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हड़ताल से रुकती है प्रगति, बुझते हैं गरीब घरों के चूल्हे

November 27, 2020

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

विरोध-प्रदर्शन लोकतंत्र की ताकत है लेकिन तभी जब वह सार्थक और सकारात्मक हो। इसलिए विरोध जरूरी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि विरोध के नाम पर व्यवस्था बिगाड़ दी जाए। विरोध लोकतांत्रिक तरीके से होना चाहिए। जरूरी मुद्दों पर होना चाहिए और उसमें किसी भी तरह की राजनीति का प्रवेश नहीं होना चाहिए। भारतीय मजदूर संघ को अपवाद मानें तो देशभर के मजदूर संगठनों ने धरना-प्रदर्शन और रैलियों का आयोजन किया।

उत्तर प्रदेश सरकार ने मौके की नजाकत को देखते हुए पहले ही राज्य में एस्मा लागू कर दिया है, जिसमें कर्मचारियों के छह माह तक हड़ताल करने पर रोक है लेकिन इसके बाद भी कुछ मजदूरों संघों ने धरना-प्रदर्शन किया। रैलियां निकालीं। मजदूर संगठनों और किसानों ने संविधान दिवस को ही विरोध के लिए चुना। इसके भी अपने मंतव्य हैं। उन्हें सोचना होगा कि हर हड़ताल से देश की प्रति रुक जाती है। विकास का ढांचा हिल जाता है। विकास की श्रृंखला टूटती है, रोटेशन बिगड़ता है तो उसका खामियाजा देश के हर आम और खास को भुगतना पड़ता है और इस हड़ताल से रोजमर्रा की जिंदगी जीने वाले मजदूरों के घरों के चूल्हे बुझ जाते हैं। कभी किसी मजदूर संगठन ने उनकी पीड़ा जानने-समझने की कोशिश नहीं की।

विपक्ष का हमेशा आरोप रहा है कि भाजपा शासित केंद्र और राज्य सरकारों में संविधान की हत्या हो रही है। संविधान दिवस के ही दिन मजदूरों के धरना-प्रदर्शन और रैलियों से उनके आरोपों को मजबूती मिली है लेकिन अपनी बात को सच साबित करने के लिए उन्होंने देश का कितना नुकसान किया है। इस आंदोलन के जरिये वे कितने लोगों की परेशानियों के सबब बने हैं, इसपर शायद विचार नहीं किया गया और न ही कभी इस आत्मचिंतन होने की संभावना है। मजदूर संगठनों की जुबान पर बस एक ही बात है, वह यह कि केंद्र सरकार की नीतियां जनविरोधी, मजदूर विरोधी और राष्ट्रविरोधी हैं लेकिन अपनी बात को साबित करने के लिए बहुतों के पास कोई आधार नहीं है। जो उनके संगठन के मुखिया ने समझा दिया, वही उनके लिए ब्रह्मवाक्य है।

हर आंदोलन देश को एक घाव दे जाता है और वह घाव है विकास की दौड़ में एकदिन पिछड़ जाने का। आज के मजदूर आंदोलन का भी कुल मिलाकर यही हश्र रहा है। मजदूर संगठन जब अपनी आंखों पर राजनीति का चश्मा लगा लेते हैं तो ऐसा ही होता है। अपने सवार्थ की प्रतिपूर्ति के चक्कर में वे देश का हिताहित भूल जाते हैं। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। मजदूर संगठनों का आंदोलन हो तो उन्हें समर्थन देने वालों की भी सहसा पौध उग आती है। इसबार भी कमोबेश ऐसा ही हुआ है। मजदूरों के समर्थन में किसान संगठन भी सड़कों पर उतर गए और जगह-जगह सरकारी मशीनरी के साथ उनकी खींचातानी भी हुई है। हाल ही में लागू किए गए कृषि संबंधित तीन नए कानूनों के विरोध में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तथा अन्य राज्यों के किसान दिल्ली चलो नारे के साथ दो दिन का विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। श्रमिकों और कर्मचारी संगठनों के आंदोलन के चलते बैंकिंग, बीमा, खनन और अन्य विनिर्माण गतिविधियां लगभग ठप रहीं। झारखंड, छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों की कोयला खदानों तथा अन्य खदानों में कामकाज नहीं हुआ। बैंकों के कर्मचारी भी हड़ताल पर रहे और बीमा कर्मचारियों ने भी हड़ताल में हिस्सा लिया।

