– गिरीश्वर मिश्र
‘संन्यास’ को अक्सर दीन-दुनिया से दूर आत्मान्वेषण की गहन और निजी यात्रा से जोड़ कर देखा जाता है। मुक्ति की ऐसी उत्कट अभिलाषा स्वाभाविक रूप से मनुष्य को अंतर्यात्रा की ओर अग्रसर करती है। इस आम धारणा के विरुद्ध उन्नीसवीं सदी के अंत में जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था एक अद्भुत चमत्कारी घटना हुई जिसने भारत के प्रसुप्त स्वाभिमान को जगाया और अंतर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया। यह घटना थी भारत भूमि पर स्वामी विवेकानंद के रूप में एक ऐसी प्रतिभा का अवतरण जिसने संन्यास के समीकरण को पुनर्परिभाषित किया और आध्यात्म के सामाजिक आयाम को स्थापित किया। गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस के संस्पर्श से स्वामी विवेकानंद ने न केवल धर्म के अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त किया अपितु भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर मानव जाति के लिए एक नए युग का सूत्रपात किया।
आध्यात्म को भारत की प्राण-धारा मानते हुए स्वामी जी ने अपना ध्यान मनुष्यता और मातृभूमि की ओर दिया। यह वह समय था जब आत्मविस्मृत भारतीय समाज कुरीतियों से विजड़ित तो था ही पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता के प्रति मुग्ध भी हो रहा था। ऐसे में अँग्रेजी जीवन पद्धति का अनुकरण तेजी से बढ़ रहा था। राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, केशव चंद्र सेन आदि के सुधार की परंपरा को आत्मसात करते हुए और अपेक्षित प्रतिरोध करते हुए स्वामी विवेकानंद ने समस्त भारतीय समाज के जागरण का बीड़ा उठाया। उन्होने अकेले की नहीं अपितु समष्टि की मुक्ति को अपना जीवन-ध्येय बना लिया। मूलतः असंसारी प्रवृत्ति वाले योगी ने अपने परिव्राजक जीवन की दिशा लोक कल्याण की ओर मोड़ दी। मातृ-भूमि की उन्नति का प्रश्न उनके विचार के केंद्र में आ गया। उन्हें भारत की ज्ञान परंपरा का गौरव बोध तो था पर उसमें आने वाली रूढ़ियों और बाधाओं से मुक्ति की चिंता भी थी। हृदय में उठी वेदना उत्पीड़ितों के हित-साधन के लिए संकल्प और कर्म में प्रवृत्त होने के दृढ़ निश्चय के रूप में प्रतिफलित हुई। उनके विचार और कर्म में अतीत एवं वर्तमान तथा पूर्व और पश्चिम के ऊपरी अंतरों को भेद कर एक सम्पूर्ण मनुष्य की परिकल्पना आकार लेने को आतुर थी। उनकी कर्मठ दृढ़ता के आगे कोई भी कठिनाई टिक नहीं सकी । ऊर्जा और सर्जनात्मक मेधा से उन्होने परमार्थ की नई व्याख्या की और लोक और मनुष्य में परम सत्ता को देखा और ईश्वर प्राप्ति को जन कल्याण में देखा।
धर्म के उत्थान और मानव कल्याण के लिए गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस की कृपा से सिक्त एक महाशक्ति स्वामी विवेकानंद में घनीभूत हुई थी जिसका परिणाम था कि अल्पायु में ही स्वामी जी ने वह कर दिखाया जो सामान्य व्यक्ति के लिए अकल्पनीय है। सुदृढ़ कद-काठी और भव्य व्यक्तित्व वाले स्वामी विवेकानन्द तीक्ष्ण बुद्धि और स्मृति के भी धनी थे। उनकी भौतिक उपस्थिति ऐश्वर्यशाली थी। अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित अखिल विश्व धर्म महासभा में 11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने ‘भाइयों और बहनों’ द्वारा उपस्थित जनसमूह को संबोधित कर सबको मंत्रमुग्ध कर लिया। उनकी वाग्मिता ने सबको प्रभावित किया यहाँ तक कि कुछ लोग आतंकित भी हुए और विरोध भी किया पर वे डिगे नहीं। अपने व्याख्यान में उन्होने पारस्परिक ईर्ष्या और संकीर्णता का परित्याग कर हर एक की धार्मिक और सामाजिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हए लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने पर बल दिया और