अयोध्या (ayodhya) । 22 दिसंबर 1949 की सर्द रात अयोध्या (ayodhya) में एक ऐसा काम हो गया, जिसने सुबह तक दिल्ली में हड़कंप मचा दिया. सुबह तक पूरे अयोध्या में खबर फैल गई कि बाबरी मस्जिद में प्रभु राम प्रकट (Lord Ram appears in Babri Masjid) हो गए हैं. दरअसल रात में कुछ लोगों ने राम चबूतरे से भगवान राम की मूर्ति उठाकर बाबरी मस्जिद में रख दी थी. इस घटना के बाद एक नाम बेहद चर्चा में आ गया था- परमहंस रामचंद्र दास. यही आगे चलकर रामजन्मभूमि आंदोलन (ram janmbhoomi andolan) की धुरी बने.
सिर पर जटा, छाती तक लटकी बेतरतीब सफेद दाढ़ी, मटमैले हो चुके तुड़े-मुड़े सफेद कपड़े, शख्सियत जितनी सरल, आवाज उतनी ही मुखर कुछ इसी तरह दिखते थे अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन की जान महंत रामचंद्र दास परमहंस. उनके जीवन का एकमात्र स्वप्न था जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर. वो इसी सपने के साथ जिए और इसी स्वप्न को सच करने के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे.
राम जन्मभूमि आंदोलन के महानायकों में महंत रामचंद्र दास परमहंस इकलौती हस्ती थे, जो इस आंदोलन के हर पहलू से सीधे जुड़े हुए थे,चाहे संतों की धर्म संसद हो, राम भक्तों की रैली हो, सरकार के साथ वार्ता या फिर राम जन्मभूमि का मुकदमा. अयोध्या में जन्म स्थान पर रामलला के प्रकट होने से लेकर जन्मभूमि का ताला खुलवाने और फिर बाबरी ढांचे के विध्वंस तक मंदिर आंदोलन में महंत रामचंद्र दास परमहंस की न सिर्फ छाप मौजूद है, बल्कि वो सक्रिय भूमिका में हर जगह मौजूद भी हैं.
22-23 दिसंबर 1949 की रात जब रामलला अयोध्या में अपने जन्म स्थान पर प्रकट हुए, तब महंत रामचंद्र दास परमहंस वहीं थे. इस घटना के बाद जब राम जन्मस्थान पर प्रशासन ने ताला लगवाया, तब रामलला के पूजा का अधिकार मांगने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले भी परमहंस ही थे. अयोध्या में राम जन्मभूमि के लिए परमहंस का संघर्ष 1949 की घटना से 15 साल पहले ही शुरू हो गया था.
रामचंद्र दास परमहंस इस घटना से चार साल पहले बिहार के छपरा जिले से अयोध्या पहुंचे थे. तब उनका नाम था चंद्रेश्वर तिवारी. पटना से आयुर्वेदाचार्य की पढ़ाई करने वाले चंद्रेश्वर तिवारी लगभग 17 साल की उम्र में 1930 में वैराग्य की यात्रा पर अयोध्या पहुंचे थे, जहां दिगंबर अखाड़े की छावनी में परमहंस रामकिंकर दास ने उन्हें दीक्षा दी. संन्यास दीक्षा के बाद उनका नामकरण हुआ. परमहंस रामचंद्र दास वेद-पुराण और रामायण के अद्भुत विद्वान के रूप में परमहंस इतने लोकप्रिय हुए कि धर्म सम्राट कहे जाने वाले करपात्री जी महाराज ने उन्हें चलता-फिरता पुस्तकालय बताया, तो रामानंदाचार्य स्वामी भगवदाचार्य ने उन्हें प्रतिवादी भयंकर की उपाधि दी.
परमहंस के बारे में मशहूर था कि उनकी वाणी में कोई दैवीय शक्ति है. इसका एहसास राम मंदिर आंदोलन के पहले चरण में हुआ. परमहंस रामचंद्र दास को वर्ष जुलाई 1984 में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाया गया था. इस समिति का पहला लक्ष्य था राम जन्मभूमि का ताला खुलवाना.
8 मार्च 1986 के पहले राम जन्मभूमि का ताला नहीं खुला
विश्व हिंदू परिषद की दूसरी धर्म संसद में अयोध्या जन्म स्थान का ताला खुलवाने का संकल्प लिया गया. सरकार पर दबाव डालने के लिए ये प्रस्ताव पारित हो चुका था, लेकिन वहीं देश भर के लगभग नौ सौ बड़े संतों के बीच महंत रामचंद्र दास परमहंस ने ऐलान कर दिया कि अगर महाशिवरात्रि यानी 8 मार्च 1986 के पहले राम जन्मभूमि का ताला नहीं खुला, तो वे आत्मदाह कर लेंगे. परमहंस की इस प्रतिज्ञा से साधु-संत और रामभक्त ही नहीं, बल्कि सरकार भी सकते में आ गई..
राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए महंत अवेद्यनाथ के साथ परमहंस रामचंद्र दास जन जागरण में जुटे थे. उसी बीच दिसंबर 1985 में राम मंदिर निर्माण के लिए एक न्यास बनाने का फैसला हुआ. श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष बनाए गए जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी शिव रामाचार्य. वर्ष 1989 में स्वामी शिव रामाचार्य के ब्रह्मलीन होने के बाद सवाल उठा कि मंदिर निर्माण न्यास की कमान किसको सौंपी जाए?
जनवरी 1989 में प्रयाग में तीसरी धर्म संसद में राम जन्मभूमि पर शिलान्यास का प्रस्ताव भी राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने ही किया. उस वक्त मंडल आयोग की रिपोर्ट पर ओबीसी आरक्षण की राजनीति चरम पर थी. उस दिन महंत अवेद्यनाथ के हाथों से ईंट लेकर उन्होंने दलित रामभक्त कामेश्वर चौपाल से शिलान्यास कराकर ये शंखनाद भी कर दिया कि रामभक्तों को जातियां में नहीं बांटा जा सकता.
1990 को अयोध्या में कारसेवा करने का ऐलान
राम मंदिर के शिलान्यास के बाद सरकार और राम भक्तों के बीच टकराव बढ़ने लगा. इस मुद्दे पर केंद्र और यूपी सरकार से जिन साधु-संतों की बात हो रही थी, उसका नेतृत्व परमहंस ही कर रहे थे. राजनीति का खेल समझने के बाद उन्होंने 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में कारसेवा करने का ऐलान कर दिया.
30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में कारसेवकों के जिस जत्थे पर पुलिस ने गोलियां चलाईं, उसका नेतृत्व परमहंस ही कर रहे थे. अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन को खत्म कराने के लिए सरकार केंद्र और प्रदेश की सरकारें साल 1986 से ही साम-दाम और भेद की राजनीति आजमा रही थीं. पहले साम यानी समझौते की कोशिश हुई.
साम, दाम और भेद की रणनीति फेल होने के बाद राजसत्ता का अंतिम हथियार था कारसेवकों पर फायरिंग, जिसका उल्टा असर हुआ. दो वर्ष बाद ऐसी ही कार सेवा के लिए उमड़े राम भक्तों ने बाबरी ढांचे को ध्वस्त कर दिया. राम मंदिर के लिए सब कुछ न्योछावर करने का ये जोश जिन संतों की वाणी ने भरा था, उसमें सबसे प्रखर वक्ता महंत रामचंद्र दास परमहंस ही थे. बाबरी विध्वंस के बाद जब राम मंदिर आंदोलन ठंडा पड़ने लगा था, तब भी परमहंस रामचंद्र दास ने राम भक्तों के इस सपने का अलख जगाए रखा. बाबरी विध्वंस के एक दशक बाद मार्च 2002 में वो एक बार फिर उसी तेवर में सामने आए.
2003 को महंत रामचंद्र दास परमहंस ब्रह्मलीन हुए
जनवरी 2002 में परमहंस ने संतों और राम भक्तों के बीच इस हुंकार के साथ ही ये शर्त रख दी कि राम मंदिर निर्माण के लिए जो शिलाएं जुटाई गई हैं, उन शिलाओं को वे खुद जन्मस्थान पर जाकर सरकार को सौंपना चाहते हैं. परमहंस ने इस अभियान को नाम दिया था- शिलादान..और इस बार भी उन्होंने अपनी जान की बाजी लगा दी. राम मंदिर निर्माण के लिए शिलाएं सौंपने के लगभग सवा साल बाद 31 जुलाई 2003 को महंत रामचंद्र दास परमहंस ब्रह्मलीन हो गए. राम मंदिर का निर्माण होते वो अपनी आंखों से नहीं देख पाए, लेकिन करोड़ों राम भक्तों के दिलों में वो बहुत पहले ही ये विश्वास भर चुके थे कि राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण को कोई नहीं रोक सकता.
राम मंदिर आंदोलन में अपने नींव के इसी सबसे मजबूत पत्थर महंत रामचंद्र दास परमहंस को मंदिर निर्माण ट्रस्ट ने शिद्दत से याद किया. राम जन्मभूमि की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का निमंत्रण ब्रह्मलीन हो चुके परमहंस को भी भेजा गया, जिनकी आत्मा राम जन्मभूमि में बसती थी. इस संसार से अपना शरीर त्यागने से पहले परमहंस ने कहा था कि अगर उन्हें मोक्ष और राम मंदिर में से चयन करना हो तो वो राम मंदिर ही चुनेंगे, उन्हें मोक्ष नहीं चाहिए.
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