– गिरीश्वर मिश्र
‘कृष्ण’ यह नाम स्वयं में विलक्षण है। इसका एक प्रचलित अर्थ रंग का बोधक है और काला या श्यामल रंग बताता है पर असली अर्थ जिस रूप में जादू बनकर लोकचित्त में छाया हुआ है वह है- ‘जो अपनी ओर खींचता रहता है।’ कृष्ण की जितनी छवियां हम सब भारतीयों के मन में बसी हैं वे एक ऐसे नायक की सृष्टि करती हैं जो सब तरह से परिपूर्ण है। विष्णु के इस मानवी अवतार की विस्मयों से भरी लीलाएं मुग्ध करने वाली हैं। इनके जन्म से ही जो कौतूहल भरी यात्रा शुरू होती है वह जीवनपर्यन्त अविराम गतिमान रहती है। घर बाहर कंटकाकीर्ण पथ पर दुष्टों का दलन करते हुए अपना और अपने सहयोगियों, साथियों और भक्तों का कष्ट-निवारण करना ही उनका एकमात्र कार्य है। वात्सल्य, प्रेम, लालित्य, सौंदर्य, औदार्य, विनय, पौरुष, मैत्री और ऐश्वर्य जैसे भावों का कोई ऐसा रंग नहीं है जो कृष्ण-चरित के किसी चरण में रूपायित न हुआ हो। यदि उनकी सहजता, उपलब्धता और दूसरों के दुखों को दूर करने की प्रवृत्ति सबको अपना मुरीद बनाती चलती है तो रार, मनुहार, प्यार, राग, विराग की आभा लिए हुए कृष्ण के स्मरण के साथ महारास का उत्सव आज भी सभी को रस से सराबोर कर देता है।
अद्भुत, हास्य, शृंगार, वीर, करुण आदि सभी नौ रसों की न्यारी छटा को चित्रित करती कृष्ण की गाथाएं काव्य, नृत्य रूपों, संगीत और चित्रकला में विस्तार पाती हैं और सदियों से आनंद-रस प्रवाहित करती आ रही हैं। भारत देश के अनेक भागों में कृष्ण के विविध रूपों की आराधना की परम्परा चली आ रही है। व्यास के श्रीमद्भागवत, जयदेव के ‘गीत गोविंद’ से सूरदास, रसखान और मीराबाई , चैतन्य महाप्रभु , स्वामी हरिदास आदि की स्वर लहरी कृष्ण के माधुर्य का दिव्य रसपान कराती आ रही है।
कहते हैं श्रीकृष्ण सम्पूर्ण कलाओं से युक्त साक्षात भगवान हैं- कृष्णस्तु भगवान स्वयम् । मान्यता के अनुसार अकेले वे ही हैं जो सभी सोलह कलाओं से पूर्ण हैं। भक्तशिरोमणि श्रीरूपगोस्वामी के अनुसार ये कलाएं हैं: श्री, भू, कीर्ति, इला, लीला, कांति, विद्या, विमला, उत्कर्षिनी , ज्ञाना, क्रिया , योगा , प्रह्नी , सत्या, ईशाना और अनुग्रहा। नव जलधर की भांति श्यामनील पीताम्बरधारी, पके बिम्ब फल जैसे अरुणअधर, बंशीविभूषित , मस्तक पर मयूरपिच्छ, ललाट पर तिलक, कानों में कुंडल, कटि में करधनी, चरणों में नूपुर धरे श्रीकृष्ण की अद्भुत छवि सब का मन मोह लेती है। वे रससिंधु हैं और उनकी उपस्थिति माधुर्य रस की अनंत सृष्टि करती चलती है, इतनी कि महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उन्हें ‘मधुराधिपति’ अर्थात मधुरता के सम्राट कह दिया। करते भी क्या माधुर्यशिरोमणि कृष्ण के अंग, प्रत्यंग, अधर, मुख, हास्य नेत्र, हृदय, गति सभी मधुर हैं। उनका गान, शयन, गमन, हरण, स्मरण, लीला, संयोग, वियोग भी मधुर हैं। उनके वस्त्र, वचन, चाल, गमन, चरण, नृत्य, माला , तिलक जो कुछ भी है सभी मधुर हैं। ऐसे रसराज को मधुरता की प्रतिमूर्ति ही कहा जा सकता है।
