– प्रमोद भार्गव
देश के गैर भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव की स्थितियां लगातार देखने में आ रही हैं। राजभवन जहां सरकार के फैसलों पर रोक लगा रहे हैं या प्रभावित कर रहे हैं, वहीं मुख्यमंत्री राज्यपालों पर अपनी विचारधारा को पोषित करने अथवा थोपने का आरोप लगा रहे हैं। पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक संवैधानिक मर्यादाओं का स्पष्ट उल्लंघन देखने में आ रहा है। हाल ही में महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार ने भगत सिंह कोश्यारी को सरकारी विमान से प्रदेश के बाहर यात्रा करने की अनुमति नहीं दी। यही नहीं, सरकार अब राजभवन के भीतर बने हेलिपेड को भी बंद कर रही है। दूसरी तरफ विधान परिषद् में राज्यपाल के कोटे की बारह सीटों पर मनोनयन के लिए मंत्रिमंडल द्वारा मंजूर बारह नामों की सूची 9 माह पहले राज्यपाल को भेजी है, जो अबतक लंबित है।
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनकड़ का ममता बनर्जी से टकराव शुरू से ही बना हुआ है। किंतु अब विधानसभा चुनाव के नजदीक आते-आते चरम पर है। ममता राज्यपाल पर भाजपा का एजेंडा चलाने का आरोप लगा रही हैं। वहीं राज्यपाल का आरोप है कि प्रदेश में समूचे प्रशासन का राजनीतिकरण कर दिया गया है। विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े केरल में मुख्यमंत्री पी विजयन और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच प्रदेश में संशोधित नागरिकता कानून खत्म करने के बाद से ही तीखा विवाद चल रहा है। वहीं देश की राजधानी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपाल अनिल बैजल के बीच भी विवाद चरम सीमा पर हैं। दरअसल दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है, इसलिए बैजल सरकार के कामों पर आपत्ति लगाकर उन्हें अटका देते हैं।
इन चार प्रांतों के ताजा घटनाक्रमों से साफ होता है कि राजभवन सत्ता के केंद्र की भूमिका में आ गए है, इसलिए उनका राज्य सरकारों से तालमेल नहीं बन पा रहा है। हालांकि राज्यों में जब केंद्र सरकार के विपरीत विचारधारा वाली सरकार होती है तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच कुछ फैसलों को लेकर टकराव का पैदा होना कोई नई बात नहीं है। यह एक तरह से परंपरा बन गई है।
राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति और उनके पूर्वग्रहों से प्रभावित कार्यप्रणाली से राज्यपाल जैसे पद की गरिमा हमेशा विवादग्रस्त होकर घूमिल होती रहती है। इसलिए जब केद्रीय सत्ता में परिवर्तन होता है तो राज्यपालों के बदले जाने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है। वैसे हकीकत तो यह है कि राज्यपाल का राज्य सरकार में कोई सीधा दखल नहीं है, इसलिए इस पद की जरूरत ही नहीं है। लेकिन संविधान में परंपरा को आधार माने जाने के विकल्पों के चलते राज्यपाल का पद अस्तित्व में बना हुआ है। अंग्रेजी राज में वाइसराय की जो भूमिका थी, कमोबेश उसे ही संवैधानिक दर्जा देते हुए राज्यपाल के पद में रूपांतरित किया गया है। वाइसराय जिन राजभवनों में रहते थे, उन्हीं वैभवशाली राजभवनों में लोकतंत्र के राज्यपाल उसी ठाठ-बाट से रहते हैं। इनके पास राजसी वैभव को बनाए रखने पर अरबों रुपए हर साल खर्च होते हैं। जबकि एक बड़ी आबादी भूखी है।
इसके बावजूद मनमोहन सिंह सरकार ने राज्यपालों को राज्यपाल संशोधन विधेयक-2012 लाकर इनकी आजीवन के लिए सुविधाएं बढ़ा दी थी। इस विधेयक के मुताबिक पूर्व राज्यपालों को आजीवन पेंशन, भत्ते, सरकारी आवास, संचार और निजी सहायकों की सुविधाएं सरकार मुहैया कराती रहेगी। मसलन सेवा निवृत्ति के बाद भी राज्यपालों का संस्थागत ढांचा बदस्तूर रहेगा। यह संवैधानिक उपाय कुछ वैसा ही है, जैसा आजादी के बाद राजा-महाराजाओं को प्रीवीपर्स देने के प्रावधान किए गए थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस सुविधा को गरीब जनता पर बोझ मानते हुए एक झटके में खत्म कर दिया था। इस संशोधित विधेयक को लाते वक्त कई दलों के नेताओं ने संसद में चर्चा के दौरान राज्यपाल पद को औपनिवेशिक काल से चली आ रही गुलामी की विरासत और सफेद हाथी बताते हुए, इसे खत्म करने की वकालत की थी, लेकिन विरोधामास यह रहा कि डेढ़ घंटे की बहस के बाद विधेयक को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया था। जाहिर है, राज्यपाल की उपयोगिता पर गंभीर समीक्षा की जरूरत है।
परंपरा के सम्मान और राज्यपाल की गरिमा को बनाए रखना है तो नरेंद्र मोदी सरकार 1988 में गठित सरकारिया आयोग की उन सिफाारिशों को अमल में लाए, जिनके तहत राज्यपाल की भूमिका एक हद तक निर्विवादित रहे। इस मकसद पूर्ति के लिए मुख्यमंत्री की सलाह से राज्यपाल की तैनाती की सिफारिश की गई है। आयोग का गठन नियुक्ति में पारदर्शिता लाने की दृष्टि से राजीव गांधी सरकार ने किया था। इसी परिप्रेक्ष्य में 2001 में अंतरराज्यीय परिषद् द्वारा बुलाई गई बैठक में सहमति बनी थी कि यह पद संवैधानिक गरिमा के अनुकूल बना रहने के साथ राजनीतिक दुराग्रह से भी निष्प्रभावी रहे, इस नाते राज्यपाल की नियुक्ति अनिवार्य रूप से प्रदेश के मुख्यमंत्री से पर्याप्त सलाह मश्विरे के बाद ही की जाए?
