नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि रियल एस्टेट विनियमन और विकास अधिनियम (रेरा), 2016 को लागू करने के बावजूद फ्लैट खरीदार रियल एस्टेट डेवलपर्स द्वारा सेवा में कोताही बरतने पर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत राहत मांगने के हकदार है।
जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस विनीत शरण की पीठ ने कहा कि ‘रेरा की धारा-79 उपभोक्ता फोरम को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के तहत किसी भी शिकायत पर विचार करने पर रोक नहीं लगाती। फोरम को फ्लैट आवंटन में देरी होने की स्थिति में खरीदार को उचित मुआवजा दिलाने का अधिकार है।’
शीर्ष अदालत ने रेरा अधिनियम, 2016 के प्रावधानों पर गौर करने के बाद कहा कि संसद की मंशा स्पष्ट थी कि खरीदार के पास विकल्प या विवेक का इस्तेमाल करने का अधिकार है कि वह उपभोक्ता अधिनियम के तहत उचित कार्यवाही शुरू करना चाहता है या रेरा अधिनियम के तहत एक आवेदन दायर करना चाहता है। अदालत ने मेसर्स इंपीरिया स्ट्रक्चर्स लिमिटेड द्वारा राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के निर्देशों के खिलाफ दायर उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें उसे गुरुग्राम में परियोजना में देरी पर खरीदारों को 50-50 हजार रुपये जुर्माने के साथ रकम चुकाने का आदेश दिया गया था।
शीर्ष अदालत ने डेवलपर्स की ओर से दलील को खारिज करते हुए कहा कि चूंकि परियोजना रेरा के तहत पंजीकृत है, इसलिए अन्य कार्यवाही की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। शीर्ष अदालत ने कहा है कि रेरा अधिनियम की धारा-79 के तहत सिविल कोर्ट किसी भी मुकदमे या कार्यवाही का विचार करने पर रोक लगाता है। हालांकि, धारा-88 में कहा गया है कि रेरा अधिनियम एक अतिरिक्त प्रावधान है। रेरा अन्य कानून के प्रावधानों पर अंकुश नहीं लगाता।
यह था मामला
गुरुग्राम के एक प्रोजेक्ट में खरीदार ने फ्लैट बुक कराया था। 2013 में बिल्डर-बायर्स करार के तहत बिल्डर को साढ़े तीन साल में फ्लैट आवंटित करना था। करार के मुताबिक, अगर तय समय में फ्लैट आवंटित नहीं किया गया तो बिल्डर को नौ फीसदी ब्याज के साथ रिफंड देना होगा। 2016 में रेरा कानून आया। उधर, चार वर्ष बीत जाने के बाद भी प्रोजेक्ट पूरा होने का संकेत न मिलने पर बायर्स ने उपभोक्ता फोरम में शिकायत कर रिफंड का दावा किया था।
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