– ऋतुपर्ण दवे
आंकड़ों का महत्व हर किसी को पता है। स्याही के जरिए या अब तकनीक के जरिए आंकड़ों की उकेरी गई आकृतियों और उनके अलग-अलग आकार-प्रकार से निर्मित अलग अंकों की जुगलबन्दी से कोई राशि बनती है। अंकों के ऐसे ही मेल से संबंधित या संदर्भित तथ्य या तथ्यों का वास्तविक भान होता है। अंकों के जोड़ बने आँकड़ों से ही किसी राष्ट्र की तरक्की, वहाँ की स्थिति और नागरिकों की हैसियत का पता चलता है।
ऐसे ही आंकड़े जारी करने वाली एक भारतीय संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई है, जो भारत में बेरोजगारी से संबंधित हर हफ्ते ताजा आंकड़े जारी करती है। इस निजी थिंकटैंक के आंकड़े एक से नहीं रहते क्योंकि यह एकदम ताजा होते हैं। सीएमआईई आंकड़ों की बाजीगरी नहीं करता है। इसकी सैंपलिंग भी पूरी तरह वास्तविकता का निचोड़ होती है क्योंकि यह मैदानी होती है। कई तरह के फॉर्मेट होते हैं, जिनमें आंकड़ों को भरा जाता है और उसका विश्लेषण किया जाता है। अगर अंकों में कहीं कोई बड़ा फेरबदल दिखता है तो पूरे देश में सुर्खियाँ बन जाती है। आंकड़े सरकार भी जुटाती है लेकिन सीएमआईई के आंकड़े अक्सर अपने विशुध्द सर्वेक्षण के लिए चर्चाओं में रहते हैं।
फरवरी 2019 के सीएमआईई के आंकड़ों की बात जरूरी है। जब देश में बेरोजगारी दर बढ़कर दो साल के शिखर पर पहुंच 7.2 प्रतिशत हो गई थी। यह सितम्बर 2016 के बाद की सबसे बड़ी बेरोजगारी दर थी जबकि साल 2018 के सितम्बर में यह आंकड़ा 5.9 प्रतिशत था। उस समय भी यह आंकड़े बेहद सुर्खियों में रहे क्योंकि मई में लोकसभा चुनाव होने थे। लगा कि इससे मोदी सरकार के सामने कड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है। लेकिन ऐसा नहीं था क्योंकि फरवरी 2018 में 40.6 करोड़ लोग काम कर रहे थे जबकि फरवरी 2019 में यह घटकर 40 करोड़ ही रह गए। बेरोजगारी दर में वृध्दि जरूर हुई थी लेकिन रोजगार ढ़ूंढ़ने वालों की संख्या भी तब कम हुई थी।
अब यह कोविड काल है। लॉकडाउन के कई दौर देखने के बाद धीरे-धीरे कई चरणों में अनलॉक के बाद अब देश लगभग अनलॉक है। कोरोना के डर से कई लोग घरों से वापस रोजगार पर नहीं जाना चाहते। इससे भी बेरोजगारी दर बढ़ी हुई है। मार्च से लेकर मई तक घर वापसी का जो कोहराम देखा गया, उससे रोजगार का सबसे बड़ा नुकासन हुआ। वेतन भोगी श्रेणियों में अप्रैल से जुलाई 2020 के दौरान कुल 18.9 मिलियन का नुकसान हुआ जबकि जून में 3.9 मिलियन नौकरियाँ मिलने के बाद जुलाई में 5 मिलियन नौकरियाँ खो गईं। इसी तरह गैर वेतन भोगी श्रेणी जिसमें छोटे व्यापारियों, फेरीवालों और दिहाड़ी मज़दूरों को लॉकडाउन से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। अप्रैल 2020 में खोई कुल 121.5 मिलियन नौकरियों में से 91.2 मिलियन गैर वेतन भोगियों की ही है। इस श्रेणी में रोजगार की लगभग 32 प्रतिशत हिस्सेदारी होती थी जिसमें अप्रैल 2020 में 75 प्रतिशत की कमी आई। पूरे देश में इसका प्रभाव देखने को मिला।
चूँकि वेतन भोगी नौकरियाँ रोजगार के लिए सबसे अच्छा मौका मानी जाती हैं इसलिए लोगों का झुकाव सबसे ज्यादा नौकरियों पर ही होता है। लेकिन यह भी सही है कि ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरी क्षेत्रों में सरकारी और निजी क्षेत्रों के वेतन भोगी नौकरियों की हिस्सेदारी अधिक होती है। कोविड काल में हुए पलायन के बाद अप्रैल से जुलाई के बीच गैर वेतन भोगी और अनौपचारिक श्रेणी के रोजगार में पिछले साल के मुकाबले थोड़ा सा सुधार हुआ है जो जुलाई 2020 में बढ़ा और 325.6 मिलियन हो गया जबकि 2019 में यह 317.6 मिलियन था यानी कुल 2.5 प्रतिशत बढ़ना बड़ी व उल्लेखनीय उपलब्धि है।
