– जितेन्द्र तिवारी
बत्तीस साल पहले। आज की ही तारीख थी। कश्मीरी हिन्दुओं पर महाभीषण संकट बनकर आई थी वह सर्द रात। उस रात घाटी के हिन्दुओं ने जो दृश्य देखा, उसे वे जीवन भर न भुला पाएंगे। 32 साल बाद आज भले ही हालात बदले दिख रहे हों, घाटी में हिन्दुओं की वापसी के दावे किए जा रहे हों, पर उस रात अलगाववादियों ने जो रूप दिखाया था, क्या वे आज खुले दिल से उन्हें गले लगाने को तैयार हो जाएंगे? क्या हिन्दू वापसी के बाद उनके बीच बेखौफ होकर फिर से उसी भाईचारे के साथ रह सकेंगे? कश्मीर में बदलाव की बयार के बीच सबसे बड़ा सवाल यही है।
19 जनवरी, 1990 की उस बेहद सर्द और काली रात में कश्मीरी हिन्दुओं पर अलगाववादी आफत बनकर टूट पड़े थे। उस अंधेरी रात से अगले 6 दिनों तक विस्थापित होकर जम्मू और दिल्ली आए लाखों शरणार्थी यहीं बसकर रह गए। उनकी आंखों के सामने आज भी वह खौफनाक मंजर जस का तस तैरता है। वे बताते हैं– उस रात अचानक से घाटी की सारी मस्जिदों से ऐलान होने लगा था- ‘हमें क्या चाहिए- आजादी।’, ‘हम तो चाहें पाकिस्तान’ ‘कश्मीरी हिन्दू पुरुषों के बिना लेकिन कश्मीरी हिन्दू महिलाओं के साथ’ (आसे गैसी पनुनुय पाकिस्तान, बताव रोस्ती ते बातिनें सान)। ‘कश्मीर में अगर रहना होगा, अल्ला-हू अकबर कहना होगा’, ‘ मुसलमानों जागो काफिरों भागो, जेहाद आ रहा है’,‘ओ, जालिमो, ओ, काफिरो, कश्मीर हमारा छोड़ो’,‘अब कश्मीर में क्या चलेगा–निजाम-ए-मुस्तफा ‘इस्लाम हमारा मकसद है, कुरान हमारा दस्तूर है, जेहाद हमारा रास्ता है।’
यह अलग बात है कि न तो कश्मीर पाकिस्तान बन पाया और न ही वहां निजाम-ए-मुस्तफा आ पाया। भविष्य में भी इसकी कोई संभावना नहीं दिखती। कुछ राजनीतिक दल अनुच्छेद 370 और 35 ए के बीज को खाद-पानी देकर बड़ा कर रहे थे, अलगाव का वट वृक्ष बनाना चाह रहे थे, जिसे मोदी-शाह की जोड़ी ने जड़ से ही उखाड़ फेंका है। दावा किया जा रहा है कि इसके बाद से कश्मीर के हालात बदल रहे हैं। बहुत हद तक यह सही भी है। कश्मीर में चौतरफा विकास होता दिख रहा है और काफी हद तक स्थिति नियंत्रण में दिखती है। स्वतंत्रता दिवस पर आजादी के तराने सुनाई देने लगे हैं और लाल चौक पर जन्माष्टमी की झांकी भी दिखी। पर यह तभी तक हुआ जब तक हिन्दुओं की वापसी की बात और उसके लिए प्रयास नहीं शुरू हुए ।
पिछले दिनों पलायन कर गए हिन्दुओं की संपत्ति वापस दिलाने की बाकायदा प्रक्रिया शुरू हुई। उसके लिए एक पोर्टल लांच किया गया। ऐसी एक हजार संपत्तियों के दावे का निपटारा किया जाने लगा तो अचानक से हिन्दुओं पर फिर से हमले शुरू हो गए। घाटी में दवा की दुकान चलाने वाले 68 वर्षीय माखन लाल बिंद्रू की हत्या ने एक बार फिर 90 के जख्म ताजा कर दिए । बिन्द्रू की हत्या ने टीका लाल टपलू की यादें ताजा कर दीं।
दरअसल, कश्मीर को हिन्दू विहीन करने का षडयंत्र अचानक ही सामने नहीं आया था। इसके बीज तो 1931 में ही बो दिए गए थे। तब एक अफगानी अब्दुल कादिर के बहकावे में आकर घाटी के मुसलमानों ने महाराजा हरीसिंह के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। जब देश आजाद होने लगा तो जवाहर लाल नेहरू ने महाराजा को हटाकर उनकी मांग एक तरह से पूरी कर दी। उसी समय कबायली हमले की आड़ में युद्ध, फिर 1965 और 1971 के युद्ध में भी पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा नहीं जमा सका बल्कि बांग्लादेश उसके हाथ से निकल गया। तब पाकिस्तान ने सीधे युद्ध की बजाय छद्म युद्ध का सहारा लिया और इस्लाम को उसका आधार बनाया।
