– आर.के. सिन्हा
राजस्थान के कोटा में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए अन्य राज्यों से आए तीन नौजवानों के आत्महत्या करने की घटना को सुनकर दिल दहल जाता है। जिन बच्चों का अभी सारा जीवन संभावनाओं से भरा पड़ा हुआ था, उन्होंने अपनी जीवन लीला को यूँ ही एक झटके में खत्म कर लिया। मृतक छात्रों में दो बिहार और एक मध्यप्रदेश के रहने वाले थे, जिनकी उम्र 16, 17 और 18 साल थी। मृतक छात्रों में बिहार के रहने वाले दोनों छात्र अंकुश और उज्ज्वल एक ही हॉस्टल में रहते थे। एक इंजीनियरिंग की कोचिंग कर रहा था, वहीं दूसरा मेडिकल की तैयारी करता था। मध्यप्रदेश का छात्र प्रणव नीट की तैयारी करता था। कोटा या देश के अन्य भाग में नौजवानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। कुछ समय पहले कोटा में ही नीट की तैयारी कर रहे कोचिंग स्टूडेंट ने फंदा लगाकर खुदखुशी कर ली थी। उसके पास से पुलिस को एक सुसाइड नोट भी मिला था। उसमें लिखा- “आई एम सॉरी मम्मी-पापा। मैं पढ़ना चाहता था, लेकिन दिमाग पता नहीं कैसा हो गया। इधर-उधर की चीजें सोचता रहता हूं।”
दरअसल अब बच्चों के आत्महत्या करने के मामले सामने आने से मन उदास सा होने लगा। यह स्वाभाविक ही है। कुछ समय पहले अखबार खोलते ही एक खबर पर नज़र गई। खबर थी कि इंजीनियरिंग के एक छात्र ने चौथी मंज़िल से छलांग लगा दी क्योंकि उसे इंजीनियरिंग में कोई रुचि नहीं थी पर घरवालों के दबाव के कारण उसे दाखिला लेना पड़ा। शुक्र है महज़ टांगें ही टूटीं पर जान बच गई लेकिन हर कोई इतना किस्मत वाला नहीं होता।
कोचिंग का गढ़ माने जाने वाले कोटा में आए दिन डिप्रेशन के कारण बच्चों की आत्महत्या का मामला संसद में भी कई बार उछल चुका है। और तो और, पंखों पर सेंसर लगाने पर भी विचार तक हो रहा है जिससे कि बच्चों के फांसी लगाने की कोशिश पर अलार्म बज जाए और समय रहते उन्हें बचा लिया जाए। समझ नहीं आता कि भारतीय मां-बाप अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर ही क्यों बनाना चाहते हैं। उन्हें आखिर क्यों ऐसा लगता है कि इन दो क्षेत्रों में पढ़ने से न केवल अच्छी नौकरी मिलेगी बल्कि समाज में रुतबा भी बढ़ेगा। कोई उनसे पूछे कि बैंकर्स नहीं हों तो उनका काम कैसे चले, टीचर्स न हो तो पढ़ाएगा कौन? किसान, मेनुफैक्चर्स, दूकानदार, खिलाड़ी, गायक हर व्यवसाय का अपना रोल और अपनी ज़रूरत है जिसे नकारा नहीं जा सकता।
निश्चित रूप से बच्चों को वही विषय पढ़ने चाहिए जो वे पढ़ना चाहते हैं तभी तो वे न केवल अच्छे नंबर लाएंगे, बल्कि बेहतर करियर भी चुन सकेंगे। पर अभिभावक तो अपने बच्चों की जान के पीछे पड़ जाते हैं कि वे फलां-फलां कोर्स ही लें। आए दिन होनेवाली आत्महत्याएं ये सोचने पर विवश कर रही हैं बच्चों पर करियर में सफल होने को लेकर अनायास दबाव क्यों बनाया जा रहा है। यह विचारणीय है कि आखिर क्यों इंजीनियरिंग या मेडिकल के बच्चे ही अधिकतर आत्महत्याएं करते हैं?
