– मुख्तार खान
महाराष्ट्र ही नहीं सारे देश में छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। हर साल 19 फरवरी को शिवाजी जयंती धूमधाम के साथ मनाई जाती है। लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पहले शिवाजी महाराज ने रायगढ़ किले में जनसमूह की उपस्थिति में राज्याभिषेक का अनुष्ठान पूरा किया था।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने समता, बंधुता और न्याय के मूल्यों पर आधारित स्वराज की स्थापना की। अपने शासनकाल में बिना किसी भेदभाव के उन्होंने जनकल्याण के कार्य किए। दुर्भाग्य से शिवाजी महाराज को हिंदू शासक के रूप में निरूपित किया जाता रहा है। क्या शिवाजी महाराज जैसे विशाल व्यक्तित्व को केवल एक फ्रेम से देखा जाना न्यायोचित होगा? शिवाजी महाराज के विशाल व्यक्तित्व को केवल एक धर्म विशेष के रूप में प्रस्तुत करना अनुचित है। शिवाजी महाराज का जीवन हमें बताता है कि उन्होंने अपने शासनकाल में उच्च आदर्श प्रस्तुत किया।
वे संतों, पीर औलिया के साथ-साथ सभी धर्मों का सच्चे मन से आदर करते थे। इसलिए जब उन्होंने स्वराज की स्थापना की तब स्थानीय मराठों के साथ महाराष्ट्र के मुसलमानों ने उनका साथ दिया। उस जमाने में जो मराठे शिवाजी महाराज की सेना में रहे उन्हें मावले कहा जाता है. इन मावलों में हजारों मुसलमान शामिल थे। आज भी कोल्हापुर और सतारा के मुसलमान धूमधाम के साथ शिवाजी जयंती के जुलूस में हिस्सा लेते हैं। शिवाजी महाराज के शासनकाल में जनकल्याण, न्याय और आपसी भाईचारे को विशेष प्राथमिकता दी जाती थी। इसीलिये वे आज तक लोगों के दिलों पर छाए हुए हैं ।
शिवाजी के शासनकाल में महिलाओं को विशेष सम्मान दिया जाता था। युद्ध के समय भी स्त्री अस्मिता की सुरक्षा का पूरा ख्याल रखा जाता था। कल्याण के सूबेदार की पराजय के बाद उसकी सुंदर बहू को जब शिवाजी महाराज के सामने लाया गया तो वह अपने सरदार के इस कृत्य पर शर्मिंदा हुए। उस मुस्लिम महिला से क्षमा मांगी और उसे अपनी मां समान बताया। साथ ही महिला को पूरे राजकीय मान के साथ अपने वतन लौट जाने की व्यवस्था भी करवाई।
शिवाजी महाराज का अपने मुस्लिम सैनिकों पर अटूट विश्वास था। शिवाजी महाराज की विशाल सेना में 60 हजार से अधिक मुसलमान थे। उन्होंने एक सशक्त समुद्री बेड़े की भी स्थापना की थी। इस बेड़े की पूरी कमान मुसलमान सैनिकों के हाथों में ही थी। शिवाजी महाराज की उदारता और कार्यशैली से प्रभावित मुस्लिम सिपहसालार रुस्तमोजमान, हुसैन खान, कासम खान जैसे सरदार बीजापुर की रियासत छोड़कर उनके साथ आ गए थे। सिद्दी हिलाल तो शिवाजी महाराज के सबसे करीबी सरदारों में से एक था।
शिवाजी महाराज की सेना में तोप चलाने वाले अधिकतर मुस्लिम सैनिक ही हुआ करते थे। इब्राहिम खान प्रमुख तोपची थे। शमाखान और इब्राहीम खान घुड़सवार दस्ते के प्रमुख सरदार हुआ करते थे। शिवाजी के खास अंगरक्षको में से एक सिद्दी इब्राहीम थे। अफजल खान से हुई मुठभेड़ में सिद्दी इब्राहीम ने अपनी जान पर खेलकर शिवाजी महाराज की रक्षा की थी। यह तथ्य इस बात की गवाही देते हैं कि महाराज और उनके मुस्लिम सहयोगियों का आपस में कितना गहरा रिश्ता रहा होगा।
शिवाजी महाराज जब आगरा के किले में नजरबंद थे तब मदारी मेहतर नाम के एक मुस्लिम व्यक्ति ने उन्हें यहां से निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह अपनी जान की परवाह किए बगैर शिवाजी महाराज का रूप धारण कर बेखौफ दुश्मनों के बीच बैठा रहा।
फारसी भाषा के विद्वान काजी हैदर को शिवाजी महाराज ने अपना कानूनी सलाहकार नियुक्त किया था। प्रशासन के पत्र व्यवहार और समझौतों (गुप्त योजनाओं) में इनकी प्रमुख भूमिका हुआ करती। एक बार काजी हैदर को लेकर किसी सरदार ने संशय जताते हुए महाराज को चौकन्ना रहने की सलाह दी। इस पर शिवाजी महाराज ने उनसे कहा किसी की जात देख कर ईमानदारी को परखा नहीं जाता। यह तो उस व्यक्ति के कर्म पर निर्भर होता है।
शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की तैयारियां तो बहुत पहले से ही शुरू हो चुकी थीं। रायगढ़ के आसपास नई इमारतों का निर्माण हो रहा था। साथ ही नए मंदिर भी बन रहे थे। एक दिन महाराज निर्माण कार्य का जायजा लेने रायगढ़ पहुंचे। महल में लौट कर उन्होंने अपने सरदारों से पूछा नगर में आपने आलीशान मंदिर तो बनाए लेकिन मेरी अपनी मुस्लिम प्रजा के लिए मस्जिद कहां है? इसके बाद उनके आदेश पर महल के सामने एक मस्जिद बनाई गई। आज भी किले के पास इस के अवशेष मौजूद हैं।
वह बहुत उदारमना थे। शिवाजी महाराज ने अफजल खान की मृत्यु पर उसे इस्लामी रीति रिवाज के साथ ससम्मान दफन करने की व्यवस्था कराई और उसेके पुत्रों को क्षमादान दिया गया, जबकि अफजल उनका कट्टर दुश्मन था। अपने दुश्मन के साथ ऐसे व्यवहार की मिसाल इतिहास में बहुत कम ही मिलती है।
(लेखक, जनवादी लेखक संघ महाराष्ट्र से संबद्ध हैं।)
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