वाम दलों का अनुमान है कि आंदोलन में 25 करोड़ से अधिक कर्मचारियों ने भाग लिया। वाम समर्थित 10 केंद्रीय मजदूर संगठनों के आह्वान पर आयोजित इस हड़ताल में भारतीय जनता पार्टी समर्थक भारतीय मजदूर संघ शामिल नहीं हुआ क्योंकि भारतीय मजदूर संघ ने इसे राजनीति से प्रेरित बताया है। मजदूरों की हड़ताल में बैंक कर्मचारी भी शामिल रहे तथा विभिन्न सरकारी, निजी और कुछ विदेशी बैंकों के लगभग चार लाख कर्मचारियों ने केंद्रीय मजदूर संगठनों की इस एकदिवसीय राष्ट्रव्यापी हड़ताल में भाग लिया।

कुछ स्वतंत्र फेडरेशन व संगठन भी हड़ताल का हिस्सा बने। पुड्डुचेरी, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, असम, मणिपुर, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में भी मजदूरों ने विरोध-प्रदर्शन किया। मजदूर संगठनों का आरोप है कि केंद्र सरकार जनविरोधी नीतियां लागू कर रही है और आम जनता के खिलाफ फैसले ले रही है। मजदूर संगठन सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश और इनका निजीकरण करने का विरोध कर रहे हैं।

मजदूर संगठनों ने न्यूनतम पेंशन, न्यूनतम मजदूरी, सभी मजदूरों को सामाजिक दायरे में लाने और समान वेतन व्यवस्था की मांग की है। वे हाल ही में किए गए श्रमिक सुधारों का भी विरोध कर रहे हैं और मजदूरों का आरोप है कि इनसे उनके हितों को नुकसान पहुंचेगा। हड़ताल के कारण सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान और ग्रामीण बाजार 80 प्रतिशत बंद रहे। हरियाणा और उत्तर प्रदेश से दिल्ली में आने वाले दिल्ली, गाजियाबाद बॉर्डर, दिल्ली फरीदाबाद बॉर्डर, करनाल हाईवे, हापुड़ उत्तर प्रदेश, दिल्ली-चंडीगढ़ हाईवे, अंबाला पटियाला बॉर्डर, शंभू बॉर्डर अंबाला हरियाणा बॉर्डर सहित राज्य मार्गों पर पुलिस और किसानों के बीच में जमकर संघर्ष हुआ। घनघोर शीतलहर में किसानों पर पुलिस के द्वारा आंसू गैस का प्रयोग कर वाटर कैनन से पानी की बरसात कर उन्हें भिंगोया गया फिर भी किसान डटे रहे। इससे जरूरतमंद लोगों को आने-जाने में परेशानी हुई।

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को लगता है कि किसानों पर कड़ाके की ठंड में पानी की बौछार अन्याय है लेकिन रेल यातायात बाधित करना, सरकारी संपत्ति को नष्ट करना कितना जायज है, राहुल गांधी को विचार तो इस बात पर करना चाहिए। उनका तर्क है कि किसानों से सबकुछ छीना जा रहा है और पूंजीपतियों को थाल में सजाकर बैंक, कर्जमाफी, एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन बांटे जा रहे हैं। सवाल यह है कि निजीकरण की पहल तो कांग्रेस शासन में भी हुई थी। जिन उद्योगपतियों को आगे बढ़ाने के वे दावे कर रहे हैं, उन उद्योगपतियों के पास क्या था। सच यह है कि उन्हें आगे बढ़ाने में कांग्रेस का भी हाथ रहा है। देश घोर राजनीतिक अराजकता के दौर से गुजर रहा है और इसका नुकसान इस देश को हो रहा है। अच्छा होता कि राजनीतिक दल और मजदूर संगठन विरोध करने से पूर्व एकबार आत्ममंथन तो कर लेते।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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