– गिरीश्वर मिश्र
यद्यपि गणतंत्र की अवधारणा और स्वाधीनता के विचार भारत में कई हज़ार साल पहले व्यवहार में थे परंतु ऐतिहासिक उठा-पटक के बीच वे धूमिल पड़ते गए थे। यदि निकट इतिहास में झाकें तो अंग्रेजी राज ने उपनिवेश स्थापित कर लगभग दो सदियों तक फैले काल-खंड में भारतीय समाज को साम्राज्यवाद का बड़ा कड़वा स्वाद चखाया था। भारत को अपने लिए उपभोग की सामग्री मान बैठ अंग्रेजों की कुनीति ने देश का भयंकर शोषण किया। उस दौर में भारत को अपने रंग-ढंग में ढालने की लगातार कोशशें होती रहीं। भारत का मौलिक स्वभाव संकीर्ण न हो कर वैश्विक था। परस्पर निर्भरता और अनुपूरकता के आधार पर सामाजिक समरसता, भ्रातृत्व और सौहार्द के साथ सह अस्तित्व को सांस्कृतिक लक्ष्य के रूप में वैदिक काल में ही स्वीकार करते हुए संकल्प लिया गया था – संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम के नायकों ने देश चलाने के लिए गणतांत्रिक पद्धति को विकल्प के रूप में अपनाया। गणतंत्र का वरण स्वाधीनता और लोक-संग्रह की भारतीय मानसिकता की दृष्टि के अनुकूल था।
अंग्रेज़ी राज में भारतीयता को संदिग्ध बनाते हुए उसका हर तरह से अवमूल्यन किया। इस विषैली सोच का सघन प्रचार-प्रसार करते हुए भारतीयों को भारत से अपरिचित बनाने का बीड़ा उठाया गया। इस प्रक्रिया में भारतीयों के मन में भारत के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव भी भरा गया । साथ ही वरीयताओं को बदलते हुए ऐसे कामों में झोंक दिया गया जो बुनियादी तौर पर अनुपयोगी थे परंतु उसे ही सार्वभौमिक प्रतिमान बना कर न केवल पेश किया बल्कि इसे अंगीकार करने के लिए समाज को बाध्य किया। भारतीयों को पराए को अपना बनाने और जो अपना था उसे पराया बनाने के लिए अंग्रेजों ने भयानक षडयंत्र रचा। इसके लिए लार्ड मैकाले की दूरगामी योजना के अनुसार शिक्षा का जबरदस्त विन्यास किया गया क्योंकि पूरा भारत अशिक्षित और अनपढ़ जनजाति में तब्दील करना था। वे एक नए भारत को गढ़ने में जुट गए जो शरीर से भारतीय और मन से अंग्रेज हो। यह दुविधा इतनी कूट-कूट भरी गई कि आत्मसंशय की गाँठ बहुतों के मन से आज भी नहीं जा सकी है। अंग्रेजी हुकूमत की दुरभिसंधि का प्रतिरोध महात्मा गांधी ने हिंद-स्वराज में अपनी सभ्यता-समीक्षा द्वारा किया था। बाद में विचारों में स्वराज की आवाज भी केसी भट्टाचार्य जैसे चिंतकों ने उसी दौर में उठाई थी जब स्वराज पाने की लड़ाई तेज हो रही थी। अंग्रेजी शासन की मिलने वाली शारीरिक और मानसिक पीड़ा के आलोक में गणतंत्र का विचार बड़ा आकर्षक और मुक्तिदायी लगा था। गणतंत्र के संचालन के लिए विचार-विमर्श के बाद भारतीय संविधान बना। उसे देश ने स्वीकार किया और उसकी परिधि में ही शासन संचालन के लिए अपने को प्रतिबद्ध किया।