पाकिस्तान के इस षड्यंत्र में फंसकर 1987 में कश्मीरी मुस्लिम युवकों ने सीमापार जाकर हथियार चलाने की ट्रेनिंग ली और 1989 में लौटकर उसका प्रयोग करने लगे। पहले कुछ हिन्दू युवकों को निशाना बनाया गया, उसके बाद 14 सितम्बर, 1989 उनका निशाना बने थे कश्मीर के जाने-माने वकील और समाजसेवी टीका लाल टपलू। उसके बाद तो आए दिन मौत बरसने लगी और संख्या गिनी जाने लगी। उन 5 महीनों में ही 300 से ज्यादा निरपराध-निर्दोष हिन्दुओं को पाकिस्तान परस्त कथित जिहादियों या आतंकवादियों ने मौत के घाट उतार दिया था। कश्मीरी हिन्दुओं को बचाने वाला वहां कोई नहीं था। न फारूख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चलने वाली राज्य सरकार, न स्थानीय पुलिस-प्रशासन, न केन्द्र में चल रही विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार, जिसमें कश्मीर की ही नुमाइंदगी करने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद गृहमंत्री थे। अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी और कथित मानवाधिकारवादियों का तो तब अता-पता भी नहीं था।
और फिर आई 19 जनवरी, 1990 की वह मनहूस रात। उस रात मस्जिदों से गूंज रहे नारों के बीच घाटी का मुसलमान सड़कों पर उतर आया। कश्मीरी हिन्दुओं ने उस रात जो बर्बरता झेली, भीषण सर्द और अंधेरी रात में अपने घरों से बाहर निकल कर भागने को मजबूर हुए, वे आज उस मंजर को याद कर सिहर उठते हैं। आंकड़े बताते हैं कि1990 के पहले तक कश्मीर में 6 लाख से अधिक हिन्दू व सिख रहते थे। आज बमुश्किल 3 हजार हिन्दू ही घाटी में रहते होंगे।
यह अपने ही देश में अपने ही देश के नागरिकों का सबसे बड़ा पलायन था। आज भी जम्मू के शरणार्थी शिविर में हजारों परिवार विस्थापन का दर्द झेलने को मजबूर हैं। दिल्ली सहित देश भर में फैले विस्थापित परिवारों की नई पीढ़ी अब वहां जाने की सोचती भी नहीं। वे यहीं रच-बस-जम गए हैं। नौकरी-व्यवसाय भी यहीं चल निकला है। जो अपनी सम्पत्ति देखना-बेचना चाहते हैं या वहां जाकर अपने पैतृक घर में कुछ ही दिन के लिए रहना चाहते हैं, वह भी तब तक जबकि केन्द्र में मोदी सरकार है और वहां उपराज्यपाल का शासन है। मुस्लिम समाज की ओर से न कोई पहल है और न इसकी कोई उम्मीद करनी चाहिए।
राजनीतिक कारणों से जो लोग हिन्दुओं को कट्टरवाद के पाले में घसीटते हैं, गंगा-जमुनी तहजीब की बातें करते हैं, क्या उनमें से कोई दावा कर सकता है कि वह घाटी में हिन्दुओं की सुरक्षित वापसी सुनिश्चित करा सकता है। क्या वह सुरक्षा बलों की मौजूदगी और राजनीतिक दबाव खत्म होने के बाद भी घाटी का ऐसा माहौल बनने का दावा कर सकता है कि वहां थोड़े से हिन्दू बहुसंख्यक मुसलमानों के बीच बेखौफ और सुरक्षित रह सकेंगे। इन सवालों की गहराई में जाएंगे तब यही उत्तर मिलेगा कि हिन्दू-मुस्लिम के सवाल पर देश आज भी वहीं खड़ा है. जहां स्वतंत्रता मिलने से पहले खड़ा था।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार के सम्पादक हैं)
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