बहुत कुछ सीखने लायक था सुरेन्द्र भाई से… विकट परिस्थितियों का भी धैर्य से मुकाबला करना… वक्त को समय से आगे देखना… हमेशा हंसते-मुस्कुराते रहना… संबंधों को निभाना… दोस्तों का कारवां बनाना… ऊंची सोच… ऊंची समझ और ऊंची पहुंच के साथ हर शक्तिशाली शख्सियत को अपना बनाना सुरेन्द्र भाई की पहचान में शामिल रहा है… वो संबंधों के उस शिखर पर रहे हैं, जहां हर राजनीतिक, व्यावसायिक और प्रशासनिक हस्तियां उनके परिचय से गौरवान्वित होती रहीं… सुरेन्द्र भाई कानून को भी समझते थे और कानून की खामियों को भी… दस्तावेजों को पढऩे, समझने में उनका कोई सानी नहीं था… वो राजनीति में भी रहे, लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से दूर रहे… उनके पिता जयंतीलालजी संघवी संघ के पुरोधा थे, लेकिन उन्होंने अपनी निष्ठा के लिए कांग्रेस को चुना… उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन वे सारे राजनीतिज्ञों के मार्गदर्शक बने रहे… उन्होंने अपने भाई को कई बार आजमाया, जब चाहा, जहां से चाहा वहां से भाई को प्रत्याशी बनाया… बुरे समय में जब कांग्रेस से कोई चुनाव लडऩे को तैयार नहीं था, तब भी पंकज संघवी को उम्मीदवार बनाया… लेकिन लगातार हार से न वो विचलित हुए और न ही प्रयास छोड़े…पत्रकार और पत्रकारिता से इतना लगाव रहा कि देश के कई संपादक उनके मित्र रहे। दिल्ली से लेकर इंदौर तक वे इस बिरादरी के काफी समीप रहे… इस लगाव को ही प्रगाढ़ बनाने के लिए उन्होंने ख़ुद अपना अख़बार निकाला। व्यावसायिक सूझ-बूझ इतनी थी कि अखबार के प्रारंभिक दौर में उन्होंने एक बड़े अखबार से विज्ञापन साझा कर आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाया। व्यक्तिगत जीवन में वो बच्चों के साथ बच्चे, तो बड़ों के साथ अनुभवी बन जाया करते थे… विरोध, विद्रोह भी क्षणिक रहते थे… उनका आक्रोश बहुत कम समय में ठंडा हो जाता था, लेकिन उनसे बुराई मोल लेने वाला लंबे समय के लिए विचलित हो जाता था… सुरेन्द्र संघवी इस शहर के लिए वो शख्सियत बन चुके थे, जिनके सान्निध्य से हर कोई व्यक्ति गौरवान्वित होता था… उनकी खासियत यह थी कि वो जिसे अपना कह देते थे, उससे रिश्ता हमेशा निभाते थे और उनकी यह खासियत उन्हें कई बार विवादित बनाती रही, क्योंकि उनमें से कई लोग विभिन्न आरोपों से घिरे रहते थे, तो कई बार अपने दोस्तों की दुश्मनी उनके गले पड़ जाती थी… जीवन के अंतिम दौर में ऐसे ही विवादास्पद स्थितियों से सुरेन्द्र भाई का सामना हुआ, लेकिन उसी धैर्य और गंभीरता से उन्होंने उन परिस्थितियों का मुकाबला किया… हालांकि यही दौर उनके लिए प्राणघातक हुआ, क्योंकि उस समय वो अपनी बिगड़ी हुई शारीरिक अवस्था पर ध्यान नहीं दे पाए और शरीर कमजोर होता चला गया… उनके जाने के साथ ही इस शहर ने व्यावसायिक शिखर के व्यक्तित्व, राजनीतिक चिंतन की हस्ती, संबंधों के शिरोधा और गुजराती समाज के शिखर पुरुष को खो दिया… वे हर क्षेत्र में याद आते रहेंगे…
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