंडरावाले को ही जिम्मेदार ठहराया गया.

    इसी बीच भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर को अपना घर बना लिया. कुछ महीनों बाद भिंडरावाले ने सिख धर्म की सर्वोच्च संस्था अकाल तख्त पर अपने विचार रखने शुरू कर दिए. पंजाब में अलगाववाद और हिंसक घटनाएं बढ़ती जा रहीं थीं. इन्हें रोकने के लिए भिंडरावाले का पकड़ा जाना जरूरी था.

    इसके लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ लॉन्च किया. इस ऑपरेशन के सैन्य कमांडर मेजर जनरल केएस बराड़ का कहना था कि कुछ ही दिनों में खालिस्तान की घोषणा होने जा रही थी और उसे रोकने के लिए इस ऑपरेशन को जल्द से जल्द अंजाम देना जरूरी था.

    1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया गया. एक जून से ही सेना ने स्वर्ण मंदिर की घेराबंदी शुरू कर दी थी. पंजाब से आने-जाने वाली रेलगाड़ियों को रोक दिया गया. बस सेवाएं रोक दी गईं. फोन कनेक्शन काट दिए गए और विदेशी मीडिया को राज्य से बाहर जाने को कह दिया गया.

    3 जून 1984 को पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया गया. 4 जून की शाम से सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी. अगले दिन सेना की बख्तरबंद गाड़ियां और टैंक भी स्वर्ण मंदिर पर पहुंच गए. भीषण खून-खराबा हुआ. 6 जून को भिंडरावाले को मार दिया गया.

    सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस ऑपरेशन में 83 सैनिक शहीद हुए थे और 249 घायल हुए थे. वहीं, 493 चरमपंथी या आम नागरिक मारे गए थे और 86 लोग घायल हुए थे. 1592 लोगों को गिरफ्तार किया गया था.

    इस ऑपरेशन के चार महीने बाद ही 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके दो सिख बॉडीगार्ड्स सतवंत सिंह और बेअंत सिंह ने कर दी. इंदिरा गांधी पर इतनी गोलियां चलाई गईं थीं कि उनका शरीर क्षत-विक्षत हो चुका था.

    इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में सिख विरोधी दंगे भड़क गए. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अकेले दिल्ली में ही 2,733 सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया. वहीं देशभर में 3,350 सिख मारे गए थे. ऐसा आरोप लगा था कि इन सिख विरोधी दंगों को कांग्रेस नेताओं ने ही हवा दी थी.

    1984-1995… मौतें ही मौतें
    जुलाई-अगस्त 1985 में राजीव गांधी और लोंगोवाल ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए. पर जैसे ही लोंगोवाल पंजाब लौटे, वैसे ही कट्टरपंथियों ने उनका कत्ल कर दिया. 1984 से 1995 के बीच पंजाब में उग्रवाद चरम पर रहा. उग्रवादियों ने सुरक्षा एजेंसियों और हिंदुओं को निशाना बनाया.

    23 जून 1985 को कनाडा के मोन्ट्रियल से लंदन जा रही एअर इंडिया की फ्लाइट को हवा में ही बम से उड़ा दिया गया. इससे विमान में सवार सभी 329 यात्रियों और क्रू मेंबर्स की मौत हो गई. बब्बर खालसा ने इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए इसे भिंडरावाले की मौत का बदला बताया था.

    10 अगस्त 1986 को ऑपरेशन ब्लू स्टार को लीड करने वाले पूर्व सेना प्रमुख जनरल एएस वैद्य की पुणे में हत्या कर दी गई. खालिस्तान कमांडो फोर्स ने इसकी जिम्मेदारी ली.

    31 अगस्त 1995 को एक सुसाइड बॉम्बर ने पंजाब के सीएम बेअंत सिंह की कार के सामने खुद को उड़ा लिया. इसमें बेअंत सिंह की मौत हो गई.

    1990 के मध्य तक पंजाब से विद्रोह का सफाया कर दिया गया. लेकिन तब तक खालिस्तानी समर्थकों और आतंकी मॉड्यूल भारत से बाहर अपने ठिकाने बना चुके थे.

    खालिस्तान पर क्या है मांग?
    अप्रवासी कैब ड्राइवर से अटॉर्नी बने गुरपतवंत सिंह पन्नू ने साल 2007 में ‘सिख फॉर जस्टिस’ नाम का संगठन बनाया. दावा किया गया कि ये संगठन 1984 के दंगों के पीड़ितों के लिए न्याय की मांग करने के लिए बनाया गया है.

    2019 में केंद्र सरकार ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया. सिख फॉर जस्टिस ने चार साल पहले पंजाब को भारत से अलग करने के विषय पर प्रवासी सिखों के बीच 2020 में जनमत संग्रह कराने की घोषणा की थी.

    अक्टूबर 2021 में सिख फॉर जस्टिस ने खालिस्तान का नक्शा जारी किया. इस नक्शे में सिर्फ पंजाब ही नहीं, बल्कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान के कुछ जिलों को भी खालिस्तान का हिस्सा बताया.

    इस नक्शे में राजस्थान के गंगानगर, बीकानेर, जोधपुर, बूंदी, कोटा, अलवर और भरतपुर जिलों को हिस्सा बताया. यूपी के भी हरदोई, सीतापुर, शाहजहांपुर, लखीमपुर खीरी, पीलीभीत, बहराइज जैसे जिलों को शामिल किया. इनके अलावा हिमाचल के शिमला, किन्नौर, चंबा और लाहौल स्पिति, उत्तराखंड के हरिद्वार और देहरादून, हरियाणा के गुरुग्राम और रेवाड़ी जैसे जिलों को खालिस्तान का हिस्सा बताया.

    फिर उठ रहा खालिस्तानी आंदोलन!
    खालिस्तानी विचारधारा समर्थकों की गिरफ्तारी और उनपर एक्शन की वजह से खालिस्तानी आंदोलन सुस्त पड़ने लगा था. हालांकि, बीते कुछ सालों में ये दोबारा उठने लगा है.

    खालिस्तान का समर्थन करने वाले सरगना भारत से बाहर बैठे हुए हैं. और वहीं से बैठकर भारत में खालिस्तानी आंदोलन को भड़काते हैं. भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देते हैं. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए खालिस्तानी एलिमेंट को भड़काती रहती है.

    ये खालिस्तानी समर्थक पाकिस्तान के लाहौर, कनाडा, ब्रिटेन में अपना ठिकाने बनाए हुए हैं. मसलन, खालिस्तान कमांडो फोर्स का मुखिया परमजीत सिंह पंजवार 1994 से लाहौर में बैठा है. बब्बर खालसा इंटरनेशन का प्रमुख वाधवा सिंह बब्बर भी लाहौर से ही काम करता है.

    जरनैल सिंह भिंडरावाले का भतीजा लखबीर सिंह रोडे लाहौर में बैठकर कथित तौर पर यूरोप और कनाडा में खालिस्तानी ताकतों को एकजुट करता है. सिख फॉर जस्टिस का संस्थापक गुरपतवंत सिंह पन्नू अमेरिका में है.

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