– डा. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की हालिया फूड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट बेहद चिंतनीय होने के साथ ही गंभीर भी है। रिपोर्ट के अनुसार सबसे चिंतनीय बात यह है कि दुनिया के देशों में 11 फीसदी भोजन हमारी थाली में नष्ट होता है। थाली में नष्ट होनेवाली भोजन की मात्रा में साधन संपन्न और साधनहीन, सभी तरह के देश समान रूप से एक ही स्थान पर आते हैं। यानी विकसित, विकासशील, अर्द्धविकसित और विकासहीन देशों में भोजन की बर्बादी को लेकर कोई भेद नहीं किया जा सकता है। खास बात यह कि एक ओर खाद्यान्नों की कमी और कुपोषण बड़ी समस्या है तो दूसरी तरफ अन्न की बर्बादी के प्रति कोई चिंता नहीं है। देखा जाए तो अन्न की यह बर्बादी हमारे हाथों हो रही है। इसके हम सभी भागीदारी हैं। यह तब है जब सारी दुनिया कोरोना संकट से अभी उबर नहीं पाई है। यह भी सच है कि कोरोना में भोजन की सहज उपलब्धता बड़ा सहारा बनी है। जब सबकुछ थम गया, सबके ब्रेक लग गए उस समय अन्नदाता की मेहनत के परिणाम से ही दुनिया बच सकी। नहीं तो अन्न के लिए जो अव्यवस्था सामने आती वह कोरोना से भी गंभीर होती। 2019 के आंकड़ों का ही अध्ययन करें तो दुनिया में करीब 69 करोड़ लोग भूख से जूझ रहे थे। यानी 69 करोड़ लोगों को दो जून की भरपेट रोटी नहीं मिल पा रही थी।
दुनिया के देशों की बात करें या ना करें पर हमारी सनातन संस्कृति में अन्न को ईश्वर का रूप में माना जाता रहा है। खेत में अन्न उपजने से लेकर उसके उपयोग तक की प्रक्रिया तय की गई है। किस तरह किस अन्न पर किसका हक रहेगा, यहां तक कि पशु-पक्षियों तक के लिए अन्न की हिस्सेदारी तय की जाती रही है। हमारे यहां रसोई को सबसे पवित्र स्थान माना जाता रहा है। रसोई की शुद्धता और शुचिता पर खास ध्यान दिया गया है। अन्नमय कोष की बात की गई है तो भूखे भजन न होय गोपाला जैसे संदेश भोजन की महत्ता की ओर इंगित करते हैं। रसोई में खाना बनाते समय पशुओं का भी ध्यान रखा गया है और यह हमारी परंपरा ही है कि जिसमें पहली रोटी गाय के लिए तो आखिरी रोटी श्वान के लिए बनाने की बात की गई है।
आज भी कहा जाता है कि महिलाएं चौका में व्यस्त रहती हैं। एक समय था जब रसोई की शुद्धता पर सबसे अधिक बल दिया जाता था। भोजन करने के भी नियम-कायदे तय किए गए। भजन और भोजन शांत मन से करने की बात की गई। खड़े-खड़े पानी पीने तक को निषिद्ध किया गया। पानी की शुद्धता पर बल दिया गया। भोजन करने से पहले अच्छी तरह हाथ धोने, चौके में भोजन करने और इसी तरह के अनेक नियम-कायदे बनाए गए। समय बदलाने के साथ इन्हें पुरातनपंथी कहकर नकारा गया। आज दुनिया के देशों को इनका महत्व समझ में आने लगा है। भोजन करने से पहले अच्छी तरह से हाथ धोने के लिए यूरोपीय देशों में अभियान तक चलाना पड़ रहा है। बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है। हालिया कोरोना महामारी में एक महत्वपूर्ण सुरक्षा उपाय हाथों को बार बार धोना भी शामिल है।
दरअसल जिस तरह की खानपान की व्यवस्था सामने आई है उसके दुष्परिणाम भोजन की बर्बादी के रूप में देखा जा सकता है। शादी-विवाह या किसी आयोजन के दूसरे दिन आयोजन स्थल गार्डन, सामुदायिक केन्द्र या इसी तरह के किसी सार्वजनिक स्थान के पास से गुजरने पर भोजन की बर्बादी दृष्टिगोचर हो जाती है। गार्डन या ऐसे स्थान के बाहर सड़क पर एकदिन पहले बनी सब्जियों आदि को फैले हुए आसानी से देखा जा सकता है। पशुओं को इसके आसपास मंडराते देखा जा सकता है। इलाके में बदबू फैलने की बात अलग है। इसी तरह किसी समारोह में खाने की प्लेटों को देखेंगे तो स्थिति साफ हो जाती है। भी़ड़ से बचने के लिए एकसाथ ही इस तरह से प्लेट को भर लिया जाता है कि दोबारा वह खाने की वस्तु मिलेगी या नहीं, ऐसा समझने लगते हैं या फिर दोबारा भीड़ में कौन आएगा। ऐसे में प्लेटों में छूटने वाली खाद्य सामग्री, सभ्य समाज का मुंह चिढ़ाती हुई दिख जाती है। यह सब सामने हैं। एक समय था जब परिवार के बड़े-बुजुर्ग थाली में जूठन छोड़ने पर बच्चों को नसीहत देते हुए मिल जाते थे। भोजन की थाली में जूठन छोड़ने को अपशकुन व उचित नहीं माना जाता था। पर अब स्थितियां बदल गई हैं। किसी को भी अन्न की बर्बादी की चिंता नहीं।
एक तथ्य और सामने आया है और वह यह कि कोरोना के दौर में लाॅकडाउन के चलते लोगों में खानपान की सामग्री के संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ रही है। खासतौर से यूरोपीय देशों में यह देखा गया है। दरअसल हमारे यहां प्रचुर मात्रा में कच्ची सामग्री संग्रहित होती है, वहीं यूरोपीय देशों में ब्रेड, पाव और इसी तरह की वस्तुओं का अधिक उपयोग होता है। इस सामग्री का उपयोग एक समय सीमा तक ही किया जा सकता है और उसके बाद वह उपयोग के योग्य नहीं रहती। ऐसे में यूरोपीय देशों में जरूरत से अधिक इस तरह की सामग्री के संग्रहण से बहुत अधिक भोजन सामग्री बर्बाद हुई और कोरोना जैसी परिस्थितियों में भोजन की बर्बादी का प्रमुख कारण बनी।
ऐसे में सोचना होगा कि भोजन की बर्बादी को कैसे रोका जाए। यह अपने आप में गंभीर समस्या हो गई है। दुुनिया के सामने दो तरह की चुनौतियां साफ है। एक दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का है जिन्हें एक समय का भरपेट भोजन नहीं मिल पाता तो पौष्टिक भोजन की बात बेमानी है। ऐसे में अन्न के एक-एक दाने को सहेजना होगा और भोजन के एक-एक कण को बर्बादी से बचाना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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