डाॅ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका और कनाडा दुनिया के सबसे अधिक सभ्य और मालदार देश माने जाते हैं। दुनिया के ईसाई भी उन पर गर्व करते हैं लेकिन कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत से एक ऐसी खबर आई है, जो रोंगटे खड़े तो कर ही देती है, वह ईसाइयत और अमेरिकी सभ्यता पर कालिख भी पोत देती है। इस प्रांत में 19 वीं सदी के उत्तरार्ध से 20 वीं सदी के उत्तरार्ध तक एक ऐसा स्कूल चलता रहा, जिसके कब्रिस्तान में 215 छात्रों के शव मिले हैं। इनमें तीन-तीन साल के बच्चे भी थे। इन शवों को एक नई तकनीक के द्वारा खोजा गया है।
ये बच्चे कौन थे और ये क्यों मर गए थे ? बच्चों के स्कूल-परिसर में कब्रिस्तान की जरुरत क्यों थी ? ये बच्चे कनाडा के आदिवासियों के थे। जब यूरोप के गोरे अमेरिकी महाद्वीप में गए तो उन्होंने वहां के आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्जा तो किया ही, उन्हें खत्म करने की भी कोशिश की। उनके बच्चों को जबर्दस्ती अपने स्कूलों में भर्ती करने और उन्हें छात्रावासों में रहने के लिए मजबूर किया जाता था। उन स्कूलों का नाम अक्सर ‘इंडियन’ स्कूल हुआ करता था। अमेरिका में अब भी वहां के आदिवासियों को ‘रेड इंडियन’ कहा जाता है।
50 साल पहले मुझे ऐसे कई रेड इंडियन गांवों में इन अमेरिकी आदिवासियों के साथ रहने का मौका मिला था। उनका खान-पान, रहन-सहन, भाषा और भूषा अमेरिकियों से बिल्कुल अलग थी। उनके बच्चों को इन स्कूलों में भर्ती करके उन पर अंग्रेजी लादी जाती थी, उन्हें ईसाई बनाया जाता था और कोशिश यह होती थी कि किसी भी बहाने उनकी हत्या कर दी जाए। उन बच्चों के साथ बलात्कार किया जाता था, उन्हें भूखा रखा जाता था और उनके साथ क्रूर मारपीट की जाती थी। जो भी आदिवासी अपने बच्चों को पादरियों के इन स्कूलों में भेजने से मना करता था, उसे कड़ा दंड दिया जाता था।
अमेरिका के 30 राज्यों में ऐसे 350 ‘इंडियन स्कूल’ थे। इस तरह के स्कूलों के छात्रावासों में रहनेवाले लगभग 60 हजार बच्चों की हत्या के प्रमाण अभी तक मिल चुके हैं। इस राक्षसी षड़यंत्र के विरुद्ध 19 वीं सदी के अंत में कर्नल राॅबर्ट इंगरसोल जैसे बागी विचारकों ने युद्ध छेड़ दिया था। 2009 में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इन आदिवासियों से बाकायदा प्रस्ताव पारित करके माफी मांगी थी। अभी जब कनाडा में इस हत्याकांड का पता चला तो उसके प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो ने काफी शर्मिंदगी जाहिर की है और अपने देश के आदिवासियों से क्षमा मांगी है।
अमेरिकी महाद्वीप के इन देशों में पिछली पीढ़ियों के गोरों ने जो अत्याचार किए हैं, वे लोमहर्षक हैं लेकिन संतोष का विषय यह है कि वे ही गोरे अब इन गड़े मुर्दों को खुद उखाड़ रहे हैं और अपने पूर्वजों द्वारा किए गए राक्षसी कृत्यों का कच्चा-चिट्ठा दुनिया के सामने खुद ही पेश कर रहे हैं। लेकिन रोम में सुशोभित पोप महोदय से भी मैं अपेक्षा करूंगा कि ईसाई मिश्नरियों ने अपने स्कूलों में जो यह ईसा-विरोधी हिंसक कार्य किया है, उसके लिए वे कम से कम दुख तो प्रकट करें। यदि वे ऐसा करेंगे तो वह काम यूरोप के एक हजार साल के अंधकार-कालीन ईसाई-इतिहास में थोड़ी-सी रोशनी ले आएगा।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)