– विकास सक्सेना
न्यायालय के आदेश के बाद ज्ञानवापी क्षेत्र के सर्वेक्षण में जिस तरह हिन्दू मंदिर के प्रतीक मिले हैं, उसने गजनवी, गौरी, तुगलक, खिलजी और मुगल जैसे आक्रांताओं के अत्याचारों को प्रामाणिकता प्रदान की है। इस सर्वेक्षण ने अब तक पढ़ाए गए इतिहास को संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया है। उत्तर भारत की अनेक इमारतों को बनाने का श्रेय मुगल शासकों को दिया जाता रहा है, अब इन दावों पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। मुगल शासकों को हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर पेश करके उनकी ‘महानता’ पर आत्ममुग्ध होने वालों को भी स्वीकारना पड़ रहा है कि मुगलकाल में मंदिरों को तोड़़कर मस्जिदें बनाई गईं। मुगल शासकों के साम्प्रदायिक सद्भाव का झूठ जगजाहिर होने के बाद अब ये लोग ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ और ‘हिन्दू राजाओं के हाथों मंदिरों का विध्वंस’ जैसे मिथकों के सहारे भारतीय सनातन संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट करने वाले आक्रांताओं के बचाव की कोशिश में जुटे हैं।
मुस्लिम इत्तेहाद (एकता) के जरिए राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने की कोशिशों में जुटे ऑल इण्डिया मजलिस ए इत्तेहाद उल मुस्लमीन (एआईएमआईएम) के नेता असदुद्दीन ओबैसी ही नहीं बल्कि खुद को प्रगतिशील राष्ट्रवादी मुसलमान की तरह पेश करने वाले जमीयत उलेमा ए हिन्द के नेता महमूद मदनी जैसे लोग भी मुसलमानों को भड़काने का प्रयास कर रहे हैं। मुसलमानों को समझाया जा रहा है कि हिन्दूवादी संगठन उनके धार्मिक स्थलों को छीनने का षड्यंत्र कर रहे हैं जबकि अधिकांश विवादित इमारतों के पूर्व में हिन्दू मंदिर होने के पुख्ता सबूत मौजूद हैं। आक्रांताओं द्वारा मंदिरों को तोड़ने की बात सिद्ध होने के बाद उनके कुकृत्यों को तत्कालीन राजाओं के चलन के तौर पर प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए आर्य आक्रमण सिद्धांत, हिन्दू राजाओं द्वारा पराजित हिन्दू राजाओं के मंदिर तोड़ने और बौद्ध मठ तोड़ने जैसे मिथकों का सहारा लिया जा रहा है।
दरअसल भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान क्रिश्चियन मिशनरियों को धर्मांतरण के काम के लिए वैचारिक आधार भूमि तैयार करने और यहां की अपार धन संपदा लूटने का मार्ग सुगम बनाने के लिए विलियम जोंस, जेम्स मिल, लार्ड मैकाले और मैक्स मूलर जैसे लोगों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत गढ़ा। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि विदेशों से आए आर्यों ने यहां के मूल निवासी द्रविड़ और आदिवासियों को पराजित करके यहां से मारकर भगा दिया। लेकिन इस सिद्धांत को गढ़ने वाले साहित्यिक, पुरातात्विक या अन्य तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर पुख्ता तौर पर यह तक नहीं बता सके कि ‘विदेशी आर्य’ भारत कहां से और कब आए? आर्य आक्रमण सिद्धांत को स्थापित करने वालों का मानना है कि आर्य विदेशी खानाबदोश थे लेकिन दार्शनिक और सुसंस्कृत थे, उनकी साहित्य में रूचि थी, उनकी अपनी समृद्ध भाषा थी, वे घुड़सवारी और तीरंदाजी जानते थे जबकि भारत के मूल निवासियों के पास इस तरह के ज्ञान का नितांत अभाव था। आर्य आक्रमण का मिथक गढ़ने वाले ये स्पष्ट नहीं कर सके कि दार्शनिक, सुसंस्कृत और साहित्य व कला में रुचि रखने वाला समुदाय आक्रमणकारी और खानाबदोश कैसे हो सकता है।
