– प्रभुनाथ शुक्ल
गौरैया हमारी प्राकृतिक सहचरी है। कभी वह हमारे आंगन और नीम के पेड़ के नीचे फुदकती और बिखेरे गए चावल या अनाज के दाने को चुगती। कभी प्यारी गौरैया घर की दीवार पर लगे आईने पर अपनी हमशक्ल पर चोंच मारती दिख जाती है। मगर अब ऐसा नहीं है। एक वक्त था जब बबूल के पेड़ पर सैकड़ों घोंसले लटके होते और गौरैया के साथ उसके चूजे चीं-चीं-चीं का शोर मचाते। बचपन की यादें आज भी जेहन में ताजा हैं लेकिन वक्त के साथ गौरैया एक कहानी बन गई है।
गौरैया इंसान की सच्ची दोस्त भी है और पर्यावरण संरक्षण में उसकी खासी भूमिका है। दुनिया भर में 20 मार्च को गौरैया संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद मो. ई. दिलावर के प्रयासों से इस दिवस को चुलबुली गौरैया के लिए रखा गया। 2010 में पहली बार यह दुनिया में मनाया गया। प्रसिद्ध उपन्यासकार भीष्म साहनी ने अपने बाल साहित्य में गौरैया पर बड़ी अच्छी कहानी लिखी है, जिसे उन्होंने गौरैया नाम दिया। हालांकि, जागरुकता की वजह से गौरैया की आमद बढ़ने लगी है। हमारे लिए यह शुभ संकेत है।
गौरैया एक घरेलू और पालतू पक्षी है। यह इंसान और उसकी बस्ती के पास अधिक रहना पसंद करती है। पूर्वी एशिया में यह बहुतायत पायी जाती है। यह अधिक वजनी नहीं होती हैं। इसका जीवनकाल दो साल का होता है। यह पांच से छह अंडे देती है। आंध्र यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में गौरैया की आबादी में 60 फीसदी से अधिक की कमी बताई गई थी। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसाइटी आफ प्रॉटेक्शन आफ बर्डस’ ने इस चुलबुली और चंचल पक्षी को ‘रेड लिस्ट’ में डाल दिया था ।
गौरैया पासेराडेई परिवार की सदस्य है। इसे वीवरपिंच परिवार का भी सदस्य माना जाता है। इसकी लंबाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है। इसका वजन 25 से 35 ग्राम तक होता है। यह अधिकांश झुंड में रहती है। यह अधिक दो मील की दूरी तय करती है। शहरी हिस्सों में इसकी छह प्रजातियां पायी जाती हैं। इनमें हाउस स्पैरो, स्पेनिश, सिंउ स्पैरो, रसेट, डेड और टी स्पैरो शामिल हैं। यह यूरोप, एशिया के साथ अफ्रीका, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के अधिकतर हिस्सों में मिलती है।
बढ़ती आबादी के कारण जंगलों का सफाया हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में पेड़ काटे जा रहे हैं। ग्रामीण और शहरी इलाकों में बाग-बगीचे खत्म हो रहे हैं। इसका सीधा असर इन पर दिख रहा है। गांवों में अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं। इसका कारण है कि मकानों में गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल रही है। पहले गांवों में कच्चे मकान बनाए जाते थे, उसमें लकड़ी और दूसरी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता था। कच्चे मकान गौरैया के लिए प्राकृतिक वातावरण और तापमान के लिहाज से अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराते थे। आधुनिक मकानों में यह सुविधा अब उपलब्ध नहीं होती है। यह पक्षी अधिक तापमान में नहीं रह सकता है। गगनचुंबी ऊंची इमारतें और संचार क्रांति इनके लिए अभिशाप बन गई। शहर से लेकर गांवों तक मोबाइल टावर एवं उससे निकलते रेडिएशन से इनकी जिंदगी संकट में है।
खेती-किसानी में रसायनिक उर्वरकों का बढ़ता प्रयोग बेजुबान पक्षियों और गौरैया के लिए सबसे बड़ा खतरा है। केमिकलयुक्त रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से कीड़े मकोड़े भी विलुप्त हो चले हैं। इससे गौरैया के लिए भोजन का भी संकट खड़ा हो गया है। दूसरा बड़ा कारण मकर सक्रांति पर पतंग उत्सवों के दौरान काफी संख्या में पक्षियों की मौत होना है। पतंग की डोर से उड़ने के दौरान इसकी जद में आने से पक्षियों के पंख कट जाते हैं। हवाई मार्गों की जद में आने से भी इनकी मौत हो जाती है। दूसरी तरफ बच्चों की ओर से चिड़ियों को रंग दिया जाता है। इससे उनका पंख गीला हो जाता है और वे उड़ नहीं पाती। हिंसक पक्षी जैसे बाज इत्यादि हमला कर उन्हें मौत की नींद सुला देते हैं। दुनिया के चर्चित पर्यावरणविद मोहम्मद ई. दिलावर नासिक से हैं और वह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े हैं। उन्होंने यह मुहिम 2008 से शुरू की थी। आज यह दुनिया के 50 से अधिक मुल्कों तक पहुंच गई है।
गौरैया के संरक्षण के लिए सरकारों की तरफ से कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखती है। हालांकि, यूपी में 20 मार्च को गौरैया संरक्षण दिवस के रूप में रखा गया है। दिलावर के विचार में गौरैया संरक्षण के लिए लकड़ी के बुरादे से छोटे-छोटे घर बनाए जाएं और उसमें खाने की भी सुविधा भी उपलब्ध हो। अमेरिका और अन्य विकसित देशों में पक्षियों का ब्योरा रखा जाता है लेकिन भारत में ऐसा नहीं हैं। पक्षियों के संरक्षण के लिए कॉमन बर्ड मॉनिटरिंग आफ इंडिया के नाम से साइट बनाई है जिस पर आप भी पक्षियों से संबंधी जानकारी और आंकड़ा दे सकते हैं। कुछ सालों से उनकी संस्था गौरैया को संरक्षित करने वालों को स्पैरो अवॉर्ड्स देती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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