परिषद् ने यह सलाह भी दी थी कि एक तो राजनीति से जुड़े व्यक्तियों को राज्यपाल न बनाया जाए, दूसरे जो राज्यपाल सेवा मुक्त हो जाएं, उन्हें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में हिस्सा लेने के आलावा अन्य कोई चुनाव लड़ने अथवा प्रत्यक्ष राजनीतिक गतिविधि में भागीदारी से प्रतिबंधित किया जाए। किंतु बैठक में ’राजनीतिक गतिविधि’ की व्याख्या स्पष्ट नहीं की जा सकी। इस बहाने परिषद् की सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गईं।
असल में हमारे देश में जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति बनाम विकृति पिछले कुछ दशकों में पनपी है, उसमें संविधान में दर्ज स्वायत्त्ता का परंपरा के बहाने दुरुपयोग ही ज्यादा हुआ है। न्यायालय, निर्वाचन आयोग और कैग जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भी जान-बूझकर आक्रामक प्रहार किए गए। ऐसे में राज्यपाल तो सीधे राजनीतिक हित साधन के लिए केंन्द्रीय सत्ता द्वारा की गई नियुक्ति है। गोया राज्यपाल को प्रतिपक्ष संदेह की दृष्टि से देखता है। अक्सर इस पद को हाशिए पर पड़े थके-हारे उम्रदराज नेताओं अथवा सेवानिवृत्त नौकरशाहों से नवाजा जाता है। इन उपकृत राज्यपालों को जहां केंद्र्र अपना चाकर मानकर चलता है, वहीं ऐसे राज्यपाल भी स्वंय को नियोक्ता सरकार का नुमाइंदा समझने लग जाते हैं। लिहाजा पद की गरिमा के उल्लंघन में वे न तो शर्म का अनुभव करते हैं और न ही उन्हें संविधान की मूल भावना के आहत होने की अनुभूति होती है। हकीकत में वे केंद्र्र के अहसान का बदला चुका रहे होते हैं। पद की अवमानना और इसके औचित्य पर ऐसे ही कारणों के चलते सवाल खड़े होते हैं?
राज्यपाल की हैसियत और संवैधानिक दायित्व की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायमूर्तियों की खंडपीठ ने 4 मई 1979 को दिए फैसले में कहा था कि ‘यह ठीक है कि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं। जिसका अर्थ हुआ कि उपरोक्त नियुक्ति वास्तव में भारत सरकार द्वारा की गई है। लेकिन नियुक्ति एक प्रक्रिया है, इसलिए इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि राज्यपाल भारत सरकार का कर्मचारी या नौकर है। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हर व्यक्ति भारत सरकार का कर्मचारी नहीं होता। यही स्थिति राज्यपाल के पद पर लागू होती हैं।
ज्यादातर राज्यपाल संविधान की बजाए नियोक्ता सरकार के प्रति ही उत्तरदायी बने दिखाई देते हैं। यही वजह है कि गाहे-बगाहे वे राज्य-सरकारों के लिए परेशानी का सबब भी बन जाते हैं। इसलिए इस संस्था को गैर जरूरी करार दे दिया जाता है और इसके स्थान पर उच्च न्यायालों अथवा प्रमुख सचिवों को राज्यपाल के जो गिने-चुने दायित्व हैं, उन्हें सौंपने की बात राज्यपाल संशोधन विधेयक को पारित करते समय उठाई गई थी लेकिन इन बातों को दरकिनार कर दिया गया था। दरअसल राज्यपाल का प्रमुख कर्तव्य केंद्र सरकार को आधिकारिक सूचनाएं देना है। लेकिन राज्यपाल तार्किक सूचनाएं देने की बजाए, केंद्रीय सत्ता की मंशा के अनुरूप राज्य की व्यवस्था में दखल देने लग गए हैं। इस वजह से राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव के हालात पैदा हो रहें हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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