अभी देश में 10 राज्यों में जहाँ बेरोजगारी दर दो अंकों में है, नौकरियों को लेकर बुरा हाल है। पूरे देश में राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी की दर 6.8 प्रतिशत है जिसमें शहरी क्षेत्रों की दर 7.9 प्रतिशत और ग्रामीण की 6.3 प्रतिशत है। जबकि राज्यवार देखें तो उत्तराखण्ड में 22.3 प्रतिशत और हरियाणा में 19.7 प्रतिशत के साथ दोनों ही शीर्ष पर बने हुए हैं। वहीं त्रिपुरा में 17.4, राजस्थान में 15.3, दिल्ली में 12.2, बिहार में 11.9, पुड्डूचेरी में 10.9, प.बंगाल में 9.3, झारखण्ड में 8.2, उत्तर प्रदेश में 4.2, मध्यप्रदेश 3.9, ओडीशा में 2.1 प्रतिशत है।
ऐसे में दो छोटे राज्यों जिसमें एक नॉर्थ ईस्ट का असम तो दूसरा मध्य भारत के छत्तीसगढ़ ने देश मे सबसे कम बेरोजगारी दर लाकर अचरज में डाल दिया है। दोनों ही राज्यों मे ग्रामीण परिवेश ज्यादा है। हाँ असम में शिक्षित वर्ग कुछ ज्यादा है। असम सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पर अत्याधिक फोकस कर यह हासिल किया तो छत्तीसगढ़ ने कई अभिनव प्रयोग कर डाले। हैरानी की बात यह है कि कोविड की दहशत के बावजूद अप्रैल 2020 में ही 3.4 प्रतिशत दर्ज की गई जबकि यह दर सितंबर 2018 में 22.2 प्रतिशत थी। महज 19 महीनों में 18.8 प्रतिशत रोजगार मुहैया कराना बड़ी बात है। यदि मार्च-अप्रैल में यह रफ्तार रुक जाती तो इतनी चर्चा नहीं होती क्योंकि तब देश में बेरोजगारी के आंकड़े बढ़ रहे थे लेकिन 16 अक्टूबर को जारी आंकड़ों में बेरोजगारी दर घटकर 2 प्रतिशत रह गई।
निश्चित रूप से यह अथक प्रयासों से ही संभव हो पाया होगा। इसे राजनीतिक नुक्ताचीनी के बजाए देश की उपलब्धि मान अन्य राज्यों को भी अपनाने की जरूरत है। लॉकडाउन के बीच भूपेश बघेल सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था बचाने के साथ ही ग्रामीणों की आजीविका को बचाए रखने के लिए बड़े स्तर पर काम किया। मनरेगा से ग्रामीणों को रोजगार देने में छत्तीसगढ़ देश में पहला स्थान बना जिससे बेरोजगारी की दशा में सुधार हुआ। विशेष यह था कि मनरेगा कार्यों में लगे देश भर के कुल मजदूरों का लगभग 24 प्रतिशत छत्तीसगढ़ से हैं जो देश में सर्वाधिक हैं। छग की 9883 ग्राम पंचायतों में मनरेगा कार्यों में अभी भी 18 लाख 51 हजार 536 श्रमिक काम कर रहे हैं।
निश्चित रूप से पूरे देश में ऐसे ही प्रयासों की जरूरत है। कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों पर भी फोकस कर फसल बीमा और प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत लॉकडाउन अवधि में 900 करोड़ रूपए की राशि किसान खातों में ट्रांसफर के साथ खेती-किसानी के लिए आवश्यक छूट और सबसे बड़ा यह कि उनके उत्पादों के विक्रय की भी व्यवस्था सुनिश्चित की गई। लघु वनोपज के संग्रहण, खरीदी, बिक्री को जारी रखने के आदेश हुए। असर दिखा भी और वनांचलों में आर्थिक संकट नहीं रहा। महुआ फूल का समर्थन मूल्य 18 रुपए प्रति किलो से बढ़ाकर 30 किया गया वहीं 25 लघु वनोपजों की समर्थन मूल्य पर नकद खरीदी करा इनके संग्रहण कार्य में लगे सभी वनवासियों को रोजगार दिया।
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी छत्तीसगढ़ का उल्लेख करते हुए कहा कि राज्य ने न केवल अपनी अर्थव्यस्था को संभाले रखा, बल्कि आर्थिक विकास की दर को भी गतिशील रखा। इसी कारण दूसरे राज्यों की तुलना में छत्तीसढ़ की आर्थिक स्थिति बेहतर है। बस यही तरीका है जिसमें किसी भी राज्य को चुनौतियों के बीच ऐसे ही आर्थिक ढाँचों को मजबूती के साथ बनाए रखकर संतुलित तरीके से कर कार्य करना चाहिए।
‘द ट्राइबल को-ऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया’ यानी ट्राईफेड के आंकड़े भी बताते हैं कि छग ने देश में सर्वाधिक 90 प्रतिशत अधिक मूल्य की लघु वनोपजों की खरीदी की। वहीं केवल 2 राज्यों झारखण्ड और ओडिशा में लघु वनोपज खरीदी की शुरुआत हो सकी है। जरूरत है इसे पूरे देश के उन राज्यों में जहाँ गाँव, किसान और श्रमिकों की बहुलता है लागू किया जाए। निश्चित रूप से बेरोजगारी घटने से देश की आर्थिक प्रगति भी होगी और इससे देश न केवल मंदी से उबरेगा बल्कि ग्रामीणों का पलायन रुकेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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