देखिए बच्चे को पालना कम से कम एक बीस वर्षीय प्लान है। अगर इस पर ढंग से काम कर लिया गया तो आपकी जिंदगी बेहतर होगी, नहीं तो ताउम्र बच्चे को पालना पड़ सकता है। पर हम ये कैसे जानें कि हमारी परवरिश सही है कि नहीं? संस्कारों के अलावा जीवन में भौतिक कामयाबी भी सही परवरिश का एक पैमाना है। कौन नहीं चाहता कि उसका बच्चा समाज में ऊंचा मुकाम हासिल करे, शोहरत-नाम कमाए पर इन सबके लिए ज़रूरी है कि बच्चे की काबिलियत के अनुसार मनचाहा करियर चुनने की आज़ादी भी दी जाए। यह एक कड़वा सच है कि हमारे समाज में सफलता का पैमाना अच्छी नौकरी, बड़ा घर और तमाम दूसरी सुख-सुविधाएं ही मानी जाती हैं और इन सबको हासिल करने के लिए एक अदद अच्छी डिग्री काफी मायने रखती है। पर ऐसा न हो कि हम भविष्य के चक्कर में अपने बच्चों का जीवन आज ही त्रासद बना दें, इतना कि वे आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मज़बूर हो जाएं या आपके सपनों के बोझ तले दबकर रह जाए।
कई बार परिवार के किसी सदस्य या पैसे की चकाचौंध से आकर्षित होकर भी बच्चे गलत विषयों का चयन कर लेते हैं और बाद में उम्र भर अफसोस करते रहते हैं। ऐसे में मां-बाप का फर्ज है कि उन्हें उनके चयन के बारे में पूरी जानकारी दें और बताएं कि आगे चलकर इनसे क्या-क्या करियर संभावनाएं निकल सकती हैं। चुपचाप तटस्थ रहकर देखने का अर्थ है कि हम अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रहे हैं। अगर ज़रूरी लगे तो किसी काउंसलर की मदद ली जा सकती है जो बच्चे का मेंटल एप्टीट्यूट देखकर सही करियर चुनने में मदद कर सकते हैं।
आजकल फीफा कप चल रहा है। इस सारे मामले को फीफा कप से जोड़कर भी देखिए। फीफा के बहाने दुनिया बेहतरीन फुटबॉल का आनंद ले रही है। इस बीच कुछ भारतीय कह रहे हैं कि हम क्यों नहीं इसमें भाग ले रहे? उन्हें अपनी गिरेबान में झांकना चाहिए कि क्या उन्होंने अपने बच्चों को कभी खेलों में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया? हमारा तो सारा फोकस इस बात पर है कि हमारे बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर या सिविल सेवा की परीक्षा को सफलतापूर्वक पास कर लें। हम उन पर दबाव बनाए रखते हैं। कहना न होगा कि कई बार मां-बाप के अत्यधिक दबाव के चलते ही बच्चे बेहद गंभीर कदम उठा लेते हैं। अपने बच्चों से तमाम उम्मीदें लगाकर बैठे मां-बाप को समझना चाहिए कि क्या वे सांसद या मंत्री बन गए जो अपने बच्चों पर प्रेशर बनाकर रखते हैं?
इस बीच, देखने में यह भी आ रहा है कि परीक्षाओं और उसके नंबरों को लेकर भी हमारे समाज का रवैया बदलने लगा है। याद कीजिए उस दौर को जब परीक्षाओं में अधिक अंक लेने पर आपको सारा समाज बधाई देता था। अड़ोस-पड़ोस में आपके नाम की चर्चा होती थी। आपकी उपलब्धियों पर सब गर्व करते थे। पर अचानक से देखने में अब यह आ रहा है कि बोर्ड परीक्षाओं में शानदार प्रदर्शन करने वाले परीक्षार्थियों की उपलब्धियों को कम करने का चलन चालू हो चुका है। उनके प्रदर्शन को भांति-भांति के कारण देकर खारिज किया जा रहा है। अगर किसी छात्र के 99 फीसदी अंक आ गए तो उससे सवाल पूछे जाने लगते हैं कि उसने इतने अंक कैसे ले लिए? हिन्दी या इतिहास जैसे विषयों में इतने अंक कैसे मिल सकते हैं? मानो उससे कोई अपराध हो गया हो। सीबीएसई यानी केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की 12 वीं कक्षा के नतीजों के बाद कथित स्टुडेंट्स काउंसलरों से लेकर स्वयंभू शिक्षा क्षेत्र के विद्वान सामने आने लगे हैं। ये कई सालों से परिणामों के बाद सोशल मीडिया से लेकर सेमिनारों तक में बहस करने के लिए आ जाते हैं। ये सवाल पर सवाल करते रहते हैं। ये सर्व ज्ञानी उनके साथ खड़े मिलते हैं जिनके कम अंक आए होते हैं। यानी मेहनत, तप, त्याग से जो बच्चे शानदार अंक ले रहे हैं, ये उन्हें कोई क्रेडिट देने के लिए आज के दिन तैयार नहीं दिखाई देता।
कुल मिलाकर बात यह है कि बच्चों को अंकों और हर हालत में सफल होने के लिए दबाव में रखा जा रहा है। इसके चलते जो हो रहा है उससे सब निराश भी हैं। इन बिन्दुओं पर फौरन विचार करके समाज को अपनी सोच और अपेक्षाओं को बदलना होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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