देश को जब स्वाधीनता मिली थी तब देश की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल थी। शिक्षा, उद्योग, सामरिक तैयारी, और अन्य आधारभूत संसाधनों की दृष्टि से देश पिछड़ा हुआ था। अखंड भारत के विभाजन के चलते समाज के बहुत बड़े तबके को कई तरह के उत्पीड़न झेलने पड़े और कश्मीर जैसी कुछ समस्याओं का निदान न होने के कारण सतत आतंकवाद का सामना करना पड़ा। इस बीच देश के आंतरिक दबावों और वैश्विक राजनय के उतार-चढ़ाव के बीच भारतीय गणतंत्र मर्यादा में रहते हुए सात दशकों की यात्रा पूरी की है। चुनौतियों को स्वीकार करते हुए एक गणतंत्र के रूप में आकार लेने के बावजूद भारत औपनिवेशिकता की जकड़ से पूरी तरह से आजाद नहीं हो सका। लगभग दो सदियों के अंग्रेजी शासन के दौरान शिक्षा, कानून-व्यवस्था, भाषा-प्रयोग, नागरिक जीवन से जुड़ी व्यवस्थाओं और विश्व-दृष्टि के मामलों में हम पश्चिम के ही मुखापेक्षी हो गए और सारी व्यवस्थाएं उधारी की दृष्टि से लागू की जाती रहीं। इसका दुष्परिणाम अनेक क्षेत्रों में दिख रहा है।
आकार में विश्व के सभी देशों में सबसे बड़ा भारतीय गणतंत्र के जीवन में सर्वाधिक समय तक, कांग्रेस या कांग्रेसनीत सरकार ही बनी रही। इस बीच जिस तरह लालफीताशाही बढ़ी, घोटालों की झड़ी लगी और वंशवाद से बाहर न निकलने की विचित्र मजबूरी दिखी । इन सबसे देश की सबसे पुरानी पार्टी की साख बुरी तरह से घटी है । राजनीति की नई संस्कृति में राजनेता ज़मीन से दूर होते गए और निहित स्वार्थों को सुरक्षित रखने के उद्यम मुख्य हो गए। इस परिदृश्य में वर्तमान सरकार के एक दशक दृढ़ इच्छा-शक्ति के साथ राष्ट्रीय हितों के लिए संलग्नता की दिशा में प्रयास किया जिसे अपार जन-समर्थन मिला है। गरीबों और वंचितों की जरूरतों की ओर ध्यान देते हुए उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने के कदम उठाए, उद्योग और उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए प्रभावी पहल की, आधार-संरचना को मजबूत करने के बहु आयामी प्रयास चल रहे हैं, कृषि-व्यवस्था को सुधारने और उसे आर्थिक रूप से समर्थ बनाने का उपक्रम शुरू हुआ है। शिक्षा में संरचना, प्रक्रिया और सुविधाओं के लिए गंभीर सुधार लाने के प्रयास शुरू हुए हैं। काशी, उज्जैन और अयोध्या के प्राचीन धर्म क्षेत्रों में लोक-आस्था का आदर करते हुए जीर्णोद्धार और नव-निर्माण के कई साहसी और महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं जो जन-जन में भरोसा और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाले हैं। नए संसद भवन का रिकार्ड अवधि में निर्माण हुआ। सांस्कृतिक दृष्टि से स्टैच्यू आफ लिबर्टी और ओंकारेश्वर में शंकराचार्य की प्रतिमा कश्मीर के लिए संवैधानिक प्रावधान करते हुए ऐतिहासिक पहल की गई। साथ ही भ्रष्टाचार पर लगाम कसी गई है।
देश को सामरिक चुनौतियों के सामना करने के लिए सेना को आधुनिक उपकरणों और जरूरी तैयारी से लैस करने का काम तेज़ी से आगे बढा है। सेना ने कई अवसरों पर देश की शक्ति और सामर्थ्य को प्रमाणित किया है। विज्ञान और तकनीकी की दृष्टि से चंद्रयान की सफलता और सूर्य के अध्ययन के लिए आदित्य उपग्रह बड़ी सफलताएँ हैं। देश की सामर्थ्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने वाले कई कदम उठाए गए हैं। जी-20 का सफलतापूर्वक आयोजन और अनेक वैश्विक चर्चाओं में प्रमुखता से भागीदारी ने भारत की प्रतिष्ठा बढाई है। अमृत-काल में देश की क्षमता नई ऊँचाइयों को छू रही है। उन्नति की इस लय को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी कार्य-संस्कृति का विकास जरूरी है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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