– रामबहादुर राय
तीन मूर्ति परिसर में ही प्रधानमंत्री संग्रहालय क्यों बनाया गया? यह जिज्ञासा भी हो सकती है और इसे प्रश्न भी कह सकते हैं। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसका समाधान नृपेंद्र मिश्र के कथन में है। प्रधानमंत्री संग्रहालय के लोकार्पण का अवसर था। वे नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय के अध्यक्ष हैं। इस रूप में वे तीन मूर्ति परिसर के विधिवत प्रधान हैं। प्रधानमंत्री संग्रहालय का निर्माण उनकी निगरानी में हुआ है।
अवश्य ही इसकी परिकल्पना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की है। शुरू से ही वे समय-समय पर प्रगति की समीक्षा और अपनी सलाह देते रहे हैं। संस्था के प्रधान होने के कारण बहुत स्वाभाविक है कि नृपेंद्र मिश्र लोकार्पण के समय पहला अर्थात स्वागत भाषण करते और किया भी। उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में जो कहा वह कई दृष्टियों से अत्यंत महत्वूपर्ण है। उन्होंने कहा कि ‘यह संग्रहालय भविष्य में ‘हाउस ऑफ डेमोक्रेसी’, लोकतंत्र का मठ के रूप में पहचाना जाएगा।’
दूसरी बात जो उन्होंने कही, वह उस प्रश्न का उत्तर है जो कुछ लोग पूछ सकते हैं, ‘प्रधानमंत्री संग्रहालय के स्थल चयन पर भी व्यापक विचार-विमर्श हुआ था। अगर अन्यत्र स्थान पर संग्रहालय का निर्माण होता तो देश के प्रथम प्रधानमंत्री के पूर्व स्थापित संग्रहालय को अपेक्षित सम्मान नहीं मिल पाता। इसलिए यह उपयुक्त पाया गया कि पूर्व स्थापित संग्रहालय को जोड़ते हुए अब इसे प्रधानमंत्री संग्रहालय के नाम से जाना जाए।’
इस कथन के अभिप्राय पर बहुत दिनों तक विचार होता रहेगा। इसके अर्थ निकाले जाएंगे। उसमें यह भी खोजने की कोशिश होगी कि नए बने संग्रहालय में पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है या नहीं, जितना होना चाहिए। संभवतः इसका ही ख्याल रखकर नृपेंद्र मिश्र ने प्रधानमंत्री संग्रहालय को लोकतंत्र का मठ कहा। जहां मठ है, वहां महंत रहते हैं। एक मठाधीश भी होता है।
संग्रहालय दो खंडों में है। पहला खंड पुराना है, जो नेहरू संग्रहालय है। उसे न केवल सुरक्षित रखा गया है, बल्कि सुसज्जित भी किया गया है। उस संग्रहालय के साथ दस जनपथ के निर्देश पर जो छेड़-छाड़ एक समय में की गई थी, उसे पुनः निर्मित कर दिया गया है। दूसरे खंड में नया संग्रहालय है। जिसमें हर प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व और उनके महत्वपूर्ण आयामों को नई तकनीक का प्रयोग कर दर्शाया गया है। इस तरह जो लोकतंत्र का यह मठ है, उसके मठाधीश तो पंडित जवाहरलाल नेहरू हुए। सोचिए! यह उनका महिमामंडन है या नहीं? मैं समझता हूं कि नृपेंद्र मिश्र ने मठ शब्द का प्रयोग उसके मूल भाव में किया। मूलतः भारत में मठ धर्म की रक्षा में बने थे। प्रधानमंत्री संग्रहालय जिसे उन्होंने लोकतंत्र का नया मठ बताया, वह संविधान की आत्मारूपी धर्म की रक्षा के लिए बना है। वह संसदीय लोकतंत्र है। जिसकी यात्रा अविराम तभी चलती रहेगी जब हर प्रधानमंत्री को इतिहास में उचित स्थान प्राप्त होगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2018 में इस संग्रहालय की शुरूआत कराई थी। इसे वे देश की लोकतांत्रिक धरोहर का स्वरूप मानते हैं। जिसे उनके ही शब्दों में समझना उचित होगा, ‘ऐसे समय में जब देश अपनी आजादी के 75 वर्ष का पर्व, आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तब यह संग्रहालय एक भव्य प्रेरणा बनकर आया है।’ यही दृष्टि इस संग्रहालय के निर्माण में रही है। प्रधानमंत्री का यह कथन भविष्य की बड़ी लकीर है, ‘इस संग्रहालय में जितना अतीत है, उतना ही भविष्य भी है।’ प्रधानमंत्री जब भारत की लोकतांत्रिक परंपरा का उल्लेख कर रहे थे, तब उन्होंने जो शब्द कहे वे भारतीयता के पर्याय हैं। जिनमें लोकतंत्र की विविधता जहां है, वहीं उसकी ऐतिहासिकता और सभ्यता का चित्रण भी है। नए विचारों को स्वीकार करने के लिए नरेन्द्र मोदी जाने जाते हैं। यह उस दिन भी उपस्थित लोगों ने उन्हें सुनकर अनुभव किया।
जो लोग भी लंबे समय से तीन मूर्ति परिसर में आते-जाते रहे हैं, वे अब नए अनुभव से गुजरेंगे। उन्हें कदम रखते ही नए जमाने की आहट सुनाई पड़ेगी। बदली हुई आबोहवा से वे दो-चार होंगे। तीन मूर्ति भवन स्वयं अपने परिवर्तनों का साक्षी बन रहा है। वह जो ब्रिटिश भारत में कमांडर-इन-चीफ का निवास था, उसे 1948 में आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का आवास बनने का अवसर मिला।
वह पहला रूपांतरण था। दूसरा घटित हुआ जब राष्ट्रपति सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने 14 नंवबर, 1964 को इसे नेहरू स्मारक संग्रहालय घोषित किया। जिसके कामकाज के लिए दो साल बाद एक सोसायटी बनाई गई। पर एक चूक हो गई। इस परिसर का ‘लैंड यूज’ बदला नहीं गया। तीन दशक बाद समाजवादी नेता और लोकसभा सदस्य मोहन सिंह के एक प्रश्न पर आश्वासन समिति ने जब जांच की और रिपोर्ट दी तो सभी चकित थे। उससे एक रस्योद्घाटन हुआ था कि तीन मूर्ति परिसर तो सरकारी कागजातों में अभी भी आवासीय ही बना हुआ है। तब पीवी नरसिन्हा राव की सरकार में उस चूक को सुधारा गया। लेकिन प्रश्न तो अपनी जगह है ही कि ऐसी चूक हुई क्यों? इसका संबंध एक मानसिकता से है।
याद करने का यही सही समय है कि तीन मूर्ति भवन 1930 में बना था। उसी व्यक्ति ने बनवाया, जिसने कनॉट प्लेस की रचना करवाई थी। तीन मूर्ति भवन में ब्रिटिश और फ्रेंच स्थापत्य का समन्वय है। इसका नाम था- फ्लैग स्टाफ हाउस। प्रश्न है कि आजादी के बाद तीन मूर्ति परिसर का जो स्वरूप 1964 में बना, उसकी निरंतरता नए संग्रहालय में है या नहीं? इसका उत्तर हां में है।
कहना चाहिए कि नए संग्रहालय ने तीन मूर्ति परिसर को उन्मुक्त किया है। उसे अनंत आकाश से जोड़ा है। संग्रहालय के लोकार्पण पर पूर्व प्रधानमंत्रियों के वे परिवारी जो हर्षित हैं, आए। जो नहीं आए, वे स्वयं को प्रश्नों के वर्तुल में खड़े पाएंगे। इसके ठोस कारण हैं। उनकी अनुपस्थिति वहां चर्चा में थी। लेकिन जो उपस्थित थे वे चकित भी थे। इस बात पर कि ऐसी अनोखी सूझ पहले किसी प्रधानमंत्री के मस्तिष्क में क्यों नहीं आई!
