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    कश्मीर में हिंदुओं की लक्षित हत्याओं का सिलसिला

  • June 04, 2022

    – प्रमोद भार्गव

    कश्मीर में पाकिस्तान परस्त आतंकवादियों ने लक्षित हिंसा के तहत कश्मीरी हिंदुओं को निशाना बनाए जाने का सिलसिला तेज कर दिया है। कश्मीर में यह सिलसिला अक्टूबर 2021 से शुरू हुआ और 2 जून को कुलगाम में बैंक मैनेजर विजय कुमार की हत्या के साथ यह संख्या 19 हो गई है। इससे पहले 31 मई को दलित स्कूल शिक्षिका रजनीबाला की हत्या और 12 मई को कश्मीरी पंडित राहुल भट्ट को दफ्तर में घुसकर मार दिया था। तभी से 5000 हिंदू कश्मीरी सड़कों पर उतर आए हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि तत्काल घाटी के बाहर तबादले नहीं किए गए तो सामूहिक पलायन करेंगे।

    यदि ऐसा होता है तो आतंकियों की मंशा पूरी होगी और घाटी में 1990 के हालात बनने में देर नहीं लगेगी। जबकि घाटी में उन राष्ट्रवादी मुस्लिमों को भी आतंकी निशाना बना रहे हैं, जो सरकारी नीतियों पर भरोसा जताते हुए उन पर अमल कर रहे हैं। इस वजह से 13 मई को पुलिसकर्मी रियाज अहमद एवं सैफुल्ला कादरी और 25 मई को टीवी कलाकार अमरीन भट्ट की भी आतंकियों ने निर्मम हत्याएं की हैं। अतएव पाक परस्त आतंकियों के मंसूबे तोड़ने हैं तो धैर्य और साहस का परिचय हिंदुओं को देना होगा। पलायन से अच्छा है, वह सरकार से निजी सुरक्षा के लिए लाइसेंसी हथियारों की मांग करें और स्थानीय पुलिस व सेना के साथ अपनी सुरक्षा के लिए खुद कटिबद्ध हो जाएं।

    दरअसल घाटी की बदलती स्थिति को आतंकी कुबूल नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन वे सिलसिलेवार बचे-खुचे अल्पसंख्यकों की हत्याएं करके ऐसी दहशत पैदा करना चाहते हैं कि घाटी से तीन दशक पहले खदेड़ दिए गए हिंदुओं की वापसी की जो उम्मीदें बंधी हैं, उन पर पानी फिर जाए। इस दहशतगर्दी के पीछे एक वजह यह भी है कि धारा-370 और 35-ए के खात्मे के बाद विस्थापित गैर-मुस्लिमों की संपत्तियों से अवैध कब्जे हटाने की मुहिम तेज हो गई है। 1990 के बाद यह पहला अवसर है कि विस्थापितों की जायदाद से कब्जे छुड़ाकर वास्तविक भूमि-स्वामियों को संपत्ति सौंपी जा रही है। लिहाजा पाकिस्तान परस्त आतंकी चाहते हैं कि कश्मीरी हिंदुओं की वापसी मुश्किल बनी रहे। साथ ही कश्मीरी पंडितों का हौसला बढ़ाने की दृष्टि से नरेन्द्र मोदी सरकार ने कश्मीरी हिंदुओं के लिए 6000 सरकारी नौकरियों के पद सृजित किए हैं। इनमें से 5900 पद भर भी गए। रजनी बाला और उसके पति राजकुमार को इन्हीं सृजित पदों में से अनुसूचित जाति के कोटे में नौकरी मिली थी। धारा-370 हटने से पहले इस राज्य में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को सरकारी नौकरी देने पर प्रतिबंध लगा हुआ था।

    आतंकियों के बौखलाने का एक कारण आतंकवादी यासीन मलिक को सजा सुनाना भी है। जबकि घाटी में सांप्रदायिक सौहार्द्र का माहौल बन रहा है। इसबार बड़ी संख्या में पर्यटक भी घाटी में पहुंचे हैं। नतीजतन लोगों की माली हालात सुधरने के साथ रौनक भी बढ़ी है, जो आतंकियों की बर्दाश्त से बाहर है। ऐसे में फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेता रजनी की हत्या को लेकर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।

    1990 में कश्मीर में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशा में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला दूसरा उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। घाटी में मुस्लिम एकरूपता इसलिए है, क्योंकि वहां से मूल कश्मीरी हिंदुओं का पलायन हो गया है और जो शरणार्थी हैं, उन्हें बीते 75 साल में न तो देश की नागरिकता मिली है और न ही वोट देने का अधिकार मिला। हालांकि अब नागरिकता और वोट के अधिकार मिल गए हैं।

    दरअसल अनुच्छेद-370 हटने के बाद भी हालात में सुधार नहीं हो पा रहा है, तो इसका एक बड़ा कारण मजहबी कट्टरता पर चोट नहीं कर पाना है। अफगानिस्तान में तालिबानी कब्जे के बाद इस सोच को बल मिला है। साफ है कि यह समस्या अब राजनैतिक व संवैधानिक नहीं रह गई है, बल्कि अब धार्मिक चरमपंथ के रूप में सामने आ रही है। यह हिंसक उन्मादी सोच पाकिस्तान से निर्यात आतंकवाद तो है ही, घाटी के मस्जिदों और मदरसों में फैला वह तंत्र भी है, जो आतंक की फसल बोने और उगाने का काम करता है। यही वजह है कि जितने भी इस्लामिक देश हैं, उनमें न तो अल्पसंख्यकों का जनसंख्यात्मक घनत्व बढ़ रहा है और न ही उन्हें नागरिक समानता के अधिकार मिल रहे हैं। कश्मीर में भी जिहादी चाहते हैं कि गैर-मुस्लिम या तो इस्लाम स्वीकार करें या फिर घाटी छोड़ जाएं।

    इस दोषपूर्ण मंशा को संविधान निर्माण के समय डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने समझ लिया था। शेख अब्दुल्ला ने जब जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग की तो अंबेडकर ने सख्त लहजे में कहा था कि ‘आप चाहते हो कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों की आर्थिक सुरक्षा करे, कश्मीरियों को संपूर्ण भारत में समानता का अधिकार मिले, लेकिन भारत और अन्य भारतीयों को आप कश्मीर में कोई अधिकार देना नहीं चाहते? मैं देश का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ कोई अन्याय या विश्वासघात किसी भी हालत में नहीं कर सकता हूं।‘ विडंबना देखिए कि मुस्लिम समाज देश में हर जगह बृहद हिंदू समाज के बीच अपने को सुरक्षित पाता है, किंतु जहां कहीं भी हिंदू अल्पसंख्यक मुस्लिमों के बीच रह रहे हैं, उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। बावजूद नेहरू के अनावश्यक दखल से कश्मीर को विशेष दर्जा मिल गया।

    इस भिन्नता का संकट देश बंटवारे से लेकर अबतक भुगत रहा है। यही वजह है कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान से जो हिंदू, बौद्ध, सिख और दलित शरणार्थी के रूप में जम्मू-कश्मीर में ही ठहर गए थे, उन्हें मौलिक अधिकार आजादी के 75 साल में भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। इनकी संख्या करीब 70-80 लाख है, जो 56 शरणार्थी शिविरों में सभी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से महरूम रहते हुए बद् से बदतर जिंदगी का अभिशाप धारा-370 हटने से पहले तक भोगते रहे हैं।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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