– मृत्युंजय दीक्षित
हिंदी साहित्य के प्रकृति प्रेमी कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 को उत्तराखंड के कुमाऊं की पहाड़ियों में स्थित बागेश्वर के गांव कौसानी में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित गंगादत्त एवं मां का नाम सरस्वती देवी था। जन्म के कुछ घंटों के भीतर ही उनकी मां का निधन हो गया था। उनका पालन-पोषण उनकी दादी के हाथों हुआ। पंत अपने भाई -बहनों से सबसे छोटे थे और बचपन में उनका नाम गोसाई दत्त रखा गया।
शिक्षाः पंत जी की प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा जिले में हुई। 18 वर्ष की उम्र में गोसाईदत्त नाम से ही हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें अपना यह नाम पसंद नही आ रहा था। अतः उन्होंने अपना नाम बदल कर सुमित्रानंदन पंत कर लिया । हाईस्कूल के बाद वे स्नातक करने इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंचे। यहां स्नातक की पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में कूद पड़े। वह स्नातक नहीं कर सके पर हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और बांग्ला साहित्य का अध्ययन करते रहे। अल्मोड़ा अखबार, सरस्वती, वेंकटेश समाचार जैसे अखबारों को पढ़ने से कविता में रुचि विकसित हुई।
रचनात्मक जीवनः पंत जी ने कक्षा चार से ही लिखना प्रारम्भ कर दिया था । उनकी साहित्यिक यात्रा का आरम्भ छोटी कविताओं से हुआ । वर्ष 1922 में पहली पुस्तक ‘उच्छव’ और दूसरी ‘पल्लव’ नाम से प्रकाशित हुई। फिर ‘ज्योत्सना’ और ‘गुंजन’ का प्रकाशन हुआ। उनकी रचनाओं का पहला संकलन 1927 में ‘वीणा’ नाम से प्रकाशित हुआ। इन कृतियों को कला और सौंदर्य की अनुपम कृति माना जाता है। हिंदी साहित्य में इसे पंत का स्वर्ण काल भी कहा जाता है। वर्ष 1930 में वह महात्मा गांधी के नमक आंदोलन में शामिल हुए और देश के प्रति गंभीर हो गए। वह कुछ समय कालाकांकर में भी रहे। यहां ग्रामीण जीवन से उनका परिचय हुआ। यहां पर उन्होंने ग्राम्य जीवन की दुश्वारियों पर कविताएं लिखीं। पंत जी ने अपनी कविताओं में न केवल प्रकृति के सौन्दर्य को स्थान दिया वरन प्रकृति के माध्यम से मानव जीवन के बेहतर भविष्य की कामना भी की। उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन चरण माने गए हैं। पहला छायावादी, दूसरा प्रगतिशील और तीसरा अध्यात्मवादी है। तीनों चरण उनके जीवन में आने वाले परिवर्तनों के प्रतीक भी हैं। पंत जी पांडिचेरी के अरविंदो आश्रम गए। इसे उनकी आध्यात्मिक यात्रा का प्रस्थान बिंदु माना जाता है ।
हिंदी साहित्य को व्यापक रूप देने के लिए पंत जी ने 1938 में ‘रूपाभ’ नामक एक प्रगतिशील पत्रिका का शुभारम्भ किया। 1955 से 1962 तक ऑल इंडिया रेडियो में भी कार्य किया। उनके प्रमुख और चर्चित कविता संग्रह-वीणा, गांधी, पल्लव, गुंजन, युंगाल, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्णधूलि, युगांतर, उत्तरा, युगपथ,चिदंबर, काल, बुद्धदेव और लोकायतन हैं। उनका एक कहानी संग्रह ‘पांच कहानियां’ हैं। साथ ही 1960 में एकमात्र उपन्यास ‘हर ओर’ और 1963 में एक आत्मकथात्मक संस्मरण ‘सिक्सटी ईयर्स -एक रेखा’ उल्लेखनीय है। यह उपन्यास उनकी विचारधारा और लोकजीवन के विषय में जानकारी देता है। पंत प्रकृति प्रेमी कवि हैं। छठी कक्षा में उन्होंने बारिश को देखकर पहली कविता लिखी थी। पंत जी ने चींटी से लेकर ग्रामीण युवती के सौंदर्य पर कविता लिखी है।
सुमित्रनांदन पंत के रचना संसार में प्रकृति, आलंबन, उद्दीपक , संवेदना, रहस्य, मानवीयता का बोध है। वह अपनी कविताओं में बादलों से बरसने का आह्वान भी करते हैं। वसंत, वर्षा, पतझड़ सभी ऋतुएं उनकी कविता में हैं। पंत जी की भाषा शैली अत्यंत सरल एवं मधुर है।
सम्मानः वर्ष 1960 में पंत जी को कविता संग्रह ‘काला और बुद्ध चंद’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1961 में पद्म भूषण और 1968 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। कविता संग्रह, ‘चिदंबरा’ और ‘लोकायतन’ के लिए सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनका संपूर्ण साहित्य ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के आदर्श से प्रभावित है।
अवसानः आजीवन अविवाहित रहे छायावादी दौर के इस महत्वपूर्ण स्तंभ का जिस्मानी अंत 28 दिसंबर, 1977 को घातक दिल के दौरे से हुआ। तब अंग्रेजी-हिंदी के तमाम बड़े अखबारों ने उनके अवसान पर संपादकीय लिखे। डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने कहा था- सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु से छायावाद के एक युग का अंत हो गया।
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