इसके अलावा 1921 में सिंधु घाटी सभ्यता की खोज ने तो इस सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया। आर्य आक्रमण सिद्धांत के अनुसार भारत के मूल निवासी द्रविड़ और आदिवासी, आर्यों के मुकाबले ’असभ्य और भाषा संस्कृति विहीन’ थे। लेकिन उनकी सिंधु घाटी सभ्यता उस काल में विश्व की सर्वश्रेष्ठ नगरीय सभ्यता थी। नगर नियोजन और रसायनों व धातुओं के प्रयोग को लेकर इनका ज्ञान अद्वितीय था। पुणे के दक्कन कॉलेज ऑफ आर्कियोलॉजी के प्रो. वसंत शिंदे और बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान की प्राचीन डीएनए प्रयोगशाला के प्रमुख नीरज राय के शोधों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। प्रो. शिंदे की अगुवाई में हरियाणा के राखीगढ़ी में उत्खनन के दौरान मिले कोई पांच हजार साल पुराने कंकाल के डीएनए परीक्षण से साफ हो गया है कि यह उत्तर और दक्षिण दोनों क्षेत्रों के भारतीयों से अधिक मिलता है जबकि मध्य एशिया के आर्यों से इसकी कोई समानता नहीं है। आईआईटी खड़गपुर ने भी आधुनिक शोधों के आधार पर एक कैलेण्डर जारी करके 12 तथ्यों के आधार पर आर्य आक्रमण के मिथक को समझाने का प्रयास किया है।
भारतीय सनातन संस्कृति को नष्ट करने के लिए विदेशी आक्रांताओं ने मंदिर तोड़े थे, यह तथ्य प्रमाणित हो जाने के बाद उनके बचाव के लिए यह साबित करने के प्रयास किए जा रहे हैं कि धन संपदा लूटने के लिए मंदिरों को तोड़ना सामान्य प्रक्रिया थी। हिन्दू राजा भी ऐसा ही करते थे। वामपंथी इतिहासकार इसके लिए पल्लव राजा नरसिंह देव वर्मन के हाथों चालुक्यों की पराजय के बाद वातापि के भगवान गणेश का मंदिर लूटने की घटना का प्रमुखता से जिक्र करते हैं। लेकिन मंदिर लूट की घटना को उन्होंने शरारत पूर्वक मंदिर तोड़ने की तरह प्रचारित किया। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि लूट के बाद मंदिर की मूर्तियों का क्या किया गया?
हकीकत यह है कि सनातन मान्यता के अनुसार प्रत्येक राजा को राज्य संचालन की शक्ति उसके आराध्य से प्राप्त होती थी। यह शक्ति क्षीण करने के लिए ही पराजित राजा के आराध्य की मूर्ति को विजेता राजा लूट कर अपने साथ ले जाता था ताकि इनकी कृपादृष्टि पराजित राजा को दोबारा प्राप्त न हो सके बल्कि ये देव उनके राज्य में खुशहाली लेकर आएं। इसीलिए नरसिंह देव वर्मन ने भी वातापि से लूटी गई भगवान गणेश की प्रतिमा को अपने जन्मस्थान पर विधि-विधान से स्थापित किया था। इसके उलट विदेशी आक्रांताओं ने मंदिरों को लूटकर देव प्रतिमाओं को तोड़ा और उनका प्रयोग मस्जिद की सीढ़ियां बनाने में करवाया।
खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले संगठन आरोप लगा रहे हैं कि सैकड़ों साल पुराने मामले उखाड़ कर हिन्दू मुसलमानों के बीच नफरत के बीज बोए जा रहे हैं। उनको लगता है कि देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को विदेशी आक्रांताओं के कुकृत्यों पर सवाल नहीं उठाने चाहिए क्योंकि इससे मुस्लिम समुदाय की भावनाएं आहत होती हैं। वे अपने आराध्यों की मूर्तियों के पूजन का अधिकार मांगने के लिए न्यायालय से गुहार भी न करें। यहां तक कि वे उस स्थान पर भी वजू यानि कुल्ला करने और हाथ पैर-धोने का न्यायिक प्रक्रिया तक से विरोध न करें जिसे वे पवित्र शिवलिंग मान रहे हैं। छद्म धर्मनिरपेक्षता के झण्डाबरदार पूजास्थल कानून का हवाला देकर हिन्दुओं के लिए न्यायालय का रास्ता भी बंद करना चाहते हैं।
श्रीराम जन्मभूमि मामले में उच्चतम न्यायालय में साबित हो चुका है कि जिस स्थान पर विवादित ढांचा था वही श्रीराम जन्मभूमि है इसके बावजूद मुसलमानों को भड़काने के लिए कहा जा रहा है कि उस स्थान पर मस्जिद थी और मस्जिद रहेगी। यूं तो उलेमा अपनी तकरीरों में इस्लाम को शांति का मजहब बताते हैं। लेकिन कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष तौर पर धमकी देते रहते हैं कि यह शांति तभी संभव है जब उनके रास्ते में कोई न आए। धौंस तो यहां तक कि अगर किसी को इस्लाम से दिक्कत है तो वह भारत छोड़कर चला जाए। लेकिन ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि अंग्रेजों के शासन में पूज्य मातृभूमि का विभाजन झेल चुके देश के बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के सामने अब एक और विभाजन या पलायन का विकल्प शेष नहीं बचा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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