श्रीकृष्ण की ह्लादिनी शक्ति महाभावस्वरूपा बृषभानुनंदिनी श्रीराधा जी हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार विश्वात्मा श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं। श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और श्रीराधिका उनकी आत्मा हैं (आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका )। युगलकिशोर, राधामाधव, राधेश्याम की अलौकिक युगलमाधुरी भक्त जनों के हृदय में प्रतिष्ठित हैं। श्रीराधा की आठ प्रमुख सखियां हैं : श्रीललिता, विशाखा, चित्रा, इंदुलेखा, चम्पकलता, रंगदेवी, तुंगविद्या और सुदेवी। इन आठ सखियों का जीवनचरित्र श्रीराधा की लीला का रसविस्तार करती हैं। वस्तुत: श्रीराधा तत्व श्रीकृष्णतत्व से अभिन्न और उसी का आत्मस्वरूप है। दूध और उसकी सफेद कांति की तरह दोनों अभिन्न हैं। जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति, पृथ्वी में गंध, जल में शीतलता, पृथक प्रतीत होते हुए भी अविभाज्य होते हैं वैसे ही श्रीकृष्ण और श्रीराधा एक प्राण दो देह हैं मिलने को सतत व्याकुल। श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण सुखद नहीं हैं और श्रीकृष्ण के बिना श्रीराधा सुखदा नहीं हैं (विना राधा न कृष्णो न खलु सुखद: सा न सुखदा विना कृष्णं )।
श्रीकृष्ण जीवन भर गतिशील बने रहे। मथुरा से लेकर द्वारिका तक विस्तृत भू-क्षेत्र उनकी लीला स्थली रही। महाभारत में उनकी उपस्थिति सर्वविदित है जिसमें शामिल पात्रों और उनके साथ होने वाली घटनाओं के बीच श्रीकृष्ण ने जितनी भिन्न-भिन्न भूमिकाएं निभाई हैं वैसा कोई और किरदार दूर-दूर तक नहीं मिलता। उनका प्रत्येक नाम एक भिन्न भूमिका बताता चलता है और इस अर्थ में एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं।कान्हा, माखनचोर, छलिया, गोपाल, देवकीसुत, वासुदेव, यशोदानंदन, गोपीजनवल्लभ, मुरारी, मधुसूदन, नंदनंदन, पार्थसारथी, दामोदर, माधव, राधारमण, बांकेबिहारी, बजवल्लभ, गिरिधरनागर, घनश्याम, मुकुंद, वृंदावनविहारी, द्वारिकाधीश, अच्युत, मन्मथमन्मथ, केशव, नटवर, लीलापुरुषोत्तम और भी जाने कितने नाम हैं जो श्रीकृष्ण की अलग-अलग रूप की छटा प्रस्तुत करते हैं। इन सबसे अलग वे योगेश्वर भी हैं जो कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में अर्जुन को उपदेश देते हैं जो श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में विख्यात है। गीता को ब्रह्मविद्या भी कहते हैं और उसके सभी अट्ठारह अध्याय एक-एक योग के नाम पर है जो ‘विषाद योग’ से शुरू होकर ‘मोक्ष संन्यास योग’ पर सम्पन्न होते हैं। संवाद की शैली में आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करने वाली गीता सभी शास्त्रों का सार है और तिलक, गांधी और विनोबा आधुनिक सामाजिक नेताओं और शंकराचार्य और अभिनवगुप्त जैसे आचार्यों ने भी इसकी व्याख्या की है। आज भी इसका क्रम जारी है।
गीता योगयुक्त होने को कहती है। भक्ति, ज्ञान या कर्म मार्ग द्वारा वह साम्यावस्था प्राप्त करने को कहती है। गीता ऐसा मनुष्य बनने को कहती है जिसके शरीर मन-बुद्धि-इंद्रिय सहित वश में है, जो सभी प्राणियों के हित में रत है, जिसके सम्पूर्ण संशय मिट गए हैं और दोष नष्ट हो गए हैं। काम क्रोध से सर्वथा रहित वह मन पर विजय पाकर अपने स्वरूप का साक्षात्कार होता है। ऐसे प्राणी से न तो कोई दूसरा क्षुब्ध होता है और न वह खुद किसी से उद्विग्न होता है। वह हर्ष अमर्ष, भय और उदयोग से रहित रहता है। आज के युग में जब हिंसा, द्वेष और अविश्वास बढ़ रहा है, श्रीकृष्ण अभय का संदेश देते हैं और सद्भावना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। श्रीकृष्ण भाव विजय सुनिश्चित करता है-यतो कृष्णस्ततो जय:।
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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