विचारों के आदान-प्रदान कि आवश्यकता प्रतिपादित की। अद्वैत की अद्भुत व्याख्या करते हुए एक सत्य की अनेक व्याख्याओं को संगत बताया । इसके आधार रूप में उन्होने वेद वचन ‘एकं सत विप्रा: बहुधा वदंति’ का गुरु गंभीर उद्घोष किया। आशा, साहस और विश्वास के साथ समस्त मनुष्य जाति के लिए प्रेम भरी उनकी ओजस्वी वाणी श्रोता वर्ग को सहज ही अभिभूत कर लेती थी। उन्होंने प्रतिपादित किया कि शुद्ध, बुद्ध और मुक्त आत्मा ही मनुष्य का स्वाभाविक स्वरूप है जिसे पाने की चेष्टा की जानी चाहिए। अजन्मा आत्मा अनादि और अनंत है। श्रेष्ठ और उत्तम के लिए अंदर की ओर देखना होता है। भारतीय दृष्टि में मनुष्य आत्मा है जो शरीर में निवास करता है। अविद्या ही सभी कष्टों की जड़ है।
वे एक लोकप्रिय और प्रभावी वक्ता के रूप में शीघ्र ही प्रसिद्ध हो गए। युक्ति और तर्क के साथ स्वामी जी ने वेदान्त के संदेश को अंतर राष्ट्रीय स्तर प्रसारित किया और योग तथा आत्म-ज्ञान जैसे विषयों में लोगों की रुचि बढाई। स्वयं धर्ममय जीवन के एक जीते जागते आदर्श के रूप में स्वामी जी ने अनेक लोगों को आकृष्ट किया और अनेक विद्वानों और विदुषियों ने उनके अनुयायी बनकर नए ढंग से जीना शुरू किया। अमेरिका में हावर्ड के दार्शनिक और मनोविद विलियम जेम्स और इंग्लैंड में संस्कृतिविद मैक्स मुलर, जर्मनी में संस्कृतज्ञ डा. डाययसन के साथ उनका गहरा संवाद हुआ। अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, स्विट्जरलैंड आदि देशों में स्वामी जी की चार वर्ष की अविराम बौद्धिक यात्रा ने भारत के विषय में पाश्चात्य मानस को एक नई दृष्टि दी। वर्ष 1897 में स्वामी जी भारत भूमि पर वापस पहुंचे। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ ही उनका मूलमंत्र बन गया। मई 1897 में गुरुदेव के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए उनके द्वारा रामकृष्ण मिशन की स्थापना की गई। इसके द्वारा स्वदेशवासियों को कर्मयोग में दीक्षित करने का व्रत ठाना। पूरे भारत का भ्रमण किया और सर्वत्र जन समुदाय को प्रेरित प्रोत्साहित करते रहे। समाज में व्याप्त निश्चेष्ट जड़ता वे कहते थे- उठो जागो और स्वयम जग कर दूसरों को भी जगाओ। समाधान के रूप में वे वेदान्त को कर्म के स्तर पर लाने की सतत चेष्टा करते रहे। उनका लक्ष्य था पारस्परिक सद्भाव और सहिष्णुता को ध्यान में रखते हुए पूर्व और पश्चिम के भेद से ऊपर उठ कर ऐसे सार्वभौमिक धर्म दृष्टि का प्रतिपादन जो समस्त मानवता के लिए उपयोगी हो।
यह बड़ा दुखद है कि ज्ञान-विज्ञान के विकसित होने पर भी आज अंध भक्ति और क्षुद्र स्वार्थ को लेकर धर्म के अनेक कुत्सित और छद्म रूप उभर रहे हैं। बड़ी आसानी से बाबा, गुरु और फकीर का बानक धारण कर लोगों को धोखा देकर धन संपत्ति अर्जित करना आज व्यवसाय सा होता जा रहा है। शार्ट-कट के रूप में टोना-टोटका, पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूँक की शरण में जाकर अपने मनोरथ को पूरा करने का नुस्खा आजमाना सरल और आकर्षक है। स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में भारत धर्मप्राण देश है। वे उसी के आधार पर राष्ट्रीय एकता को संभव अनुभव करते थे। आपसी विद्वेष को त्याग कर प्रगति की कामना करते थे। उनके लिए आध्यात्मिकता ही भारतीय समाज के आनंदमय और शांत जीवन की धुरी थी। इसका ज्ञान सुलभ कराने के लिए उन्होने सतत प्रयास किया। आज धर्म की ऐसी ही लोकोन्मुख व्याख्या की आवश्यकता है। धर्म तो सत्य और स्वतंत्रता से जुड़ा होता जो सृष्टि में जीवन के आधार हैं जिनको कर्म, भक्ति और ज्ञान का अवलंबन करते हुए अनुभव में लाया जा सकता है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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