यह अलग बात है कि ऐसी अनगिनत अनोखी पहल के लिए लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कायल होते जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ संवैधानिक संस्थाओं को ध्वस्त करने के निराधार आरोप भी लगाने का अभियान चलाया जा रहा है। भले ही, वे आरोप उनपर चिपक नहीं सके हैं। संस्कृति मंत्री गंगापुरम किशन रेड्डी ने वहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की परिकल्पनाओं से बने अनेक संग्रहालयों का उल्लेख भी किया।
क्या तीनमूर्ति परिसर अपनी नियति से साक्षात्कार की मंजिल पर पहुंच गया है? इस प्रश्न से इतिहास के कई अगर-मगर सामने आते हैं। जिस दिन संग्रहालय का लोकार्पण हुआ, उस दिन डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्मदिन था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें इन शब्दों में याद किया, ‘बाबा साहब जिस संविधान के मुख्य शिल्पकार रहे, उस संविधान ने हमें संसदीय प्रणाली का आधार दिया। इस संसदीय प्रणाली का मुख्य दायित्व देश के प्रधानमंत्री का पद रहा है।’ प्रधानमंत्री संग्रहालय का मर्म इन शब्दों में मिलता है, अगर उसे खोजें। आजाद भारत के 75 साल की यात्रा का यह ऐसा संग्रहालय है, जिसमें सत्य की रक्षा की गई है और लोकतांत्रिक गणराज्य की यात्रा के वर्णन में तथ्य और विवरण देते समय अप्रिय प्रसंग को अनावश्यक महत्व नहीं दिया गया है। भावी पीढ़ी इसका निर्णय करेगी कि तीन मूर्ति परिसर का लोकतंत्र के शक्ति केंद्र के रूप में रूपांतरण उसकी नियति से साक्षात्कार कराता है या नहीं। जैसे ही इसे जांचने और जानने का प्रयास कोई करेगा, वह पाएगा कि एक परिवार की ‘जमींदारी’ का उन्मूलन हो गया है। जिससे तीन मूर्ति परिसर ने स्वतंत्रता की सांस ली है। परिसर में कदम-कदम पर इसे अनुभव किया जा सकता है।
एक उदाहरण से इसे सरल ढंग से समझा जा सकता है। जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में परोक्ष रूप से किया, ‘एक दो अपवाद छोड़ दें तो हमारे यहां लोकतंत्र को लोकतांत्रिक तरीके से मजबूत करने की गौरवशाली परंपरा रही है।’ उन्होंने इसमें जोड़ा कि ‘इसलिए हमारा भी यह दायित्व है कि अपने प्रयासों से हम लोकतंत्र को और ज्यादा मजबूत करते रहे।’ इसकी उन्होंने विस्तार से व्याख्या की। लेकिन संग्रहालय में वह तथ्य मात्र एक तथ्य के रूप में वर्णित किया गया है। वह यह कि 1975 में इमरजेंसी घोषित की गई। इसका उल्लेख न होता तो इतिहास का उपहास होता। लेकिन इमरजेंसी की ज्यादतियों के वर्णन से संग्रहालय को बचा लिया गया है।
जो लोग प्रधानमंत्री संग्रहालय देखेंगे, वे पाएंगे कि तीन मूर्ति परिसर अपनी नियति की मंजिल पर अब पहुंचा है। नियति ने उसे नए संग्रहालय का स्थान बनाया है। यह संग्रहालय नियति और पुरुषार्थ का समन्वय स्थल बन गया है। तीन मूर्ति परिसर को उसकी नियति के इस मंजिल पर पहुंचाने के लिए जो पुरुषार्थ चाहिए, वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में ही देश देख रहा है।
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