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हिज्बुल्लाह चीफ की मौत पर सीरिया के सुन्नी मुसलमानों ने मनाया जश्न, जानें क्यों नफरत करते थे

September 29, 2024

नई दिल्ली. इजरायल (Israel) ने 27 सितंबर को लेबनान (Lebanon) की राजधानी बेरूत (Beirut) में एक टारगेटेड एयरस्ट्राइक में हिज्बुल्लाह मुख्यालय (Hezbollah Headquarters) को जमींदोज कर दिया. इस हमले में हिज्बुल्लाह चीफ हसन नसरल्लाह समेत संगठन के कई टॉप कमांडर मारे गए. एक तरफ जहां इस्लामिक वर्ल्ड में नसरल्लाह की मौत का मातम मनाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सीरिया (Syria) के सुन्नी मुसलमान (Sunni Muslims) उसके खात्मे का जश्न मना रहे हैं. हसन नसरल्लाह का कद अरब वर्ल्ड में एक नायक का है और इस नायकत्व के पीछे की सबसे बड़ी वजह है, इजरायल के सामने उसका प्रतिरोध. लेकिन इसी अरब वर्ल्ड में बहुत सारे लोग नसरल्लाह को खलनायक भी मानते हैं. आइए समझते हैं नसरल्लाह को लेकर अरब के मुसलमान दो मत क्यों रखते हैं…

हसन नसरल्लाह के नेतृत्व में हिज्बुल्लाह ने साल 2000 में इजरायली सेना को दक्षिण लेबनान से वापस जाने के लिए मजबूर किया, जो 18 साल तक यहां डेरा डाले हुई थी. नसरल्लाह को नायक मानने वालों की नजर में उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि 2006 का वह युद्ध है, जिसमें हिज्बुल्लाह ने 33 दिनों तक इजरायली सेना का डटकर सामना किया. इस युद्ध की शुरुआत उस घटना के बाद हुई थी, जिसमें हिज्बुल्लाह के लड़ाकों ने इजरायली सीमा में घुसकर उसके दो सैनिकों का अपहरण कर लिया था. युद्ध समाप्त होने के बाद, हसन नसरल्लाह को अरब वर्ल्ड में एकमात्र ऐसे नेता के रूप में सम्मानित किया गया, जो सफलतापूर्वक इजरायल के सामने खड़ा हुआ.


नसरल्लाह की छवि शिया समर्थक नेता की बन गई

लेकिन हसन नसरल्लाह ने खुद को बार-बार ईरान की शह पर काम करने वाले संगठन के नेता के रूप में पेश किया. वह उन संघर्षों में अपने संगठन के साथ भागीदार रहा, जिसने इस्लामिक वर्ल्ड को सुन्नी-शिया आधार पर विभाजित किया. यहां हम आपको बताना चाहेंगे कि ईरान एक शिया बाहुल्य देश है और मिडिल ईस्ट में सऊदी अरब समेत सुन्नी बाहुल्य अन्य देशों के साथ उसकी अदावत किसी से छिपी नहीं है. हिज्बुल्लाह भी लेबनान का एक शिया इस्लामी राजनीतिक दल और चरमपंथी समूह है. अतीत में कई ऐसे मौके आए जब शिया और सुन्नी के बीच बंटे अरब वर्ल्ड में ईरान और हिज्बुल्लाह चीफ हसन नसरल्ला शियाओं के पक्ष में खड़े दिखे.

फिलीस्तीनी मुद्दे के लिए खुद को समर्पित बताने वाले हसन नसरल्ला ने धीरे-धीरे लेबनान पर मजबूत पकड़ बना ली. इसके बाद 2005 में पूर्व प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या हुई. हरीरी पश्चिम-समर्थक और लोकप्रिय सुन्नी राजनेता थे. एक इंटरनेशनल ट्राइब्यूनल ने माना कि रफीक हरीरी की हत्या हिज्बुल्लाह के ऑपरेटिव्स ने की थी. फिर 2008 में हसन नसरल्लाह के बल प्रयोग का एक और नजारा देखने को मिला जब हिज्बुल्लाह लड़ाकों ने बेरूत के सुन्नी इलाकों पर कब्जा कर लिया, और एक नई सरकार के गठन के बाद ही पीछे हटे. इस घटना ने लेबनान की सत्ता में शिया मिलिशिया संगठन हिज्बुल्लाह को पावरफुल बना दिया. तीन साल बाद, 2008 में अरब स्प्रिंग ने ट्यूनीशिया में दस्तक दी और धीरे-धीरे लीबिया और मिस्र तक फैल गई.

सीरियाई गृह युद्ध में की बशर अल-असद की मदद

इन देशों में जनता ने विद्रोह कर दिया और तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका, इसे ही अरब स्प्रिंग कहा गया. साल 2011 तक अरब स्प्रिंग का प्रभाव सीरिया में दिखने लगा. सीरिया एक सुन्नी मुस्लिम बाहुल्य देश है, जहां शिया मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं. वहां मार्च 2011 में इसी आधार पर गृह युद्ध शुरू हुआ. दरअसल, ​बशर अल-असद 2000 में सीरिया के राष्ट्रपति बने, जो खुद शिया मुस्लिम हैं. करीब एक दशक बाद सीरिया के सुन्नियों ने शिया पक्षपात का आरोप लगाते हुए बशर सरकार का विरोध शुरू किया. हसन नसरल्लाह ने बशर अल-असद के शासन को तख्तापलट से बचाने में मदद करने के लिए हिज्बुल्लाह के हजारों लड़ाकों को सीरिया भेजा. एक अनुमान के मुताबिक लगभग 50 हजार हिज्बुल्लाह लड़ाके सीरिया में तैनात किए गए.

हिज्बुल्लाह ने ​बशर अल-असद सरकार के खिलाफ विद्रो​ह करने वाले हजारों सुन्नी सीरियाई नागरिकों को मार डाला. सीरिया के गृह युद्ध में हिज्बुल्लाह की प्रमुख भूमिका इजी अलेप्पो में घेराबंदी के दौरान देखी गई थी, जब उसके लड़ाकों ने बशर अल-असद की सेना के साथ मिलकर बच्चों सहित हजारों नागरिकों को मार डाला था. जून 2013 में हिज्बुल्लाह ने अल कुसैर शहर छोड़कर भाग रहे सीरियाई नागरिकों की हत्याएं कीं. अक्टूबर 2013 में हिज्बुल्लाह ने अल हिसेनियाह में नागरिकों पर बेरहमी से हमला किया. अल जबादानी में सैकड़ों नागरिक मारे गए. हसन नसरल्लाह की मौत की खबर पर नाचने और जश्न मनाने वाले सीरियाई विद्रोही उसे सुन्नी मुसलमानों का कातिल मानते हैं. सीरियाई विद्रोहियों का मानना ​​है कि जब हिज्बुल्लाह के कट्टर लड़ाके मैदान में उतरे तो वे अपने देश को ​बशर अल-असद की तानाशाही से मुक्त कराने की कगार पर थे.

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